+
क्या राज्यों में फ़ेल हो गया चुनाव प्रचार का 'मोदी मॉडल'?

क्या राज्यों में फ़ेल हो गया चुनाव प्रचार का 'मोदी मॉडल'?

किसी भी राज्य में चुनाव के दौरान स्थानीय समस्याओं और मुद्दे से दूर हटाकर चुनाव प्रचार को राष्ट्रीय स्तर के मुद्दों या राष्ट्रवाद से जोड़ने का जो 'मोदी मॉडल' है वह चला ही नहीं। 

महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने भले ही सीट जीतने में 100 का आंकड़ा पार कर लिया है लेकिन चुनाव जीतने का 'मोदी मॉडल' यहाँ एक बार फिर फ़ेल हो गया है। किसी भी राज्य में चुनाव के दौरान स्थानीय समस्याओं और मुद्दे से दूर हटाकर चुनाव प्रचार को राष्ट्रीय स्तर के मुद्दों या राष्ट्रवाद से जोड़ने का जो 'मोदी मॉडल' है वह चला ही नहीं। 

प्रचार का यह 'मोदी मॉडल' पहली बार बिहार विधानसभा के चुनावों में फ़ेल हुआ था। उस चुनाव प्रचार में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने चुनाव प्रचार को पाकिस्तान, मांस कारोबार (पिंक रेवोल्यूशन) आदि पर केंद्रित कर दिया था, लिहाजा लालू प्रसाद यादव-नीतीश कुमार और कांग्रेस के गठबंधन ने बीजेपी को बुरी तरह से पराजित कर दिया था। यही फ़ॉर्मूला भारतीय जनता पार्टी ने गुजरात विधानसभा के चुनावों में भी अपनाया था लेकिन बहुत मुश्किल से वह अपनी सरकार बचा पायी। 

गुजरात विधानसभा चुनावों में जनता ने कांग्रेस को सत्ता के क़रीब तक पहुंचा दिया था। राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में हुए विधानसभा चुनावों में भी यही देखने को मिला। मोदी और शाह अपने राष्ट्रीय और राष्ट्रवाद के मॉडल को प्रचारित करते रहे जबकि कांग्रेस ने किसानों के कर्ज, उनकी फसलों के सही दाम और युवाओं को रोजगार की बात कही और वह सत्तासीन हो गयी।  

मोदी-शाह का मॉडल, राष्ट्रीय स्वरुप का होने की वजह से राष्ट्र के स्तर यानी लोकसभा चुनावों में तो सफलता हासिल कर रहा है लेकिन राज्य स्तर पर आकर उसके सामने अड़चनें खड़ी हो रही हैं। या यूं कह लें कि विधानसभा के चुनावों में लोगों को अपने स्थानीय मुद्दों और समस्याओं से ज़्यादा मतलब होता है। 

मोदी और शाह दोनों ही हरियाणा और महाराष्ट्र में अनुच्छेद 370, सर्जिकल स्ट्राइक और पाकिस्तान को सबक सिखाने की बात करते रहे लेकिन उन्हें अप्रत्याशित सफलता तो छोड़िये पिछले बार के अपने प्रदर्शन के अनुरूप भी सफलता नहीं मिल पायी।

भारतीय जनता पार्टी के नेता तर्क देते रहे कि अनुच्छेद 370 को हटाने से जनता में उनका समर्थन क़रीब 20 फ़ीसदी बढ़ गया है लेकिन चुनाव परिणाम देखें तो दोनों ही प्रदेशों में सीटों के साथ-साथ उनका मत प्रतिशत भी कम हुआ है। ये दोनों ही चुनाव लोकसभा चुनाव के 6 माह के अंदर ही हो रहे थे, इसलिए बीजेपी नेताओं का यह भी अति आत्मविश्वास था कि उन्हें लोकसभा में जो सफलता मिली उससे कहीं अच्छी सफलता इस बार मिलेगी। 

लोकसभा चुनाव के परिणाम को देखें तो महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना गठबंधन ने 226 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त हासिल की थी। उसी आंकड़े को आधार मानकर पार्टी ने ‘मिशन 220’ प्लस का नारा दिया था लेकिन वह फुस्स साबित हो गया।

साल 2014 के चुनावों में बीजेपी ने अकेले दम पर 260 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 122 सीटें यानी करीब 45% सीटों पर जीत हासिल की थी। इस बार गठबंधन में 160 सीटों पर चुनाव लड़कर उसने 100 का आंकड़ा पार कर क़रीब 75% सफलता हासिल की लेकिन 120 के आंकड़े को वह पार नहीं कर पाई। 

लोकसभा चुनावों में मिली सफलता को आधार बनाने से बीजेपी का समीकरण बिगड़ गया। पार्टी ने लोकसभा चुनाव की जीत को ना सिर्फ़ आधार बनाया अपितु लोकसभा के मुद्दों या यूं कह लें कि राष्ट्रीय स्तर और राष्ट्रवाद के मुद्दों (मोदी मॉडल) को भी अपने चुनाव प्रचार का आधार बना लिया। 

शायद बीजेपी को इस बात का अति आत्मविश्वास है कि वह कैसा भी चुनाव 'मोदी मॉडल' चलाकर जीत सकती है

कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के बड़े नेताओं, विधायकों को अपनी पार्टी में शामिल करना, टेलीविजन चैनलों के माध्यम से उन्हें 'मेगा भर्ती' जैसे स्लोगन दिलाकर जितनी कवायदें की गयीं, उसे देखते हुए बीजेपी को जो सीटें मिली हैं वह अनुमान से काफी कम हैं। और यह स्थिति भारतीय जनता पार्टी के लिए भी चिंता का विषय है। 

मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने अपने तीन मंत्रियों को टिकट नहीं दिया था, जिन मंत्रियों को टिकट दिया उनमें से भी आठ को पराजय का सामना करना पड़ा। यह चुनाव परिणाम ना सिर्फ बीजेपी बल्कि कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के लिए भी सोचने का विषय है। 

चुनाव से पहले दल-बदल की हवा में कांग्रेस-एनसीपी के अनेक नेता पार्टी छोड़ कर बीजेपी या शिवसेना में चले गए लेकिन उसके बाद भी लोगों ने इन दलों के पक्ष में मतदान कर उन्हें एक सक्षम विपक्ष की स्थिति में खड़ा कर दिया।

दरअसल, पिछले पांच साल में कांग्रेस-एनसीपी ने विपक्ष की भूमिका नहीं निभाई लिहाजा उनकी संगठनात्मक स्थिति भी कमजोर होती गयी। शरद पवार को जब साथी छोड़कर जाने लगे तो इस बात का ख़याल आया और उन्होंने फिर से अपने आप को देश की राजनीति से हटाकर प्रदेश की राजनीति में सक्रिय किया और उसका फायदा उनकी पार्टी को हुआ।

कांग्रेस के हर विधानसभा क्षेत्र में आज भी अच्छे कार्यकर्ता हैं लेकिन उन्हें सक्रिय करने के लिए पार्टी हाई कमान को मेहनत करनी होगी। शिवसेना पिछले पाँच सालों में अपनी सहूलियत के हिसाब से पक्ष-विपक्ष की भूमिका भी निभाती रही। इसका फायदा यह हुआ कि पार्टी को विपक्ष वाली जगह का फायदा मिला और उसकी ताक़त में ज़्यादा गिरावट नहीं आयी। यदि कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी आक्रामक विपक्ष की भूमिका में लोगों के साथ और उनकी समस्या को लेकर आवाज उठाते रहते तो आज चुनाव परिणामों की तसवीर अलग हो सकती थी।  लेकिन लोकसभा चुनावों में हार के बाद दोनों दल एकदम से शिथिल नजर आने लगे जो काफी विपरीत असर डालने वाला साबित हुआ है। राज्य और देश की राजनीति अलग-अलग होती है, इस बात का संकेत महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव परिणाम दे रहे हैं।

सत्य हिंदी ऐप डाउनलोड करें