क्या अब कृषि क़ानून भी रद्द होंगे?
टीकाकरण की लूट और अव्यवस्थाओं को काफी हद तक दूर करने की नरेन्द्र मोदी की घोषणा के बाद सोशल मीडिया की एक बड़ी चर्चा यह भी है कि अब राहुल गांधी का हर कहना प्रधानमंत्री मनने लगे हैं। यह बात माननी मुश्किल है पर यह कामना और उम्मीद करने में हर्ज नहीं है कि खेती सम्बन्धी तीन कानूनों के खिलाफ चल रहे किसान आन्दोलन के सन्दर्भ में भी उनको सदबुद्धि आ जाए और वे अब किसी दिन अचानक इसी तरह इन कानूनों को वापस लेने की घोषणा कर दें। इन कानूनों का क्या मतलब है, यह किसान और देश समझ चुका है और इसके खिलाफ चल रहा आन्दोलन अब खुद नरेन्द्र मोदी तथा भाजपा को राजनैतिक नुकसान करने लगा है। यह चीज बंगाल चुनाव से भी साफ हुई है लेकिन उससे भी ज्यादा उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनावों से।
उत्तर प्रदेश पंचायत चुनाव के नतीजे तो बंगाल से भी ज्यादा अप्रत्याशित थे क्योंकि भले ही भाजपा का शीर्ष नेतृत्व और मीडिया उसे ज्यादा भाव न दे रहा था लेकिन उसके नतीजे आने के बाद सबको उत्तर प्रदेश से भाजपा की विदाई के सिग्नल दिखने लगे हैं। कहना न होगा कि उत्तर प्रदेश के बाद मुल्क से भी मोदी राज को विदा होने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। इसीलिए संघ और भाजपा नेतृत्व उत्तर प्रदेश को लेकर ज्यादा सक्रिय हो गया है।
उधर किसान आन्दोलन से जुड़े लोग भी इन परिणामों से नए उत्साह में आ गए हैं। कोविड की दूसरी लहर को भी दिल्ली की भयंकर सर्दी और बरसात की मार की झेल लेने और खुद की देखरेख के साथ आसपास के लोगों के इलाज और देखरेख का काम करके किसान आन्दोलनकारियों ने अपने दिल्ली आने के छह माह होने पर सम्पूर्ण क्रांति दिवस पर देशव्यापी हुंकार भरकर बता दिया कि अभी उनमें काफी दम है, उत्साह है और लम्बी लड़ाई की उनकी रणनीति काम कर रही है।
सीएए विरोध का शाहीनबाग धरना भी काफी मजबूती से चला लेकिन करोना की पहली लहर में उखड़ गया। भाजपा और संघ परिवार उस पर मुसलमानों का आन्दोलन होने का आरोप लगाकर जो राजनीति खेल रहे थे, वह भी एक हद तक चला। किसान आन्दोलन न सिर्फ महामारी की कई गुना ज्यादा मारक लहर को झेलकर आगे बढ़ा है, बल्कि उसने अपने ऊपर एक प्रांत, एक समुदाय का होने का आरोप भी निराधार करते हुए व्यापकता हासिल की है। कोरोना के इस दौर में सिखों ने और धरने पर बैठे लोगों ने मेडिकल सेवा का जो काम किया है, उससे भी उनकी प्रतिष्ठा बढ़ी है।
इसलिए एक ओर भाजपा जहां पश्चिमी उत्तर प्रदेश की पंचायत समितियों के गठन में सारा दांव खेतिहर जाट जाति के लोगों पर लगा रही है वहीं जाट और मुसलमान भाजपा तथा बसपा से निकलकर सपा और स्व. अजित सिंह की पार्टी की तरफ रुख कर रहे हैं। भाजपा चुनावों के मद्देनज़र जोड़तोड़ और हिसाब लगाने में लग गयी है। उत्तर प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन से लेकर पंचायत स्तर तक पार्टी को सक्रिय कर रही है। उधर, पंजाब में भी चुनाव होने हैं पर वहाँ भाजपाई खुले तौर पर कोई कार्यक्रम करने से भी बच रहे हैं। केन्द्रीय नेतृत्व ने एक बार फिर से अकाली दल के कंधे पर बन्दूक रखकर फायरिंग शुरू कर दी है।
हरियाणा में दुष्यंत चौटाला की पार्टी के विधायकों पर जबरदस्त दबाव है। जब टोहना के विधायक के यहाँ धरना देने पहुंचे किसानों से शासन ने सख्ती करने की कोशिश की तो उसे लेने के देने पड़ गए।
बहुत साफ़ चुनौती देते हुए किसान नेता दिल्ली से वहाँ पहुंचे और और अपने गिरफ्तार साथियों को छुड़ाकर ही वापस आए। जाहिर तौर पर अब सरकार को भी कथित सख्ती की सीमा दिखने लगी है।
छह महीने से ज्यादा से चल रहे किसान आन्दोलन के दौरान किसानों और सरकार के कामकाज और व्यवहार ने भी पलड़ा किसानों की तरफ किया है। तरह तरह के दोषारोपण और ट्रैक्टर रैली के दौरान किसानों के नाम पर लाल किले में हंगामा कराने और धरने पर बैठे शांतिपूर्ण किसानों पर हमले कराने जैसी ओछी हरकतों के बाद सरकारी पक्ष जिस तरह कोरोना काल में भी चुनाव कराने, कुम्भ और आईपीएल के आयोजनों के साथ कोरोना की दूसरी लहर के बारे में जानकारों की चेतावनी को नजरन्दाज करके सेंट्रल विस्टा और मोदी जी के लिए विमान खरीद में लगा रहा और लोग बीमारी से कम ऑक्सीजन जैसी मामूली सुविधाओं के अभाव में मरते रहे, उससे मोदी का सारा आभामंडल बिखर चुका है। दूसरी ओर किसानों ने खाद और डीजल की बढ़ती कीमतों के बीच फसल पैदा करके मुल्क और समाज को आश्वस्त किया है कि कम से कम खाने की कमी नहीं होने वाली है।
आन्दोलन से डरी सरकारों ने इस बार रिकॉर्ड खरीद भी की है जिससे किसानों के पास पैसे भी आ गए हैं। पर आयात निर्यात और खरीद बिक्री के गोरखधन्धे से सरकार बाज नहीं आ रही है और दालों और खाद्य तेल की महंगाई जानलेवा बन गई है। यह भी हुआ है कि मध्य प्रदेश सरकार ने जिस रेट पर किसानों से गेहूं खरीदा है उससे चार सौ रुपए कम पर बड़ी कम्पनियों को बेच रही है।
दूसरी ओर विकास और गरीबी घटने का दावा करने के साथ अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देने का खेल भी सरकार की तरफ़ से चल रहा है। पर यही सरकार किसानों के साथ साफ मन से इन तीनों कानूनों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली पर बात करने को तैयार नहीं है। उसे चार सौ रुपए क्विंटल कम पर गेहूं बेचने और मुफ्त राशन देने में कोई हर्ज नहीं दिखता क्योंकि यह पैसा करदाताओं के सिर पर ही जाना है, लेकिन समझदार किसान नेताओं से बातचीत करके इस समस्या का कोई बढ़िया हल ढूंढने में कोई रुचि नहीं है।
मंडी प्रणाली खत्म होगी, अन्याय होने पर किसान अदालत भी न जा पाएंगे और बड़ी कम्पनियों की स्टॉक होल्डिन्ग पर रोक न होगी तो किसान और खेती का क्या हाल होगा, यह नरेन्द्र मोदी और उनकी मंडली को नहीं मालूम होगा, यह मानना तो भोलापन होगा लेकिन अब जब सीधी लड़ाई में किसान बढ़त बना चुके हैं और ज्यादा लम्बी लड़ाई के लिए तैयार लगते हैं तब भी अपनी ख़ुराफ़ातों से बाज न आना समझ से परे है।
यह जरूर हुआ है कि कोरोना से मुल्क और अपनी दुर्गति कराने के बाद उनके तेवर कमजोर पड़े हैं। मोदी जी ‘यू-टर्न’ लेने में भी माहिर हैं। टीकाकरण पर हुई नई घोषणा भी यू-टर्न ही है। यह लिस्ट बहुत लम्बी है। सो उम्मीद करनी चाहिए कि तीनों कृषि कानूनों और बोनस में आ गए न्यूनतम समर्थन मूल्य के मसले को भी वे जल्दी ही एक और यू-टर्न से निपटाएंगे। जिन्हें शक हो उनको मोदी राज शुरू होते ही आए भूमि अधिग्रहण कानून के हश्र को याद करना चाहिए जबकि तब किसान आन्दोलन इतना व्यवस्थित और मज़बूत नहीं था।