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यूपी में 1967 में सत्ता गँवाने के बाद से कांग्रेस ने कोई सबक नहीं सीखा!

यूपी में 1967 में सत्ता गँवाने के बाद से कांग्रेस ने कोई सबक नहीं सीखा!

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस साढ़े तीन दशकों से सत्ता से बाहर क्यों है? आख़िर किस वजह से वह ऐसी स्थिति में पहुँची है? क्या कांग्रेस द्वारा किए गए तरह-तरह के प्रयोग जिम्मेदार है? पढ़िए, एट द पावर, द हार्ट ऑफ पावर, चीफ मिनिस्टर्स ऑफ उत्तर प्रदेश में क्या दावा किया गया है।

लोकसभा में अपेक्षाकृत अच्छा-खासा प्रदर्शन करने के बाद हुए हरियाणा और अभी महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में फजीहत करा चुकी कांग्रेस की कुछ मुसीबतें तो खुद की बनाई हुई हैं। कांग्रेस की मुश्किल यह है कि वह बहुत लंबे समय तक केंद्र और राज्यों की सत्ता में रही है, लिहाजा अब भी उसके बहुत से नेताओं की मानसिकता सत्ता के दायरे से बाहर नहीं निकल सकी है। अपनी खोई जमीन तलाशती कांग्रेस को अतीत से सबक मिल सकता है। उसे पता होगा कि जब तक वह उत्तर प्रदेश में अपनी ज़मीन मजबूत नहीं करती दिल्ली तक उसका रास्ता मुश्किल बना रहेगा। यह वह राज्य है, जहां वह 35 सालों से सत्ता से बाहर है! यही वह प्रदेश भी है, जहां कांग्रेस ने एक समय सत्ता के हर तरह के प्रयोग भी किए, बहुत संभव है कि कांग्रेस की यूपी में आज की हालत के लिए ऐसे प्रयोग भी जिम्मेदार हों। 

पत्रकार श्यामलाल यादव की देश के सबसे बड़े सूबे और इस नाते सबसे अहम सियासी प्रदेश उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्रियों पर केंद्रित ताजा किताब, एट द पावर, द हार्ट ऑफ पावर, चीफ मिनिस्टर्स ऑफ उत्तर प्रदेश, ऐसे ही कई घटनाक्रमों से परदा उठाती है, जो भाजपा के 'कांग्रेस मुक्त भारत' के सियासी नारे में कहीं दफन हो गए हैं। 

ऐसा ही एक घटनाक्रम देश और सूबे की पहली महिला मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी से जुड़ा हुआ है, जब कांग्रेस आलाकमान की अदूरदर्शिता और यूपी के कांग्रेसी नेताओं की आपसी खींचतान ने उनकी सरकार को मुश्किल में डाल दिया था। श्यामलाल ने इस वाकये को रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। स्वतंत्रता सेनानी सुचेता कृपलानी 1951 में कांग्रेस छोड़कर अपने पति जे बी कृपलानी की किसान मजदूर प्रजा पार्टी में शामिल हो गई थीं। 1952 में वह लोकसभा का चुनाव जीतकर संसद पहुंची थीं। 

जे बी कृपलानी ने 1952 में ही केएमपीपी का सोशलिस्ट पार्टी में विलय कर दिया और इस तरह बनी प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के वह अध्यक्ष बनाए गए। दो साल के भीतर ही जे बी कृपलानी ने जब पीएसपी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया, तो सुचेता कृपलानी कांग्रेस में लौट आईं। सुचेता कृपलानी ने 1957 में कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा का चुनाव जीता। 1960 में वह चंद्रभानू गुप्ता की सरकार में मंत्री बनने के लिए उत्तर प्रदेश आ गईं और सालभर के भीतर ही उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बन गईं। जल्द ही उनकी सरकार, जैसा कि श्यामलाल ने विस्तार से लिखा है, जातिवाद और भ्रष्टाचार के दोहरे आरोपों से घिर गई।

यही वही दौर था, जब राम मनोहर लोहिया और जे बी कृपलानी लोकसभा का उपचुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे। करीब तीन साल बाद 1966 में सुदूर बस्तर में घटी एक घटना ने राजनीति को उलट पुलट दिया।

बस्तर में आदिवासियों के बीच भगवान की तरह पूजे जाने वाले राजा प्रवीर चंद भंजदेव की उनके महल के सामने हुए एक गोलीकांड में मौत हो गई। भंजदेव आदिवासियों के साथ जल, जंगल और जमीन के मुद्दे पर आंदोलन कर रहे थे, जिससे मध्य प्रदेश की द्वारिका प्रसाद मिश्र की सरकार परेशान हो गई थी।

इस गोलीकांड की गूंज दिल्ली में संसद तक सुनी गई। विपक्षी दलों के एक प्रतिनिधिमंडल ने इस घटना की जांच की और द्वारका प्रसाद मिश्र को इस गोलीकांड के लिए जिम्मेदार ठहराया। यह किताब बताती है कि इसका असर यूपी की सियासत पर पड़ा, क्योंकि इस प्रतिनिधिमंडल में जे बी कृपलानी भी शामिल थे। इसने पहले से राजनीतिक उथल-पुथल का सामना कर रहीं सुचेता कृपलानी की मुश्किलें बढ़ा दीं। श्यामलाल लिखते हैं कि इन्हीं वजहों से सुचेता कृपलानी ने 1967 का विधानसभा चुनाव तक नहीं लड़ा। उनकी पार्टी के सहयोगियों ने ही उनके लिए मुश्किलें खड़ी कर दी थीं। आखिरकार 1967 में कांग्रेस पहली बार यूपी की सत्ता से बाहर हो गई और सूबे को चरण सिंह के रूप में नया मुख्यमंत्री मिला। उल्लेखनीय यह भी है कि सुचेता कृपलानी ने मुख्यमंत्री बनते ही दसवीं कक्षा तक की सभी लड़कियों की फीस माफ कर दी थी।  

जाहिर है, कांग्रेस ने 1967 में विपक्ष के उभार और अपनी बढ़ती कमजोरियों को ठीक से नहीं समझा, जिसका खामियाजा उसे आज तक यूपी में उठाना पड़ रहा है। उसी दौर से एक-एक कर बड़े नेता कांग्रेस छोड़ते गए, जिनमें मुख्यमंत्री रहे हेमवतीनंदन बहुगुणा भी शामिल थे। उस दौर के घटनाक्रम बताते हैं कि इंदिरा सरकार और कांग्रेस में संजय गांधी के बढ़ते प्रभाव ने कांग्रेस के भीतर ही भीतर अंसतोष पैदा किया। 

इमरजेंसी के दौर, खासतौर से जबरिया नसबंदी के कारण कांग्रेस को सर्वाधिक सियासी नुकसान यूपी में ही उठाना पड़ा था। श्यामलाल ने उस दौर का एक रोचक किस्सा दर्ज किया है। तब नारायण दत्त तिवारी यानी एन डी तिवारी मुख्यमंत्री थे। इमरजेंसी के दौरान वह इंदिरा गांधी और संजय गांधी सहित कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं से निर्देश लेने के लिए बार-बार दिल्ली का चक्कर लगा रहे थे। उन दिनों यूपी में उन्हें न्यू दिल्ली (एनडी) तिवारी या नथिंग डुइंग (एनडी) तिवारी भी कहा जाने लगा था! 

यूपी में कांग्रेस के लिए 1977 की जनता लहर ने रही-सही कसर पूरी कर दी, जब सूबे को राम नरेश यादव के रूप में पहला ओबीसी मुख्यमंत्री मिला।

1960 के दशक में लोहिया ने पिछड़ा पावे सौ में साठ का नारा दिया था। यह एक तरह से सूबे में ओबीसी की गोलबंदी का दौर था, हालांकि इसका व्यापक असर नजर आया 1990 के दौर में जब भाजपा के मंदिर आंदोलन के बरक्स मंडल राजनीति शुरू हुई। पहले मुलायम और उनके बाद मायावती इसकी राजनीतिक लाभार्थी थीं। 

श्यामलाल यादव ने सूबे के प्रथम मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत से लेकर मौजूदा मुख्यमंत्री आदित्यनाथ तक के कार्यकाल का बेहद रोचक ढंग से विश्लेषण किया है। सुचेता कृपलानी पर जहां नौकरशाही पर कमजोर पकड़ के आरोप लगे थे, तो सूबे की दूसरी महिला मुख्यमंत्री मायावती का कार्यकाल नौकरशाही पर मजबूत पकड़ के लिए भी जाना जाता है। आज भले ही अखिलेश यादव की अगुआई में समाजवादी पार्टी और मल्लिकार्जुन खड़गे, सोनिया गांधी और राहुल गांधी की कांग्रेस के बीच गठजोड़ है, लेकिन यह अखिलेश के पिता मुलायम सिंह यादव थे, जिन्हें यूपी से कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने का श्रेय जाता है।

यूपी को कल्याण सिंह के रूप में भाजपा का पहला मुख्यमंत्री मिला था। श्यामलाल यादव ने यूपी में 1951 से पहले जनसंघ और उसके बाद भाजपा की यात्रा का सिलसिलेवार ब्योरा दिया है। 1967 में सूबे में कांग्रेस की ढलान के साथ ही भारतीय जनसंघ का उभार शुरू हुआ था, जब उसने विधानसभा चुनाव में 98 सीटें जीती थीं, और एक निर्दलीय के साथ आने के बाद उसकी संख्या 99 हो गई थी। 

आज हिन्दुत्व देश की राजनीति के केंद्र में है, तो इसकी जड़ें यूपी की सियासत में ही तलाशी जा सकती हैं। कांग्रेस ही नहीं, बल्कि लोहियावादी समाजवादी पार्टी और कांशीराम के क़दमों पर चलने वाली मायावाती की बहुजन समाज पार्टी के लिए भी सबक है कि, उन्होंने यूपी जैसे जातिगत विविधता, बहुलतावादी और हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे वाले सूबे में भाजपा और संघ की इकहरी राजनीति के लिए जगह कैसे तैयार कर दी। 

दूसरी ओर भाजपा ने देश के सबसे बड़े सूबे का सियासी कथानक पूरी तरह से बदल दिया है, जिसके अगुआ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हैं। जैसा कि श्यामलाल लिखते हैं कि मुख्यमंत्री बनने के बाद आदित्यनाथ ने कई फैसलों के जरिये हिन्दुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाया है। इनमें इलाहाबाद जिले का नाम प्रयागराज और फैजाबाद जिले का नाम अयोध्या रखने जैसे फैसले शामिल हैं। सूबे में भाजपा की मजबूत पकड़ की यही सबसे बड़ी मिसाल है, योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री के रूप में पांच साल का कार्यकाल पूरा करने के बाद लगातार दूसरी बार चुनाव जीतकर सूबे में इतिहास रच दिया। 

यह किताब 1980-90 के दशक के बाद से आज तक यूपी की सियासत के तीन अहम दौर, कांग्रेस; सपा तथा बसपा; और फिर भाजपा के उभार वाले दौर पर नई रोशनी डालती है, जिससे देश की सियासत को समझने में मदद मिलती है।

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