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ऐतिहासिक सूखे की आशंका, क्या कर रही है मोदी सरकार?

ऐतिहासिक सूखे की आशंका, क्या कर रही है मोदी सरकार?

देश के सामने भयानक सूखे की आशंका है, बुवाई एक चौथाई कम हुई है, सूखे की स्थिति है, पीने के पानी की किल्लत है। पर सरकार को मानो इससे कोई मतलब नहीं है।

जून का यह महीना देश के 100 साल के इतिहास में सबसे सूखे 5 महीनों में एक है। बारिश औसत से 35 प्रतिशत कम हुई है। इसका नतीजा यह है कि खरीफ़ फ़सल की बुवाई औसत से 25 प्रतिशत कम हुई है। देश के कई इलाक़ों में सूखे की स्थिति है, कई जगहों पर पीने के पानी की किल्लत है। कृषि ख़राब होने से ग्रामीण अर्थव्यवस्था की कमर टूटेगी, गाँव के लोगों की क्रय शक्ति कम हो जाएगी। इसका असर पहले से मंदी की मार झेल रही अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। यह अच्छी ख़बर नहीं है। 

मौसम विभाग का कहना है कि जून में 97.9 मिलीमीटर बारिश हुई, जबकि औसत बारिश 151.1 मिलीमीटर रहती है। यदि इन दो दिनों में अच्छी बारिश हुई तो भी यह 106 मिलीमीटर के आसपास ही रहेगी, यह भी औसत से कम होगा। साल 1920 से अब तक सिर्फ़ चार बार ऐसा हुआ कि इस बार के जून से कम बारिश हुई है। ये साल हैं 2009 (85.7 मिलीमीटर), 2014 (95.4 मिलीमीटर), 1926 (98.7 मिलीमीटर) और 1923 (102 मिलीमीटर)। 

मामला क्या है?

यह भी ध्यान लायक बात है कि 2004 और 2014 में मानसून पर अल नीनो का असर था। अल नीनो की स्थिति तब पैदा होती है जब प्रशांत महासागर के ऊपर का तापमान एक निश्चित सीमा से ज़्यादा हो जाता है, इससे ट्रॉपिकल क्षेत्र की जलवायु अनिश्चित हो जाती है, बारिश कम हो जाती है और गर्मी बहुत ही अधिक बढ़ जाती है। मौसम विभाग निश्चित तौर पर यह नहीं कह रहा है कि अल नीनो का असर पड़ रहा है, पर वह इससे इनकार भी नहीं कर रहा है। 

इसका असर यह हुआ है कि खरीफ़ की बुवाई बुरी तरह प्रभावित हुई है। लगभग 25 प्रतिशत कम बुवाई हुई है। कृषि मंत्रालय के आँकड़ों के मुताबिक़, इस बार अब तक सिर्फ़ 146.61 लाख हेक्टेअर में खरीफ़ की बुवाई हुई है। पिछले साल इसी दौरान 162.07 लाख हेक्टेअर ज़मीन पर खरीफ़ की बुवाई अब तक हो चुकी थी।

लचर ग्रामीण अर्थव्यवस्था

सबसे बुरा असर दलहन की बुवाई पर पड़ा है। अब तक सिर्फ 3.42 लाख हेक्टेअर पर इसकी बुवाई हो पाई है, जबकि पिछले साल 8.86 लाख हेक्टेअर ज़मीन पर दलहनों की बुवाई हुई थी। उसके एक साल पहले यानी 2017 में 18.18 हेक्टेअर ज़मीन पर दलहन की बुवाई की गई थी। साफ़ है, दलहन की बुवाई लगातार कम होती जा रही है। यह उस स्थिति में हो रही है जब अच्छी फ़सल होने पर भी भारत को  दालों का आयात करना होता है। 

देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था पहले से ही लचर हाल में है। कृषि उत्पादों की उचित कीमत न मिलने, लघु व सूक्ष्म ईकाइयों के अच्छा व्यवसाय नहीं करने और दूसरे कारणों से गाँव की अर्थव्यवस्था का बुरा हाल है, सरकार की ओर से कोई समर्थन नहीं है।

नतीजा यह है कि गाँव के लोगों की क्रय शक्ति कम हुई है। इस बार फ़सल अच्छी नहीं होगी तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर और बुरा असर पड़ेगा, लोगों की क्रय शक्ति और प्रभावित होगी। इससे देश की अर्थव्यवस्था पर भी बुरा असर पड़ेगा, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। 

सवाल यह है कि इस स्थिति से बाहर निकलने का कोई रास्ता है? क्या सरकार के पास कोई ऐसा उपाय है, जिससे वह इस स्थिति में किसानों की मदद कर सके। दरअसल, भारत की कृषि व्यवस्था पारंपरिक रूप से बड़े स्तर पर मानसून पर निर्भर रही है। पिछले कुछ दशकों से कृषि अधिक उपेक्षित हुई है, सरकार अब इस और तब तक ध्यान नहीं देती जब तक कोई राजनीतिक कारण नहीं सामने आए। लिहाज़ा, सिंचाई के मामले में अभी भी भारत कई विकासशील देशों से पीछे है। इसलिए इस बार का यह संकट यकायक आया हुआ संकट नहीं है, यह दशकों की उपेक्षा का नतीजा है।

 नरेंद्र मोदी के सत्ता संभाले हुए 5 साल बीच चुके, दूसरा कार्यकाल शुरू हो गया, लेकिन उन्होंने भी इस दिशा में कुछ नहीं किया है। वे भले ही इस स्थिति के लिए भी जवाहर लाल नेहरू को दोष दें, पर सामान्य सिंचाई या ग्रामीण अर्थव्यवस्था सुधारने के लिए कम से कम कोई कार्य योजना तो बन ही सकती ही। ऐसा कुछ नहीं हुआ है। 

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