
सरकार दिव्यांगों को विकलांग ही कहे, कड़वी सच्चाई से मुंह न मोड़े!
अगर किसी की मजबूरी का मज़ाक बनाना हो तो वह बात हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सीखे। जिन्होंने बड़ी ही आसानी से 'विकलांग' को 'दिव्यांग' में परिवर्तित करके उनका विकास कर दिया। ऐसा करके वो यही जताना चाहते थे न, कि उन्होंने विकलांगों का विकास कर दिया है?
ज़रा सोचिए, किसी भूखे इंसान को आप रोज़ ‘अन्नदाता’ कहकर पुकारें तो क्या वह खुश होगा? नहीं! उल्टा, यह तंज की तरह लगेगा। ठीक वैसे ही, हमें ‘दिव्यांग’ कहने से हमारी तकलीफें कम नहीं होतीं, बल्कि यह शब्द एक बेरहम मज़ाक जैसा लगता है। सच तो यह है कि हम विकलांग हैं। हमारी चुनौतियाँ वास्तविक हैं। इस खोखले शब्द से हमारी जिंदगी में कोई जादू नहीं होने वाला। ‘दिव्यांग’ कहकर आप हमें विशेष नहीं बना रहे, बल्कि हमारी तकलीफों पर एक चमकीली चादर डालने की कोशिश कर रहे हैं। हकीकत यह है कि हमें रोज़मर्रा की ज़िंदगी में अनगिनत संघर्षों से जूझना पड़ता है। सोचिए, अगर किसी बेरोज़गार को हर दिन ‘मालिक’ कहकर पुकारा जाए तो क्या वह अमीर बन जाएगा? नहीं! बल्कि यह शब्द उसके घावों पर नमक छिड़कने जैसा होगा। इसी तरह, हमें ‘दिव्यांग’ कहना हमारी हकीकत से मुंह मोड़ने जैसा है।
हम लोग यह भली-भांति जानते हैं कि विकलांग का मतलब क्या है? या इस शब्द का दायरा क्या है? लेकिन क्या कोई यह जानता है कि दिव्यांग शब्द किसे परिभाषित करता है? क्योंकि जिन्हें दिव्यांग कहां जाता है, उनके पास न तो कोई दिव्य अंग है और न ही किसी प्रकार की कोई दिव्य क्षमताएं हैं। हां, हम यह अवश्य जानते हैं कि हम दिव्यांग नहीं हैं, हमारे पास कोई दिव्य अंग और क्षमताएं नहीं हैं। ऐसे में दिव्यांग शब्द गढ़कर किसी की विकलांगता पर व्यंग्य करने की क्या आवश्यकता थी?
हो सकता है कि आपमें से कुछ लोग यह कहें कि 'विकलांग' को 'दिव्यांग' कहने के पीछे एक सकारात्मक विचार था। हां, हो सकता है यह संभव हो भी, लेकिन ऐसे में मैं अपने कुछ व्यक्तिगत अनुभव साझा करना चाहता हूं, जो यह स्पष्ट कर देंगे कि सरकार की कथनी और करनी में कितना बड़ा अंतर है।
मेरे दोस्त की कहानी
यह पिछले साल यानी, जून 2024 की बात है, मेरा दोस्त रवि कानपुर रेलवे स्टेशन से अपनी कर्मभूमि कोलकाता के लिए रवाना हो रहा था। लेकिन जब वह कानपुर स्टेशन के प्लेटफार्म पर चल रहा था, तो अचानक सीधे पटरी पर ही गिर गया। प्लेटफार्म पर टेक्टाइल उपलब्ध न होने के कारण उसे अंदाजा ही नहीं हुआ कि वह किनारे पर पहुँच चुका है। गिरने के बाद वह खुद ही किसी तरह से उठकर वापस प्लेटफार्म पर आया और अपनी ट्रेन तक पहुँचा। लेकिन इस दौरान उसे कमर में भयानक दर्द होने लगा। जब उसने मुझे फोन पर यह पूरी घटना सुनाई, तो मुझे रेलवे प्रशासन की घोर लापरवाही पर जबरदस्त गुस्सा आया। देर न करते हुए मैंने उसकी सहायता के लिए रेल मंत्री को टैग करते हुए ट्वीट किया— "कानपुर रेल स्थानक के प्लेटफार्म पर टेक्टाइल नहीं होने की वजह से मेरा दृष्टिबाधित दोस्त सीधे पटरी पर ही गिर गया। @AshwiniVaishnaw जी, अभी वह 12302 से हावड़ा के लिए सफ़र कर रहा है। भूख प्यास से तड़प रहा है तथा कमर में भी भयानक दर्द की शिकायत कर रहा है।"
ट्वीट करने के कुछ समय बाद ही उसे चिकित्सीय सहायता मिल गई, लेकिन असली सवाल यही है। क्या यह दुर्घटना रोकी नहीं जा सकती थी? पुरानी चेतावनियों को नज़रअंदाज़ किया गया! यह पहली बार नहीं था जब इस मुद्दे को उठाया गया था। जब सुरेश प्रभु रेल मंत्री थे, तब मैंने एक खुला पत्र लिखा था, जिसमें यह मांग रखी थी कि— "हर स्टेशन पर एक विशेष कक्ष ऐसा हो जहां पर कोई एक व्यक्ति ऐसा हो जो हर तरह के दिव्यांग को दिव्यांग डिब्बे में बैठाने तक का काम जिम्मेदारी के साथ कर सके।"
रेल मंत्री सुरेश प्रभु के नाम खुला पत्रउस समय पत्र के शीर्षक में ‘दिव्यांग’ शब्द का प्रयोग किया गया था। लेकिन क्या इसका कोई असर हुआ? नहीं! सरकार जब ‘विकलांग’ शब्द को ‘दिव्यांग’ से बदलती है, तो क्या इससे कोई असली बदलाव आता है? अगर रवि वास्तव में 'दिव्य' (अर्थात अलौकिक) होता, तो क्या वह प्लेटफार्म से गिरता? क्या वह रेलवे की लापरवाही के कारण अपनी जान जोखिम में डालता? असलियत यह है कि शब्दों को बदलने से हकीकत नहीं बदलती। सरकार और रेलवे प्रशासन को यह समझना होगा कि यात्रियों को उनकी जरूरतों के हिसाब से सुविधाएँ देना कोई ‘दया’ नहीं, बल्कि उनकी जिम्मेदारी है। यदि रेलवे अपनी सुविधाओं में सुधार नहीं करता, तो चाहे ‘विकलांग’ कहें या ‘दिव्यांग’, यात्रियों की परेशानियाँ खत्म नहीं होंगी।
मंत्रालय को खुद नहीं पता कि ट्रेन का बदला हुआ मार्ग क्या हैः एक बार मेरी दोस्त धनश्री ने कोयंबटूर से बेंगलुरु होते हुए मुंबई जाने वाली ट्रेन 11014 – मुंबई एलटीटी एक्सप्रेस में बेंगलुरु से मुंबई जाने के लिए टिकट बुक किया था। लेकिन कुछ समय बाद रेलवे की ओर से उसे टेक्स्ट मैसेज के जरिए केवल इतना ही सूचित किया गया कि संभावित ट्रेन अब बेंगलुरु से होकर नहीं जाएगी। बस, इतनी सूचना और कुछ नहीं!
एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते वह क्या करती? ज़ाहिर है, वह हर संभव प्रयास करके यह पता करने की कोशिश करेगी कि ट्रेन का नया मार्ग कौन-सा है, ताकि वह बेंगलुरु के किसी नज़दीकी स्टेशन से उस ट्रेन में चढ़ सके। लेकिन समस्या यह थी कि..
- 139 हेल्पलाइन पर कॉल करने पर उसे कोई स्पष्ट जवाब नहीं मिला।
- NTES (National Train Enquiry System) में ट्रेन के बदले हुए मार्ग के बारे में सूचना तो थी लेकिन नए मार्ग के बारे में कोई जानकारी नहीं थी।
- रेल मंत्रालय को एक्स (ट्विटर) पर टैग कर शिकायत करने के बावजूद कोई ठोस जवाब नहीं आया।
ज़रा एक बार सोच कर देखिए, एक पूरी ट्रेन का रूट बदला जा रहा है, लेकिन खुद रेल मंत्रालय को नहीं पता कि वह ट्रेन किस मार्ग से जाएगी! और यह वही रेल मंत्रालय है, जो यात्रियों की छोटी-छोटी समस्याओं को हल करके सुर्खियां बटोरता है, अख़बारों में अपनी वाहवाही करवाता है, लेकिन उस समय पर वही मंत्रालय अपनी ही ट्रेन के बदले हुए मार्ग की जानकारी देने में असफल साबित हुआ था। जैसे वह ट्रेन भारतीय रेल मंत्रालय नहीं, अपितु किसी और ही देश का रेल मंत्रालय संचालित कर रहा हो।
अब सवाल उठता है कि अगर रेल मंत्रालय यात्रियों की बुनियादी जरूरत—यानी ट्रेन कहां से जाएगी, यह तक बताने में असफल हुआ, तो नैतिक जिम्मेदारी किस पर आयेगी। क्या यह असफलता इतनी छोटी थी कि इसे नज़रअंदाज़ कर दिया जाए? या फिर रेलवे को सुर्खियों में लाने के लिए सिर्फ उन्हीं मुद्दों पर काम किया जाता है, जिनसे सरकार की छवि चमकाई जा सके? अगर सरकार ‘दिव्यांग’ शब्द गढ़ने में जितनी मेहनत करती है, उतनी रेलवे को सुधारने में करती, तो शायद धनश्री जैसी यात्रियों को अपनी ट्रेन के बदले हुए रूट के लिए भटकना न पड़ता!
दृष्टिबाधित यात्रियों की उपेक्षा
एक बार मैं नागपुर से मुंबई जाने के लिए नागपुर रेल स्थानक पर अपनी ट्रेन का इंतजार कर रहा था। स्टेशन पर यह घोषणा हो रही थी कि 12812 हटिया-एलटीटी एक्सप्रेस अपने तय प्लेटफार्म के बजाय प्लेटफार्म नंबर 8 पर आएगी। लेकिन आश्चर्य की बात यह थी कि कहीं भी यह सूचना नहीं दी जा रही थी कि ट्रेन कितनी देर से चल रही है और कब पहुंचेगी। इस स्थिति को देखते हुए, मैंने रेलवे को टैग करते हुए एक ट्वीट किया—"नागपुर के रेल स्थानक पर यह घोषणा की जा रही है कि 12812 HTE-LTT EXPRESS अपने तय प्लेटफार्म के बजाय प्लेटफार्म नंबर 8 पर आएगी। लेकिन @AshwiniVaishnaw जी, इसकी कोई घोषणा नहीं है कि ट्रेन अपने निर्धारित समय से काफी लेट चल रही है। @RailwaySeva @RailMinIndia @IRCTCofficial"
हालांकि, आधे घंटे तक कोई जवाब नहीं आया। तब मैंने व्यंग्यात्मक लहजे में एक और ट्वीट किया- "अरे हां, मैं तो भूल ही गया था कि इस देश में 'विकलांग' अथवा 'दृष्टिबाधित' लोग थोड़ी न रहते हैं! क्योंकि अब तो उन्हें तथाकथित 'दिव्यांग' में परिवर्तित कर दिया गया है। यानी, वे अपने 'दिव्य अंग' का इस्तेमाल करके कहीं न कहीं से रास्ता ढूंढ ही निकालेंगे। कुछ गलत तो नहीं कह रहा हूं न, चौकीदार मंत्रियों?"
यह ट्वीट करने के ठीक 15 मिनट बाद रेलवे की ओर से मेरी यात्रा का विवरण मांगा गया। तथा आधे घंटे बाद मेरी शिकायत दर्ज कर रेल मदद प्लेटफार्म पर डाल दी गई, जिसकी शुभ सूचना मुझे टेक्स्ट मैसेज द्वारा दे दी गई। लगा कि अब तो स्टेशन पर ट्रेन की देरी के बारे में कोई घोषणा होगी ही। लेकिन नहीं! मेरी शिकायत दर्ज होने के मात्र 10 मिनट के भीतर ही क्लोज कर दी गई। बिना मुझसे संपर्क किए, बिना कोई समाधान दिए। उस पल ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो मैं रेल मंत्रालय से सुलभ व्यवस्था की भीख मांग रहा था, और रेल मंत्रालय तथा रेल मंत्री मेरा परिहास कर रहे थे।
गुस्से में आकर मैंने फिर ट्वीट किया-
"वाह भाई वाह! बड़ा आश्चर्य हुआ यह जानकर कि 2:13 पर मेरी शिकायत दर्ज की जाती है और 2:25 पर बिना मुझसे संपर्क किए, बिना किसी समाधान के शिकायत बंद भी कर दी जाती है। @AshwiniVaishnaw @RailwaySeva @RailMinIndia @IRCTCofficial मुझसे मांगे गए यात्रा विवरण का अचार ज़रा मुझे भी तो खिलाइए!"
उस वक्त मेरे मन में एक ही विचार आया—अगर मैं सच में दिव्यांग होता, तो क्या मैं अपनी 'दिव्य दृष्टि' से ट्रेन की देरी के बारे में जानकारी नहीं हासिल कर पाता?
सवाल यह है- क्या भारत जैसे देश में, जहां करोड़ों लोग रेलवे पर निर्भर हैं, यात्रियों को बुनियादी जानकारी के लिए भी संघर्ष करना पड़ेगा? खासकर वे लोग, जिन्हें सरकार ने ‘दिव्यांग’ कहकर आत्मनिर्भर घोषित कर दिया है। क्या उन्हें अपनी ‘दिव्य दृष्टि’ और ‘दिव्य शक्तियों’ का इस्तेमाल करके ही पता लगाना होगा कि ट्रेन कब आएगी, कहां आएगी, कितनी लेट है? अगर सरकार सच में समावेशिता में विश्वास करती, तो क्या दृष्टिबाधित यात्रियों को हर सफर में इस तरह की चुनौतियों से जूझना पड़ता? आखिर सरकार ने नाम बदलकर हमें ‘दिव्यांग’ बना ही दिया है, तो फिर हमें किसी सहारे की क्या जरूरत! दरअसल, यह सिर्फ अव्यवस्था नहीं, बल्कि प्रशासनिक संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है। यह उसी मानसिकता का नतीजा है जो नाम बदलने को समाधान मानती है, मगर असल में किसी की तकलीफ समझना ही नहीं चाहती। काश, सरकार ने उतना ही वक्त व्यवस्था सुधारने में लगाया होता, जितना ‘दिव्यांग’ शब्द गढ़ने और उसकी मार्केटिंग करने में लगाया।
नोट बदले, दिक्कतें बढ़ीं
नोटबंदी के बाद जब 10, 20, 50, 100, 200 और 500 रुपये के नए नोट चलन में आए, तो दृष्टिबाधित लोगों को उन्हें पहचानने में गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ा। ऐसा प्रतीत होता है कि नोटों की लंबाई और चौड़ाई बदलने से पहले सरकार ने दृष्टिबाधितों से जुड़ी संस्थाओं या विशेषज्ञों से कोई विचार-विमर्श करना उचित नहीं समझा। परंतु ऐसा कैसे संभव होता जब निर्णय लेने वाला व्यक्ति स्वयं को ही सर्वज्ञानी मानने लगे, जो अपने आपको लोकतंत्र से भी बड़ा समझने लगे और जब वो सुझाव मांगे भी तो मात्र औपचारिकता निभाने के लिए? क्या ऐसे तथाकथित प्रधान सेवक से यह उम्मीद रखी जाए कि वह वास्तव में सबका साथ सबका विकास के तहत समावेशिता को महत्व देगा?
एक बात स्पष्ट कर देता हूं कि नोटों के आकार-प्रकार में बदलाव करना कोई समस्या नहीं थी, समस्या यह थी कि इसे बिना किसी अध्ययन, बिना दृष्टिबाधित समुदाय की राय लिए, और बिना समुचित योजना के लागू कर दिया गया। ऐसे में सवाल उठता है कि जब ₹200 के नोट का निर्माण करना था, तो बाकी नोटों के आकार को बदले बिना भी नोटबंदी संभव थी। क्या सरकार इस सवाल का तार्किक उत्तर दे सकती है? या फिर यही कह दिया जाएगा कि पेपर बचाने के लिए नोटों की लंबाई और चौड़ाई घटाई गई?
इस मुद्दे को उठाते हुए मैंने एक बार ट्वीट किया था, जिसमें भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) को टैग कर लिखा था— देश में #Demonetization के बाद दृष्टिबाधितों को ₹10, ₹20 तथा ₹50 के नोट पहचानने के लिए बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। @RBI अब आप से ही उम्मीद है कि आप ही कुछ मार्गदर्शन करें। सरकार के मुखिया को तो कोई चिंता है ही नहीं सिवाय विकलांग को दिव्यांग में परिवर्तित करने से।
दरअसल, पुराने नोटों को लंबाई एवं चौड़ाई से बड़ी ही आसानी से पहचाना जा सकता था। नए नोटों का साइज छोटा करने की वजह से दो नोटों के बीच का अंतर काफी ज़्यादा घट गया है। वैसे नोट को पहचानने के लिए इंटैग्लियो प्रिंटिंग आधारित पहचान चिह्न दिए गए हैं, लेकिन ये चिह्न सिर्फ 100 रुपये और उससे ऊपर के नोट में ही उपलब्ध हैं।
हां, सरकार ने नोट पहचानने के लिए बाद में एक मोबाइल ऐप की घोषणा की, लेकिन क्या सरकार यह नहीं समझती कि हर दृष्टिबाधित व्यक्ति के पास स्मार्टफोन नहीं होता, और हर समय किसी मोबाइल ऐप के जरिए नोट की पहचान करना भी व्यावहारिक नहीं है? सवाल तो यह भी है कि जिनके पास कोई तकनीकी सुविधा नहीं है, क्या उन्हें स्मार्टफोन सरकार वितरित करेगी? अगर पहले ही दृष्टि बाधित समाज से सही परामर्श लिया गया होता, तो इस तरह की समस्याओं से बचा जा सकता था।
यानी, ले देकर हम वहीं पहुंच जाते हैं कि सरकार की नीति-निर्माण प्रक्रिया में विकलांग व्यक्तियों की वास्तविक जरूरतों का कितना कम ध्यान रखा जाता है। दिव्यांग जैसे खोखले शब्द गढ़ने में जितनी ऊर्जा लगाई गई, अगर उतनी गंभीरता से हमारी वास्तविक समस्याओं पर विचार किया जाता, तो शायद हम आज इस असुविधा से न जूझ रहे होते। शायद इसलिए ही पूर्व केंद्रीय रेल मंत्री पीयूष गोयल कहते हैं "नाम बदलने से पहचान नहीं बदलती"
मुझे याद है 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले विपक्ष ने अपने गठबंधन का नाम INDIA रखा था। इस पर पूर्व केंद्रीय रेल मंत्री पीयूष गोयल ने तंज करते हुए ट्विटर पर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के ट्वीट को रीट्वीट करते हुए लिखा था- "नाम बदलने से पहचान नहीं बदलती..."
उनके इस ट्वीट को रीट्वीट करते हुए मैंने भी लिखा था- "मंत्री @PiyushGoyal जी, काश कि आप इसी ट्वीट में प्रधानमंत्री @narendramodi जी को शामिल करते तथा उन्हें कहते कि सिर्फ 'नाम बदलने से पहचान नहीं बदलती'। उदाहरण के लिए #विकलांग का नया नाम #दिव्यांग करने से विकलांगों की पहचान नहीं बदलती और न ही उनमें किसी #दिव्य अंग का समावेश होता है।"
मुझे नहीं पता कि यह ट्वीट गोयल जी ने देखा था या नहीं, लेकिन इतना जरूर पता है कि भारत सरकार की नीति बस 'नाम बदलो और भूल जाओ' तक सीमित है। पहले हम विकलांग थे, अब दिव्यांग हैं, कल शायद कुछ और होंगे। लेकिन जो नहीं बदला, वह है इस व्यवस्था की असंवेदनशीलता।
समाज और सरकार को चाहिए कि इस दिखावे से बाहर निकलें और असली मुद्दों जैसे —शिक्षा, तकनीक और समावेशी विकास पर ध्यान दें। हमारी लड़ाई सम्मान की है, असल समानता की है। हमें कागज़ी फूल नहीं, ठोस नीतियाँ चाहिए। हमें नाम नहीं, अवसर चाहिए। यह समाज तभी बदलेगा जब विकलांगता पर मीठी-मीठी बातें करने की बजाय, इसे एक गंभीर विमर्श में लाया जाएगा। वरना, ‘दिव्यांग’ जैसे शब्द बस एक दिखावा बने रहेंगे, जो सुनने में भले ही अच्छे लगते हैं लेकिन ऐसे शब्दों का वास्तविकता से उतना ही सरोकार होता है जितना की सरकार का वास्तविक मुद्दों से।