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मोदी की कैबिनेट में दिल्ली की नुमाइंदगी इतनी कम क्यों?

मोदी की कैबिनेट में दिल्ली की नुमाइंदगी इतनी कम क्यों?

डॉ. हर्षवर्धन के केंद्रीय मंत्रिमंडल से रुख्सत होने के बाद अब दिल्ली की केंद्र सरकार में नुमाइंदगी राज्य मंत्री के रूप में नई दिल्ली की सांसद मीनाक्षी लेखी ही रह गई हैं।

डॉ. हर्षवर्धन के केंद्रीय मंत्रिमंडल से रुख्सत होने के बाद अब दिल्ली की केंद्र सरकार में नुमाइंदगी आधे मंत्री की रह गई है। आधे मंत्री यानी राज्य मंत्री के रूप में नई दिल्ली की सांसद मीनाक्षी लेखी अब मोदी सरकार में दिल्ली का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। उन्हें दिल्ली का प्रतिनिधि सिर्फ़ इस लिहाज से कहा जा सकता है कि वह दिल्ली की सांसद हैं वरना उन्हें जो विभाग मिले हैं, उनका दिल्ली से कुछ लेना-देना नहीं है। विदेश मंत्रालय में राज्य मंत्री के रूप में या फिर संस्कृति मंत्री के रूप में वह दिल्ली से कहीं जुड़ाव महसूस नहीं कर सकतीं। फिर भी, दिल्ली से एक राज्य मंत्री है, यही स्वीकार करना होगा।

2014 से केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार के आने के बाद दिल्ली से सिर्फ़ एक कैबिनेट मंत्री के रूप में डॉ. हर्षवर्धन मंत्रिपरिषद में थे। दिल्ली ने 2014 और 2019 के चुनावों में बीजेपी को शत-प्रतिशत सीटें जीतकर दी हैं। उन हालात में जब कोई राज्य शत-प्रतिशत सफलता देता हो तो वहाँ से सिर्फ़ एक मंत्री चुना जाना कई बार अखरता है।

वैसे, देखा जाए तो दिल्ली को हमेशा ही केंद्र सरकार में एक बड़ा हिस्सा मिलता रहा है। खासतौर पर शहरी विकास मंत्री तो दिल्ली से वाबस्ता रहा है। इसकी वजह यह भी है कि ज़मीन दिल्ली सरकार के पास नहीं बल्कि केंद्र सरकार के पास है और इस लिहाज से डीडीए की सारी ज़िम्मेदारी शहरी विकास मंत्रालय के पास आ जाती है। ऐसे में अगर इस विभाग का मंत्री दिल्ली से ही हो तो फिर दिल्ली को ज़्यादा इंसाफ़ मिलने की उम्मीद रहती है। कभी एच.के.एल. भगत इंदिरा गांधी की सरकार में शहरी विकास मंत्री हुआ करते थे। वाजपेयी सरकार में दिल्ली से सांसद चुने जाने के बाद जगमोहन ने भी शहरी विकास मंत्रालय ही संभाला। 

मनमोहन सिंह सरकार में अजय माकन भी शहरी विकास मंत्रालय के मंत्री होने के कारण दिल्ली का कामकाज देखते थे। अजय माकन को गृह मंत्रालय भी मिला जिसके आधीन दिल्ली पुलिस आती है। इस तरह पुलिस या ज़मीन दोनों में से कोई न कोई विभाग वह संभालते रहे और दिल्ली से जुड़े रहे। इस लिहाज़ से देखा जाए तो मीनाक्षी लेखी के लिए दिल्ली दूर है।

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फ़ोटो साभार: ट्विटर/मीनाक्षी लेखी

अब केंद्र सरकार में दिल्ली की आधी मंत्री हैं लेकिन ऐसे भी मौक़े आए हैं जब केंद्रीय मंत्रिमंडल में दिल्ली के तीन मंत्री रहे हों। सात सांसदों में से तीन का मंत्री बन जाना कोई मामूली बात नहीं है।

वाजपेयी सरकार में जगमोहन तो मंत्री थे ही, साहिब सिंह वर्मा और विजय गोयल को भी मंत्री बनाया गया था। राजीव गांधी की सरकार में एच.के.एल. भगत के साथ जगदीश टाइटलर को शामिल किया गया था। यहाँ तक कि 1977 की जनता पार्टी के दिनों में दिल्ली से तीन मंत्री थे। अटल बिहारी वाजपेयी नई दिल्ली से जीते थे और चौ. ब्रह्मप्रकाश के साथ सिकंदर बख्त भी मंत्री बने थे। सिकंदर बख्त को भी शहरी विकास मंत्रालय ही दिया गया था। मनमोहन सिंह सरकार में अजय माकन के साथ कपिल सिब्बल भी केंद्र में मंत्री रहे और दूसरे कार्यकाल में कृष्णा तीरथ तीसरे मंत्री के रूप में विराजमान थीं।

वैसे, यह भी सवाल है कि मीनाक्षी लेखी को ही दिल्ली से मंत्री क्यों बनाया गया। 

चलिए, डॉ. हर्षवर्धन को तो हटाया जाना था लेकिन इन दोनों के अलावा पांच और सांसद भी बीजेपी से ही हैं और मीनाक्षी के साथ किसी को भी मंत्री बनाया जा सकता था लेकिन किसी का भी दावा मज़बूत नहीं माना गया। गौतम गंभीर क्रिकेट का बड़ा नाम रहे हैं तो मनोज तिवारी पूर्वांचल पृष्ठभूमि के साथ-साथ अपनी कला से भी मन मोहते हैं। चलिए हंसराज हंस को राजनीति का नया खिलाड़ी मानकर छोड़ दिया जाए लेकिन प्रवेश वर्मा और रमेश बिधूड़ी तो अब मंझे हुए खिलाड़ी हैं लेकिन किसी को भी इस लायक नहीं समझा गया। 

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हाँ, बहुत-से लोगों को लेखी के नाम पर हैरानी भी हुई थी क्योंकि 2019 के चुनावों से पहले यह मान लिया गया था कि मीनाक्षी लेखी का पत्ता कट गया है। उनकी जगह गौतम गंभीर को नई दिल्ली से चुनाव लड़ाने का फ़ैसला भी कर लिया गया था। मीनाक्षी लेखी के ख़राब प्रदर्शन के आधार पर उनका पत्ता कटना तय माना जा रहा था लेकिन ऐन वक़्त पर उन्होंने राहुल गांधी के ख़िलाफ़ वह मुक़दमा दायर कर दिया जिसमें राहुल द्वारा मोदी जी को ‘चोर’ कहा गया था। यह मामला इतना तूल पकड़ा कि मीनाक्षी लेखी का न सिर्फ़ टिकट पक्का हो गया बल्कि मंत्री बनने की कतार में भी वह सबसे आगे आ गईं। राहुल गांधी को उस मामले में माफ़ी मांगनी पड़ी और यही दाँव मीनाक्षी के काम आ गया।

दिल्ली से जो भी नेता केंद्र में मंत्री बनते रहे हैं, वे बाद में दिल्ली की राजनीति में अपने पांव जमाते रहे हैं। अब दिल्ली का प्रतिनिधित्व ही इतना कम रह गया है कि नेताओं को पांव जमाने के लिए ज़मीन नहीं मिल रही। वैसे भी, केजरीवाल के आने के बाद बीजेपी या कांग्रेस नेताओं के लिए दिल्ली में पांव जमाने के मौक़े ही कहाँ बचे हैं।

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