प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने आपको अति पिछड़ा घोषित करके एक नया राजनीतिक दाँव खेला है। कन्नौज की सभा में उन्होंने कहा कि वह अति पिछड़ा समाज से हैं। तीन दौर के मतदान के बाद मोदी की इस घोषणा को अगले दौर के मतदान से जोड़ कर देखना ज़रूरी है। ख़ास कर उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति से इसका सीधा संबंध है। दोनों ही राज्यों में अति पिछड़ा समुदाय के कई नेता मोदी और बीजेपी के ख़िलाफ़ खड़े हो गये हैं। 2014 के चुनाव में मोदी को जीत दिलाने में इस समुदाय की महत्वपूर्ण भूमिका थी। लेकिन 2019 के चुनावों में अति पिछड़ों के नेताओं की बग़ावत से बीजेपी असहज महसूस कर रही थी।
बिहार में पिछड़ों के एक बड़े नेता उपेंद्र कुशवाहा ने ऐन चुनाव से पहले बीजेपी गठबंधन का साथ छोड़ दिया। कुशवाहा की पार्टी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी को 2014 के चुनावों में 2 सीटें मिली थीं। 2014 में अति पिछड़ों के नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बीजेपी का साथ छोड़ दिया था, तब उपेंद्र कुशवाहा बीजेपी गठबंधन के लिए सहारा बने थे। इस बार नीतीश फिर बीजेपी के साथ हैं। चर्चा है कि नीतीश के विरोध के कारण ही कुशवाहा को किनारे कर दिया गया। उपेंद्र कुशवाहा, कोइरी जाति के हैं। बिहार में कोइरी जाति की आबादी क़रीब साढ़े 6 प्रतिशत है। कुशवाहा अब राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और कांग्रेस के साथ हैं। अति पिछड़ों के एक अन्य नेता मुकेश सहनी और उनकी विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) भी महागठबंधन के साथ हैं। नीतीश कुमार ख़ुद अति पिछड़ा कुर्मी जाति से हैं।
अति पिछड़ा और अति दलित का एक नया समीकरण बना कर नीतीश ने क़रीब 15 साल पहले लालू यादव के मुसलिम-यादव (एमवाई) समीकरण का दबदबा तोड़ा था। इस चुनाव में अति पिछड़ों के कई नेताओं के अलग होने से बीजेपी मोर्चा को नयी चुनौतियाँ मिल रही थीं।
उधर अति दलितों के नेता और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम माँझी भी महागठबंधन के साथ हैं। बिहार में अति दलितों की आबादी क़रीब 10 फ़ीसदी आँकी जाती है।
यूपी में भी बिहार जैसी चुनौती
बीजेपी को उत्तर प्रदेश में भी बिहार जैसी चुनौती मिल रही थी। बीजेपी को सबसे ताज़ा झटका ओम प्रकाश राजभर ने दिया। राजभर ने उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा देकर बीजेपी के ख़िलाफ़ बग़ावत की घोषणा कर दी। उन्होंने क़रीब 35 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर दिये हैं। उनके ज़्यादातर उम्मीदवार जीतने की स्थिति में नहीं हैं, लेकिन उन्हें जो भी वोट मिलेंगे वे बीजेपी को नुक़सान पहुँचा सकते हैं। इसी तरह अपना दल कुर्मी मतदाताओं के बीच गहरी पैठ रखता है। अपना दल अब दो हिस्सों में बँट चुका है। मुख्य धड़ा अब भी केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल के नेतृत्व में बीजेपी के साथ है। लेकिन अनुप्रिया की माँ कृष्णा पटेल के नेतृत्व में दूसरा धड़ा कांग्रेस के साथ जा चुका है। महानता दल के बाबू सिंह कुशवाहा भी अब कांग्रेस के साथ हैं। इनकी पार्टी का मौर्य और कुशवाहा मतदाताओं पर असर है। बुंदेलखंड के अति पिछड़ों के नेता बाल कुमार पटेल भी अब कांग्रेस के खेमे में हैं।
वोटों के समीकरण पर ग़ौर किया जाये तो इन सबके समर्थन के बावजूद कांग्रेस सीधे-सीधे बीजेपी को हराने में सक्षम दिखायी नहीं दे रही है। लेकिन अति पिछड़ों का वोट कटने से बीजेपी को नुक़सान हो सकता है। इसका सीधा फ़ायदा सपा-बसपा गठबंधन को मिल सकता है।
बाबू सिंह कुशवाहा और ओम प्रकाश राजभर जैसे अति पिछड़े नेता किसी समय मायावती के साथ थे। 2007 के विधानसभा चुनावों में मायावती को मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुँचाने में ग़ैर-यादव अति पिछड़े नेताओं की अच्छी ख़ासी भूमिका थी। बाद में वे मायावती से अलग हो गये। 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनावों में ज़्यादातर अति पिछड़ी जातियाँ और उनके नेता बीजेपी के साथ थे। इन दोनों चुनावों में बीजेपी को ऐतिहासिक जीत मिली।
अब एक तरफ़ सपा और बसपा मिल कर चुनाव लड़ रही हैं तो दूसरी तरफ़ अति पिछड़े नेता बीजेपी से बग़ावत पर उतारू हैं। लोध, कुर्मी, मौर्य और निषाद जैसी जातियों के सहयोग ने बीजेपी की राह आसान कर दी थी।
मतदाताओं को रिझाने का प्रयास
मोदी अब इन्हीं मतदाताओं को रिझाने की कोशिश में जुटे हैं। अति पिछड़ों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा बिल्कुल नयी है और वे अपने लिये यादव और जाटव जैसी ज़मीन तलाश रहे हैं। वैसे, मोदी का बयान समय के साथ बदलता भी रहता है। 2014 के चुनावों से पहले उन्होंने ख़ुद को नीची जाति का घोषित कर दिया था। उसका मक़सद भी दलित और अति पिछड़े मतदाताओं को रिझाना था। 2014 में मोदी को इसका फ़ायदा मिला, क्योंकि अति पिछड़ों के नेता भी बीजेपी के साथ थे। नये माहौल में पिछड़ों के नेता तो अपनी महत्वाकांक्षाओं के कारण अलग राह पकड़ चुके हैं। लेकिन बीजेपी अपनी सामाजिक इंजीनियरिंग के ज़रिये अति पिछड़ों में नये नेता भी खड़ा करने की कोशिश में लंबे समय से जुटी है। मोदी के ताज़ा बयान से अति पिछड़े और अति दलितों में एक नयी चर्चा ज़रूर शुरू हो गयी है।
(नवोदय टाइम्स से साभार)