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दक्षिणपंथी कुतर्क में मोदी काल का अप्रतिम योगदान

दक्षिणपंथी कुतर्क में मोदी काल का अप्रतिम योगदान

मोदी-काल में दक्षिणपंथ की विकृत सोच और कुतर्कों का दायरा वहां तक पहुंच चुका है, जहां तक आप सोच नहीं सकते। विडंबना यह है कि कुछ जज भी इसमें शामिल होकर इस वैध बनाने की जबरन कोशिश में लगे हुए हैं। कुछ जजों के लिए अब संविधान के भी कोई मायने नहीं रह गए हैं। वरिष्ठ पत्रकार एनके सिंह क्या कहना चाहते हैं, पढ़कर समझिएः 

सेलेक्टिव एप्प्रोप्रिएशन ऑफ़ फैक्ट्स (केवल मतलब के तथ्य चुनना), बैकवर्ड प्रोजेक्शन ऑफ़ लॉजिकल प्रेमाइसेज (इतिहास में हुई गलतियों को आज दुरुस्त करने वाले उपक्रम को अपरिहार्य राष्ट्रीय इबादत का दर्जा दिलाना), अवैज्ञानिक और अपुष्ट ईश्वरीय आदेशों का जिक्र “अपने” सत्य को खड़ा करना और छोटी सी बात को वितंडा बनाना भारत के दक्षिणपंथियों को मोदी-काल की अनूठी देन है. ये सब पहले भी थे लेकिन इस काल में इसे व्यापक विस्तार और संस्थागत शक्ति दे कर तथा मीडिया के इस्तेमाल के जरिये राष्ट्रीय चिंतन परम्परा को दूषित कर भारतीय समाज को एक ऐसी जड़ता की गर्त में डाल दिया है जिससे बाहर निकलना मुश्किल होगा.

कुछ उदाहरण देखें. उपराष्ट्रपति राज्यसभा के पदेन सभापति होते हैं लेकिन संविधान ने इनका मूल काम उपराष्ट्रपति के रूप में नगण्य रखा है. सदन चलाना हीं इनका मूल काम होता है. विपक्ष ने इनके पक्षपाती आचरण के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने का उपक्रम शुरू किया तो महोदय का जवाब सुनिए “किसान का बेटा हूँ, देश के लिए मर जाऊंगा, मिट जाऊँगा मगर कमजोरी नहीं दिखाऊँगा”. विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव पर देश, किसान, बलिदान का समावेश दक्षिणपंथ को मोदी की देन है. दस साल के मोदी-काल में पार्टी की कायापलट का कमाल है कि भाजपाई समर्थकों ने विपक्ष के “दुष्प्रयास” को “असंवैधानिक” और “जाटों का अपमान” करार दिया. 

एक और गंभीर और दूरगामी परिणामों वाला उदाहरण देखें. भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड ने ज्ञानवापी के मामले में सुनवाई करते हुए मौखिक रूप कहा था कि किसी धार्मिक स्थल के मूल चरित्र को जानने के लिए वैज्ञानिक जांच कराने से उसका धार्मिक चरित्र नहीं बदलता. यह बात उनके फैसले में कहीं भी नहीं है. फैसले में केवल इलाहाबाद हाई कोर्ट के जांच के फैसले को बहाल रखा गया है जो केवल ज्ञानवापी मामले को लेकर था. 

लेकिन पूरे देश की अदालतों ने यह मान लिया कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जांच से धर्म-स्थल का चरित्र नहीं बदलता और जांच करने लगे. दक्षिणपंथी उत्साहियों ने देश की हर मस्जिद के नीचे मंदिर तलाशने के मुकदमे शुरू किया और तत्पर अधीनस्थ न्यायमंदिरों ने जांच के आदेश देने शुरू कर दिए.

बौखला कर इस मौखिक अभिव्यक्ति के जन्मदाता चंद्रचूड को एक इंटरव्यू में कहना पडा “अरे भाई, मैंने यह बात “डेविल्स एडवोकेट” की तरह कही थी और जज इस तरह के कोर्ट में सही तथ्य तक पहुँचने के लिए अक्सर करते हैं. फैसला सिर्फ वही होता है जो लिखित होता है.” अब यहाँ पर दक्षिणपंथी कुतर्क देखिये. प्लेसेस ऑफ़ वर्शिप एक्ट, 1991 के खिलाफ उनका एक वकील मुकदमा करता है. लेकिन जब उसे वर्तमान बेंच ने परोक्ष रूप से उस फैसले को याद दिलाया जिसमें अयोध्या मामले में पांच जजों की संविधान पीठ ने सर्वसम्मत फैसले में अनेक पृष्ठों में इस कानून को संवैधानिक प्रावधानों का रक्षक बताया था (और बताया जाता है कि उस अहस्ताक्षरित फैसले के लेखक वही चंद्रचूड थे) तो दक्षिणपंथी याचिकाकर्ता वकील का तर्क था -- वह तो “ओबिटर डेसीडेंडी” (फैसले का मुख्य भाग न होना) था. 

याने जज का मौखिक कथन देश भर की कोर्ट्स के लिए का कानून बन जाता है लेकिन पांच जजों की किसी कानून को लेकर लिखित व्यापक अभिव्यक्ति को कोई कोर्ट या दक्षिणपंथी तर्क संज्ञान में नहीं लेता.      

तीसरा उदाहरण लें. इलाहाबाद हाई कोर्ट का एक जज “अस वर्सेज देम बाइनरी” में सार्वजानिक भाषण में कहता है “हमारे यहाँ जब बच्चा पैदा होता है तो वैदिक मन्त्र सुनता है जबकि उनके यहाँ पैदा होता है तो जानवर काटना देखता है”. इस पर विवाद हुआ तो देश का एक बहका मंत्री जज को सही ठहराते हुए कहता है कि “इसमें गलत क्या है. वह हिन्दू है और विश्व हिन्दू परिषद् के आयोजन में गया है तो हिन्दू की हीं तो बात करेगा?”. 

जजों के मर्यादित आचरण की पहली संहिता 7 मार्च, 1997 में बनाई गयी. इसका पहला रूल है “जज का आचरण न्यायपालिका की निष्पक्षता में जन-विश्वास को मजबूत करने वाला होना चाहिए; एससी या हाई कोर्ट्स के जजों का कोई भी आचरण, चाहे वह जज के रूप में हों या व्याक्तिगत रूप में, अगर जन-विश्वास के भाव को कमजोर करता है तो उसकी रोकना चाहिए”.

-सुप्रीम कोर्ट ने इस कोड को अगले दो माह में याने 7 मई, 1997 में हीं अडॉप्ट किया और तब से यह जजों के आचरण का सबसे मकबूल कोड बन गया. इन्ही बिन्दुओं पर सन 2002 में बैंगलोर सिद्धांत बना जिसे संयुक्त राष्ट्र ने स्वीकार किया. इसमें न्यायपालिका के लिए छः वैल्यूज (आदर्श) वर्णित हैं —स्वतंत्रता, निष्पक्षता, सत्यनिष्ठा, मर्यादा, समता तथा क्षमता और कर्मठता. आदर्श संख्या 2 के उप-खंड 2 में कहा गया है “एक जज का आचरण, कोर्ट में या कोर्ट के बाहर, ऐसा होना चाहिए जिससे आम जनता, वादियों और कानूनी पेशा के लोगों का उस जज और न्यायपालिका की निष्पक्षता में विश्वास और मजबूत हो. 

इस जज के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट को एक स्वयंसेवी संस्था ने चिट्ठी लिखी और महाभियोग के उपक्रम भी शुरू हुए. सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से रिपोर्ट माँगी. अगले 48 घंटों में हीं चीफ जस्टिस ने नया रोस्टर बना कर संगीन अपराधों में बेल के अलावा कई अन्य गंभीर अपराध कानून के मामलों की सुनवाई से उक्त जज को हटा लिया और उन्हें कमतर माने जाने वाले सिविल वाद सौंप दिए हैं. किसी जज के लोक-आचरण को लेकर यह बड़ा कदम माना जा रहा है. 

मोदी-काल के दक्षिणपंथ की विकृत सोच ने भारतीय चिंतन परम्परा को जितनी क्षति पहुंचाई है उसे सही दिशा में लाने में सदियाँ लग जायेंगीं क्योंकि जनमानस में मोदी-शाह जोड़ी ने गणेश जी का दूध पीना, सतयुग में हवाई जहाज का होना, शल्यक्रिया से हाथी का मुंह आदमी पर अधिरोपित करना राष्ट्रीय सोच में संस्थागत, संस्कृतिनिष्ठ और अपरिहार्य धार्मिक कर्मकांड बना दिया है.    

(लेखक एन के सिंह ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन-बीईए के पूर्व महासचिव हैं)

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