ऑयल बॉन्ड के बहाने तेल की कीमतों को सही बताने की सरकार की भौंडी कोशिश
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डीज़ल और पेट्रोल की महँगाई के लिए पिछली सरकारों की ग़लत ऊर्जा नीति को दोषी ठहरा दिया है और पेट्रोलियम मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने 'ओपेक' देशों द्वारा कीमत बढाने और सरकार द्वारा किए जा रहे ग़रीब कल्याण के कार्यक्रमों के भारी खर्च को तेल की कीमतों के कम न होने का कारण बता दिया है, लेकिन जिस बात पर बीजेपी प्रवक्ता और संघ परिवार के लोग अचानक जोर देने लग़े हैं वह है पिछली यूपीए सरकारों द्वारा जारी ऑयल बॉन्ड की देनदारियाँ।
इस बात को आज ऐसे अन्दाज में बताया जा रहा है कि सरकार इन देनदारियों को सम्भालते सम्भालते परेशान है और अब तक लिहाज़ करके इस मसले को उठा नहीं रही थी। लेकिन जब महंगाई का शोर ज़्यादा हो गया है तो इसे बताना पड़ रहा है।
यह सरासर झूठ है और बॉन्ड जारी करना या उसकी देनदारियाँ चुकाना सरकारी वित्त के मैनेजरों का स्वाभाविक और नियमित काम है।
सबसे बड़ी बात यह है कि ये देनदारियाँ इतनी बड़ी नहीं हैं कि साल में लाखों करोड़ का अतिरिक्त कर वसूलना पड़ जाए जैसा कि आज पेट्रोलियम पदार्थों के मामले में हो रहा है।
13-14 लाख करोड़ रुपए झटके
2008 से 2011 के बीच यूपीए सरकार ने दो फ़ैसले किए-तेल की कीमत निर्धारण का काम बाज़ार के हवाले किया और घाटे की भरपाई ग्राहकों पर डालने की जगह ऑयल बॉन्ड से पैसे जुटाकर बोझ को आगे के सालों और अर्थव्यवस्था पर डाल दिया। कुल 1.44 लाख करोड़ के बॉन्ड जारी हुए जिन्हें अभी तक सिर्फ 3,500 करोड़ के बॉन्ड मैच्योर हुए हैं और अभी तक इनके सूद पर 40,226 करोड़ रुपए देने पड़े हैं।
यह बेशर्मी नहीं तो और क्या है कि आपने कुल भुगतान 44 हज़ार करोड़ का भी नहीं किया और ग्राहकों की जेब से करीब 13-14 लाख करोड़ रुपए झटकने का बहाना कांग्रेस सरकार के ऑयल बॉन्ड की देनदारी को बता रहे हैँ।
बॉन्ड बस बहाना है!
आप साल में इस मद पर 10 हज़ार करोड़ भी खर्च नहीं कर रहे हैं और हर साल डेढ, पौने दो लाख से लेकर ढाई लाख करोड़ रुपए अतिरिक्त वसूली करने लगे हैं।
इस बॉन्ड का एक और हिस्सा अभी अक्टूबर में मैच्योर होगा। अब तक प्रधानमंत्री के लिए हजारों करोड़ में एक जोड़ा विशेष विमान खरीदने और सेंट्रल विस्टा के निर्माण पर हजारों करोड़ रुपए खर्च करने का फैसला किस ‘गरीबी’ में लिया गया है, यह याद भी नहीँ आता।
क्यों जारी किया बॉन्ड?
दरअसल, कांग्रेस सरकार के लिए बॉन्ड जारी करना एक मजबूरी भी थी और कुशल राजकोषीय प्रबन्धन का तकाजा भी क्योंकि तेल कम्पनियाँ अपने खर्च से कम पैसे पर तेल और गैस बेच रही थीं। तब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में पेट्रोलियम 120 डॉलर प्रति बैरल था, जबकि आज बहुत बढकर भी 60-62 डॉलर पर ही है।
राजनैतिक और प्रशासनिक कारणोँ से कम क़ीमत मेँ सामान बेचने के नुक़सान को अंडर-रिकवरी कहते हैं और तब अंडर रिकवरी का बोझ 2.9 लाख करोड़ हो चुका था। अब तेल के आने के बाद से जिस किस्म से उसका मूल्य निर्धारण होता है और जिस उदार भाव से भंडारण और बीमा (तेल के ज्वलनशील होने से यह खर्च बहुत होता है) होता है उससे तेल व्यवसाय से जुडे लोग मालामाल होते हैं और तब भी हमारी सरकारी कम्पनियाँ कभी घाटे मेँ न थीँ।
खैर, बीजेपी के लोग यह झूठ भी प्रचारित कर रहे हैँ कि इस ‘क़र्ज’ को चुकाने के लिए भी धन जमा करने की ज़रूरत है जबकि असल मेँ बॉन्ड निश्चित अवधि के लिए ही जारी होते हैँ और उनका प्री-पेमेंट नहीं हो सकता। और इन्हें जारी करते समय तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिन्ह, जो कम बोलते थे, ने साफ कहा था कि यह बोझ हम अगली पीढियोँ के लिए छोड रहे हैं।
बॉन्ड के संग यह समझ भी जुड़ी होती है कि जब कीमतों में उतार हो, कमाई बढे या कामकाज सुधरे तब अधिक धन जुटाकर तात्कालिक मुश्किल से निजात पाया जा सकता है।
क्या कहना है बीजेपी का?
चालाक बीजेपी प्रवक्ता टीवी की बहसों में मुख्य विपक्षी कांग्रेस के प्रवक्ताओं को यह कहकर उलझा देते हैं कि इस वृद्धि में एक तिहाई हिस्सा राज्यों के खाते में टैक्स के रूप में जाता है, सो अगर कांग्रेस को यह पसन्द नहीं है, तो उसकी राज्य सरकारें अपने हिस्से का कर कर ख़त्म करने की घोषणा करें। फिर यह बात भूलकर बहस केन्द्र बनाम राज्य की तरफ मुड़ जाती है कि राज्यों में भी बीजेपी का ही शासन ज़्यादा जगह है।
बहस को उस तरह लेने की ज़रूरत नहीं है। जब मोदी राज आया था तब राज्यों को पेट्रोलियम पर लगने वाले अपने करों से लगभग 1.35 लख करोड़ रुपए का राजस्व मिलता था और केन्द्र को 1.25 लाख करोड़ से भी कम। आज सारी वृद्धि के साथ पेट्रोलियम पदार्थों से केन्द्र का राजस्व चार लाख करोड रुपए पहुँच रहा है जबकि राज्यों का हिसाब अभी दो लाख करोड़ रुपए है।
महंगाई और लूट की ज़िम्मेदारी राज्यों की तुलना में कई गुना ज्यादा केन्द्र पर है। और सब जानते हैं कि केन्द्र लिखित करार के बावजूद राज्यों को जीएसटी वसूली मेँ उनका पूरा हिस्सा नहीं दे रहा है।
और अरुण जेटली ने अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की कीमतें गिरने का पूरा लाभ उपभोक्ताओं के पास न पहुँचने देकर कुछ लाभ सरकारी खजाने में समेटने की जिस कुशल वित्तीय प्रबन्धन की शुरुआत की उससे ऐसा लगता है कि मोदी सरकार के मुँह खून का स्वाद लग गया है। और यह वित्तीय प्रबन्धन की जगह लूट और बन्दरबाँट में बदल गया है।
अब तो केन्द्र को आदत सी पड़ गई है और यह धारणा भी मजबूत हो गई है कि चाहे जैसे भी हो पैसे हाथ में आएँ तो मुफ्त राशन से लेकर पैसे बाँटने और मुफ्त गैस जैसी योजनाएँ चुनाव जितवा देती है। यह हैरान करने वाला तथ्य है कि केन्द्र ने पेट्रोलियम पदार्थोँ से अब तक 13-14 लाख करोड़ रुपए का अतिरिक्त राजस्व वसूला है और लोक- लुभावन योजनाओँ का खर्च भी इतना ही है।