भारत सरकार के पास क्यों अभी तक कोई वैक्सीन नीति ही नहीं है?
वर्ष 1943 का बंगाल का अकाल आधुनिक भारतीय इतिहास की सबसे विनाशकारी घटनाओं में से एक है। इस भीषण अकाल में 30 लाख लोग मारे गए थे। भारत पर अपने शासन के दौरान तथा भारत छोड़ने के कई दशकों के बाद तक अंग्रेज दृढ़ता से दावा करते रहे कि बंगाल का यह भीषण अकाल प्राकृतिक था, तथा भारतीय स्वयं इसके लिए ज़िम्मेदार थे।
तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने बंगाल के इस भयानक अकाल के लिए भारतीयों को स्पष्ट रूप से दोषी ठहराते हुए कहा था कि भारतीय ‘खरगोशों की तरह प्रजनन’ कर रहे थे, जिससे भोजन की कमी हो गई और टिप्पणी की कि अगर अकाल इतना भयानक था, तो महात्मा गांधी अभी भी जीवित कैसे हो सकते थे। बेशक, शासितों द्वारा झेली गई त्रासदियों की कहानियाँ शासकों द्वारा प्रस्तुत कहानियों से बहुत अलग होती हैं, जो अक्सर दुनिया के सामने नहीं आ पातीं।
1943 के बंगाल के भयानक अकाल की कहानी भी अलग नहीं थी। हाल के वर्षों में भारत तथा अन्य देशों में हुए वैज्ञानिक साक्ष्यों पर आधारित अध्ययनों से इस बात की व्यापक पुष्टि हुई कि यह अकाल प्राकृतिक नहीं बल्कि इसका कारण उस वक़्त के ब्रिटिश सरकार के एक असंवेदनशील शासक के ख़राब नीतिगत निर्णय थे, जिसकी वजह से 30 लाख लोगों की मौत हो गई थी। अब इस तथ्य को व्यापक रूप से स्वीकार किया गया है कि 1943 का बंगाल का अकाल वास्तव में चर्चिल-युग की ब्रिटिश नीतियों की विफलता से उपजी एक मानव निर्मित आपदा था और इस तबाही के लिए तत्कालीन ब्रिटिश ज़िम्मेदार था।
आज हम भारत में बंगाल के उस भयानक अकाल से भी व्यापक एक ऐसे संकट का सामना कर रहे हैं, जिसने भारत को एक-एक सांस के लिए तड़पने और मदद के लिए रोने के लिए छोड़ दिया है। हमने अपनी नदियों में तैरते शवों, नदियों के किनारों पर सड़ती लाशों और सड़कों पर मर रहे लोगों की दर्दनाक तस्वीरें देखी हैं। भारत की कोविड की व्यापकता और भयानकता इस तथ्य से स्पष्ट है कि हमारे समाज के सबसे विशेषाधिकार प्राप्त और साधन संपन्न लोग भी अपने प्रियजनों के लिए बुनियादी स्वास्थ्य सेवा का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं। इस भयानक स्थिति में हम सिर्फ़ कल्पना कर सकते हैं कि हमारे देश में ग़रीब लोगों की स्थिति कितनी भयानक होगी।
लेकिन, इतनी भयानक स्थिति अचानक कैसे बन गयी? क्या ग़लत हुआ, यह पता करने का सबसे आसान तरीक़ा यह जांचना है कि दूसरों ने इस आपदा काल में क्या सही किया। एक दूरदर्शी नेता या लीडर, तथा एक अदूरदर्शी, सत्तालोलुप, प्रचारजीवी, डेमागाग की कार्यशैली में अंतर को स्पष्ट करने के लिए दोनों के नीतिगत निर्णयों के उदाहरण सामने रखकर उनकी तुलनात्मक समीक्षा की जानी चाहिए।
भारत में कोरोना महामारी की दूसरी लहर की शुरुआत से केंद्र की भाजपा सरकार ने महामारी से जुड़े शासन के सबसे महत्वपूर्ण कार्यों जैसे: ऑक्सीजन उत्पादन, उत्पादन का नियंत्रण और कोविड-19 के इलाज से जुड़ी दवाओं जैसे रेमडेसिविर का वितरण आदि का नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया था। इनमें सबसे महत्वपूर्ण कार्य राष्ट्रव्यापी टीकाकरण का अभियान था। केंद्र सरकार ने इसका नियंत्रण भी अपने हाथों में ले लिया।
सरकार समर्थक ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जिन्होंने मोदी सरकार के इस निर्णय पर गर्व महसूस किया और कहा कि एक महान नेता ने महामारी की रोकथाम का कार्य राज्य के नेताओं को छोड़ने के बजाय स्वयं अपने हाथों में लेकर अपनी महान नेतृत्व-क्षमता और संवेदनशीलता की मिशाल पेश की है।
आपदा काल में दूरदर्शी लीडर जहाँ तैयारियों पर मंथन-चिंतन करते हैं और अपना ध्यान आपदा प्रबंधन पर केंद्रित करते हैं, अदूरदर्शी, प्रचारप्रिय और डेमागाग ज़मीनी हक़ीक़त को नज़रअंदाज़ करते हुए जनता और विश्व-जनमत को अपने अजीबोगरीब निर्णयों से बरगलाने में मशगूल रहते हैं। भारत में भी ऐसा ही हुआ है।
यह महज संयोग की बात थी कि भारत इस महामारी की शुरुआती लहर से बुरी तरह प्रभावित नहीं हुआ था। लेकिन, केंद्र सरकार ने इसका क्रेडिट लेने में कोई देर नहीं की और दावा किया कि मोदी सरकार की नीतियों की वजह से भारत के लोग अकेले महामारी से बच गए। अपनी झूठी सफलता के नशे में डूबी केंद्र सरकार ने सही वक़्त पर इस आपदा से निबटने के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचे को तैयार करने, ऑक्सीजन क्षमता का निर्माण करने और चिकित्सा व्यय बढ़ाने के बजाय, देश का ध्यान थालियों को पीटने पर केंद्रित कराया और जनमानस के बीच यह सन्देश भेजा कि कोरोना का ख़तरा ख़त्म हो गया है। इस प्रकार केंद्र सरकार ने न सिर्फ़ खुद कोरोना के ख़तरे को पूरी तरह नज़रअंदाज़ किया बल्कि जनता के बीच भी इस महामारी की गंभीरता के बारे में भ्रामक सन्देश भेजा।
डरावनी बात यह है कि युवा दर्शकों तक पहुँचने के प्रयास में प्रधानमंत्री "परीक्षा पे चर्चा" शीर्षक से युवा छात्रों के साथ व्यापक रूप से प्रचारित बातचीत करते हैं। परीक्षा की तैयारी को नज़रअंदाज़ करते हुए, परीक्षा से पहले जश्न मनाने का सन्देश देना कोई जीवन सबक़ नहीं है, जो प्रधानमंत्री हमारे युवा स्कूली बच्चों को देते हैं।
टीकाकरण रणनीति के संदर्भ में भारत के पास शायद दुनिया की सबसे मूर्खतापूर्ण टीकाकरण रणनीति है। शुरुआत में ही सरकार टीकों की अनुमानित मांग का अनुमान लगाने में असफल रही तथा अच्छी तरह से पता होने के बावजूद कि उसके द्वारा नामित निर्माताओं - सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया और भारत बायोटेक के पास समस्त भारत के टीकाकरण के लिए उत्पादन की अपेक्षित क्षमता नहीं है, सरकार ने किसी अन्य विकल्प की तरफ़ ध्यान नहीं दिया। टीकों की अनुमानित संख्या अनुमान लगाने में असफल होने के कारण सरकार टीकों के लिए एक बड़ा पर्याप्त आदेश देने में विफल रही। विडंबना यह है कि सरकार ने इस साल जनवरी में टीकों के लिए ऑर्डर दिए, जबकि टीकाकरण की प्रक्रिया ऑर्डर देने के चार-पांच महीने बाद शुरू हुई। अगर, इसकी तुलना संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय संघ से करें तो दोनों ने अपने टीकाकरण अभियान को शुरू करने से लगभग एक साल पहले ही आवश्यकता से अधिक टीकों के लिए ऑर्डर दे दिए थे।
एक तरफ़ हमने ज़रूरत से बहुत कम टीकों का ऑर्डर दिया था और दूसरी तरफ़ हमने अपने स्वयं के नागरिकों का टीकाकरण करने के बजाय अन्य देशों को टीके निर्यात करने आरम्भ कर दिए। यह शायद ही कोई आश्चर्य की बात है, क्योंकि एक सच्चा नेता उन लोगों की चिंता करता है जो उस पर भरोसा करते हैं जबकि एक सत्ता लोलुप, प्रचारप्रिय डेमागाग विपदा के समय भी अपनी छवि को लेकर अधिक चिंतित रहता है।
दुर्भाग्य से अब भी भारत सरकार के पास टीकाकरण अभियान की कोई स्पष्ट नीति नहीं है, और न ही इसे ठीक करने का कोई प्रयास होता दिख रहा है। जबकि यूरोपीय संघ में 27 अलग-अलग देश टीकों के मूल्य पर मोलभाव करने के लिए वैक्सीन निर्माताओं के साथ बातचीत करने के लिए एक साथ आए हैं, भारत में केंद्र सरकार ने अपने राज्यों से कहा है कि वे अपने राज्य के लिए टीके स्वयं खरीद लें। नतीजा यह है कि मुंबई में नगरपालिकाओं ने टीकों की खरीद के लिए अपना टेंडर निकालना शुरू किया है।
जबकि उन देशों के नेता, जिन्होंने अपने देशों में कोविड-19 महामारी से सफलतापूर्वक निजात पायी है अपने देशवासियों को कोविड से सम्बंधित पूरी जानकारी दे रहे हैं, और कमियों का पता लगाने के लिए अपने देश की मीडिया को सवाल पूछने की पूरी आजादी भी दे रहे हैं।
हमारे पास एक ऐसे प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने अपने 7 साल के कार्यकाल में अभी तक एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की है। यह न केवल सरकार की बल्कि भारत के उस शीर्ष मीडिया की भी घोर विफलता है जो सरकार से सवाल पूछने में घबराती है।
प्रधानमंत्री का स्पष्ट रूप से मानना है कि उन्हें प्रेस कॉन्फ्रेंस करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि देश की नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय मीडिया ने कोविड महामारी से हुई लाखों मौतों और असफल प्रबंधन के लिए उन्हें कठघरे में खड़ा नहीं किया है। अच्छे नेतृत्वकर्ता और डेमागाग के बीच एक और अंतर यह भी है कि जहाँ अच्छे नेतृत्वकर्ता सार्थक समाधान पर पहुँचने के लिए आम सहमति बनाने की कोशिश करते हैं, वहीं डेमागाग अपनी ताक़त का इस्तेमाल दूसरों के विचारों को सत्ता के ख़िलाफ़ साज़िश मानकर उसे कुचलने के लिए करते हैं।
जबकि अन्य देशों में (और कई ग़ैर भाजपा शासित राज्यों में भी) सरकारों ने पार्टी लाइन से ऊपर उठ कर विपक्ष के सदस्यों के साथ मिलकर विशेषज्ञ समितियों का गठन किया है, हमारे देश की केंद्र सरकार ने अभी तक एक भी वर्चुअल संसद सत्र का आयोजन तक नहीं किया है ताकि सरकार अपने कार्यों और लोगों की चिंताओं जुड़े विपक्ष के तीखे सवालों से बच सके और अपनी ज़िम्मेदारी से भाग सके।
बगैर संसद के अधिवेशन और प्रेस कॉन्फ्रेंस के हम अपने इस महान नेता तक कैसे पहुँचेंगे? बातचीत करना या आलोचना करना तब और कठिन हो जाता है जब यह सरकार प्रधानमंत्री से सवाल पूछने या सरकार विरोधी पोस्टर लगाने के लिए ग़रीब लोगों को गिरफ्तार करती है। हमने प्रधानमंत्री की मन की बात सुनने में बहुत साल बिताए हैं, अच्छा होगा कि वे हमारी भी सुन लें।
पिछले कुछ वर्षों में भारत के लोकतंत्र पर डेमागागी का असर दिखने लगा है। इसके तेज दंश का प्रभाव पहले कभी भी देश की छवि के लिए अधिक गंभीर, जनता के लिए इतना विनाशकारी और अधिक हानिकारक महसूस नहीं हुआ था। जबकि मुझे आशा है कि मोदी सरकार इस लेख के संदेश को ग्रहण करेगी और अपनी नीति में सुधार करेगी किन्तु आप और मैं भलीभाँति अनुमान लगा सकते हैं ऐसे वक़्त पर एक डेमागाग क्या करेगा।
(नोट: डेमागाग (demagogue) ऐसा राजनीतिक नेता होता है जो लोगों के पूर्वाग्रह और अनभिज्ञता का फायदा उठाकर, उन्हें भावुक बनाकर या भड़का कर स्वयं को लोकप्रिय बना, सत्ता प्राप्त करने का सफल या असफल प्रयास करता है। डेमागाग जनता के बीच विचार-विमर्श और विवेचना पर अंकुश लगाते हैं और राजनीतिक व्यवहार के मान्य आचार का उल्लंघन करते हैं। वे अक्सर किसी गूढ़ राष्ट्रीय या सामाजिक समस्या पर तेज़ी से बलपूर्वक क़दम उठाने की बात करते हैं और सूझबूझ से काम लेने वाले विरोधियों पर कमज़ोरी, गद्दारी या भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हैं। इतिहास में ऐसे नेताओं ने कई बार अपने देशों व समाजों को भारी हानि पहुँचाई है।)