मुख्यधारा के मीडिया यानी अखबारों और टीवी चैनलों में भारतीय जनता पार्टी को देश की सर्वाधिक सुगठित और अनुशासित पार्टी बताया जाता है। प्रचारित यह भी होता है कि पार्टी की सारी नियामक शक्तियां दो व्यक्यिों- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के हाथों में केंद्रित हैं और दोनों नेता कोई भी फैसला लेने में देर नहीं करते हैं। वे जो करते हैं वही पार्टी की रीति है और वे जो कहते हैं वहीं पार्टी नीति होती है। वे पार्टी में जिसे चाहते हैं उसे फर्श से अर्श पर और जिसे चाहते हैं उसे अर्श से फर्श पर ले आते हैं। लेकिन दोनों नेताओं की इस बहुप्रचारित निर्द्वंद्व छवि के बावजूद उन राज्यों में पार्टी आंतरिक कलह और अनिश्चिता के दौर से गुजर रही है, जहां इस वर्ष और अगले वर्ष विधानसभा के चुनाव होना है।
इस समय तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया चल रही है, जिसके नतीजे 2 मार्च को आ जाएंगे। इन तीन राज्यों के अलावा इस साल और अगले साल कुल 12 और राज्यों में विधानसभा चुनाव होना हैं। इस वर्ष अप्रैल-मई में कर्नाटक और उसके बाद नवंबर-दिसंबर में मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम विधानसभा का चुनाव होगा। इसके बाद अगले वर्ष 2024में भी पांच राज्यों आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, झारखंड और हरियाणा में विधानसभा के चुनाव होंगे। इसके साथ ही जम्मू-कश्मीर में भी इस वर्ष या अगले वर्ष चुनाव कराए जा सकते हैं।
लगभग इन सभी चुनावी राज्यों में भाजपा हिमाचल प्रदेश सिंड्रोम से गुजर रही है। गौरतलब है कि हिमाचल प्रदेश में पिछले साल के अंत में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा मामूली अंतर से हार कर सत्ता से बाहर हो गई थी। उसे कांग्रेस के मुकाबले सिर्फ एक फीसदी वोट कम मिले थे लेकिन 15 सीटों का अंतर आ गया था। हिमाचल प्रदेश में भाजपा की हार के लिए जो कारण जिम्मेदार थे उनमें सबसे अहम यह था कि मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर को लेकर चुनाव के पहले अनिश्चितता बढ़ गई थी, जिसे भाजपा नेतृत्व ने खत्म करने का प्रयास नहीं किया। अंत तक यह चर्चा होती रही कि अगर भाजपा जीतेगी तो जयराम ठाकुर को मुख्यमंत्री नहीं बनाया जाएगा। भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा और केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर तक के नामों की भावी मुख्यमंत्री के लिए मीडिया में चर्चा होती रही, लेकिन पार्टी ने स्थिति साफ करने की कोशिश नहीं की। नतीजा पार्टी की हार के रूप में सामने आया।
हिमाचल प्रदेश जैसी स्थिति ही कई राज्यों में बनी हुई है। कर्नाटक में अगले महीने चुनाव की घोषणा होने वाली है। अप्रैल-मई में वहां चुनाव होना है, लेकिन भाजपा बेहद दुविधा की स्थिति में होते हुए कुछ तय नहीं कर पा रही है। छह महीने से ज्यादा समय से प्रदेश अध्यक्ष बदले जाने की चर्चा है लेकिन वह बदलाव नहीं हुआ। उससे भी ज्यादा समय से राज्य मंत्रिपरिषद में फेरबदल की चर्चा है लेकिन वह भी नहीं हो पाया है। मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई पिछले दो महीने में कम से कम तीन बार कह चुके है कि जल्दी ही वे अपनी मंत्रिपरिषद का विस्तार करेंगे। वे बार-बार दिल्ली के चक्कर काटते हुए यह भी संकेत दे चुके हैं कि नए मंत्रियों के नाम पर पार्टी आलाकमान की सहमति मिल गई है। फिर भी मंत्रिमंडल का विस्तार नही हो रहा है और बीवाई विजयेंद्र से लेकर रमेश जरकिहोली और केएस ईश्वरप्पा जैसे नेता परेशान हो रहे हैं।
यद्यपि मुख्यमंत्री बोम्मई को हटाने की चर्चा बंद हो गई है लेकिन यह चर्चा शुरू हो गई है कि अगर भाजपा चुनाव जीत जाती है तो बोम्मई को दोबारा मुख्यमंत्री नहीं बनाया जाएगा। इस चर्चा से लिंगायत समुदाय में कंफ्यूजन है। कहा जा रहा है कि चुनाव में अगर भाजपा जीतती है तो गुजरात की तरह पूरी सरकार बदली जा सकती है। यानी मुख्यमंत्री सहित सारे मंत्री नए होंगे। भाजपा ने जिस अंदाज में वोक्कालिगा समुदाय के वोटों के लिए जोड़-तोड़ शुरू की है उससे भी पार्टी का कोर मतदाता समूह यानी लिंगायत समुदाय दुविधा में है। दूसरी ओर यह चर्चा भी शुरू हो गई है कि राज्य में उम्मीदवारों के चयन में भी गुजरात का फॉर्मूला लागू किया जा सकता है। यानी एक तिहाई विधायकों के टिकट कट सकते हैं। इस चर्चा से विधायकों में घबराहट है। कुल मिला कर चुनाव से पहले सब कुछ बिखरा हुआ दिख रहा है।
कर्नाटक जैसी स्थिति ही मध्य प्रदेश की है। वहां इसी साल नवंबर-दिसंबर में चुनाव होना है और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के बारे में वैसी ही चर्चा है, जैसी हिमाचल में चुनाव से पहले जयराम ठाकुर के बारे में थी। कहा जा रहा है कि अगर भाजपा चुनाव जीती तो शिवराज मुख्यमंत्री नहीं बनेंगे। पिछली बार उनके मुख्यमंत्री रहते ही पार्टी 15 साल बाद सत्ता से बाहर हुई थी। वे पार्टी आलाकमान की पसंद के दायरे से बाहर माने जाते हैं, इसलिए उन्हें चुनाव से पहले हटाने और नया मुख्यमंत्री बनाने की चर्चा भी है, जैसा गुजरात, उत्तराखंड और त्रिपुरा में किया गया था। यह भी कहा जा रहा है कि चुनाव से पहले उनसे यह ऐलान कराया जा सकता है कि वे चुनाव नहीं लड़ेंगे। वे भाजपा की जीत सुनिश्चित करने के लिए काम करेंगे और उसके बाद उनका उपयोग केंद्रीय राजनीति में किया जाएगा। जो भी हो, फिलहाल इस तरह की चर्चाओं से भाजपा को नुकसान ही हो रहा है।
मध्य प्रदेश के साथ ही राजस्थान में भी विधानसभा का चुनाव होना है और वहां भी यही स्थिति है। पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे अपनी ताकत दिखा रही हैं तो दूसरी ओर चर्चा है कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह उन्हें इस बार मौका नहीं देना चाहते। पिछले चुनाव में भी शीर्ष नेतृत्व ने उन्हें पार्टी का चेहरा बनाने का फैसला बेमन से किया था। इस बार चर्चा है कि पार्टी कोई चेहरा घोषित किए बगैर ही चुनाव लड़ेगी और जीतने के बाद मुख्यमंत्री का नाम दिल्ली से तय होगा। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला से लेकर केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत, भूपेंद्र यादव और सांसद राज्यवर्धन सिंह राठौड़ तक के नाम भावी मुख्यमंत्री के तौर पर लिए जा रहे हैं।
छत्तीसगढ़ में भी नवंबर-दिसंबर में ही चुनाव होना है। वहां 15 साल तक मुख्यमंत्री रहे रमन सिंह को पार्टी ने जिस तरह पिछले चुनाव के बाद से हाशिए पर डाल रखा है, उससे यह तो तय है कि पार्टी उनके चेहरे पर चुनाव नहीं लड़ेगी। उनकी जगह नया चेहरा कौन होगा, यह पार्टी आलाकमान अभी तक तय नहीं कर पाया है।
दक्षिण भारत के तेलंगाना और पूर्वोत्तर के मिजोरम में भी इसी साल के अंत में चुनाव होना है। मिजोरम में तो भाजपा हाशिए की पार्टी है लेकिन तेलंगाना में उसका लक्ष्य इस बार सरकार बनाने का है। वहां 119 सदस्यों वाली विधानसभा में फिलहाल उसके महज दो विधायक हैं लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह जिस तरह बार-बार वहां का दौरा कर रहे हैं, उससे जाहिर होता है कि पार्टी अपने लक्ष्य के प्रति कितनी गंभीर है। हालांकि भाजपा नेतृत्व को यह अहसास है कि वहां सरकार बनाना इस चुनाव में आसान नहीं होगा लेकिन उसका असली निशाना कांग्रेस है। फिलहाल वहां विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस है और भाजपा का लक्ष्य कांग्रेस को इसी स्थान से बेदखल करने का है। इसीलिए वहां पार्टी के सामने यह सवाल गौण है कि वह किसके चेहरे पर चुनाव लड़ेगी।
अगले वर्ष यानी 2024 में जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होना हैं उनमें भाजपा के लिए महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड बेहद अहम हैं। महाराष्ट्र में वैसे तो विधानसभा का कार्यकाल अगले वर्ष अक्टूबर में पूरा होना है, लेकिन उसके पूरा होने में संदेह है। वहां समय से पहले इसी साल विधानसभा भंग कर नए चुनाव कराए जाने की संभावनाएं नजर आ रही हैं। बताया जा रहा है कि बृहन्नमुंबई महानगर निगम यानी बीएमसी के साथ-साथ पुणे, ठाणे जैसे कुछ बड़े शहरों में नगर निगम के चुनाव के बाद विधानसभा चुनाव कराए जा सकते हैं। भाजपा इसी हिसाब से तैयारी कर रही है और उसने सरकार का नेतृत्व कर रही एकनाथ शिंदे की शिव सेना को भी बता दिया है कि सरकार अगले साल अक्टूबर तक नहीं चलेगी।
एकनाथ शिंदे गुट को किसी तरह चुनाव आयोग के जरिए शिव सेना का नाम और चुनाव चिह्न तो मिल गया है, लेकिन भाजपा जानती है कि अगर शिंदे को पूरे समय तक मुख्यमंत्री बनाए रखा तो उनके संसाधन भी बढ़ेंगे और उनकी पार्टी की ताकत में भी इजाफा होगा। भाजपा का मकसद जैसे-तैसे शिव सेना को पूरी तरह खत्म कर हिंदुत्व की राजनीति करने वाली एकमात्र पार्टी बनना है। इसलिए वह अगले लोकसभा चुनाव से पहले विधानसभा चुनाव करा कर राज्य में अपनी सरकारी बनाने की तैयारी में है। लेकिन यहां भी उसके सामने समस्या चेहरे को लेकर है। पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस को उप मुख्यमंत्री बना कर उनका कद कम किया जा चुका है और पार्टी का एक खेमा खुले आम प्रचार कर रहा है कि अगर भाजपा को सरकार बनाने का मौका मिला तो फड़नवीस को अब मुख्यमंत्री नहीं बनाया जाएगा।
हरियाणा में खुद मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर मान चुके हैं कि शायद अब पार्टी उन्हें दोबारा मुख्यमंत्री नहीं बनाएगी। उनकी जगह लेने के लिए कई दावेदार हैं। दावेदारों के बीच सिरफुटौवल जारी है और किसे चेहरा बनाया जाए, इसे लेकर भाजपा आलाकमान अभी दुविधा की स्थिति है।
यही स्थिति झारखंड में है, जहां पार्टी फिर से सत्ता में आने की तैयारी कर रही है। वहां तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों- बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा और रघुवर दास से लेकर अन्य कई दूसरे नेता पार्टी का चेहरा बनने को आतुर हैं और लेकिन पार्टी का शीर्ष नेतृत्व अभी तय नहीं कर पा रहा है कि पार्टी किसके चेहरे पर चुनाव लड़ेगी। इस स्थिति में सभी दावेदार खुद को पार्टी के चेहरे के रूप में पेश करते हुए राजनीति कर रहे हैं।
इन सभी राज्यों के अलावा जहां इस साल या अगले साल चुनाव नहीं होना है और भाजपा सत्ता में या विपक्ष में है, उन राज्यों में भी पार्टी के अंदरुनी हालात सामान्य नहीं है। यह सारी स्थिति बताती है कि पार्टी की सारी शक्तियां दो लोगों के हाथों में केंद्रित होने के बावजूद पार्टी में अनिश्चिता और अंतर्कलह वाजपेयी और आडवाणी के दौर से भी ज्यादा है।