दुनिया भर के डिजिटल समाचार उद्योग में बड़ी उथल-पुथल मची हुई है। गूगल और फ़ेसबुक जैसी कंपनियों और कई देशों के बीच जारी जंग इस परिवर्तन के केंद्र में है। ऑस्ट्रेलिया में चल रहा विवाद बताता है कि पिछले-चार-पाँच सालों से चल रही यह जंग अब निर्णायक दौर में पहुँच गई है। इस जंग का नतीजा चाहे जो हो, मगर डिजिटल न्यूज़ इंडस्ट्री का चरित्र बदलना तय है। गूगल और फ़ेसबुक जैसी कंपनियों के प्रभुत्व में कमी आ सकती है और न्यूज़ बनाने वाली कंपनियों की आय में इज़ाफ़ा हो सकता है।
वैसे तो इन बड़ी इंफोटेक कंपनियों के ख़िलाफ़ लड़ाई में कई देश मुब्तिला हैं, मगर भूचाल पैदा किया है ऑस्ट्रेलिया ने। ऑस्ट्रेलिया एक क़ानून बना रहा है जिसके तहत गूगल, फ़ेसबुक आदि कंपनियों को उन मीडिया संस्थानों को भुगतान करना पड़ेगा, जिनका कंटेंट वे सर्च इंजन में या बतौर एग्रिगेटर कर रही हैं। ऑस्ट्रेलियाई सरकार से रूपर्ट मर्डोक के न्यूज़ क़ॉर्प जैसे मीडिया संस्थानों ने इस तरह का क़ानून बनाकर उसके व्यापारिक हितों की सुरक्षा करने की माँग की थी।
गूगल और फ़ेसबुक इस प्रस्तावित क़ानून का तभी से विरोध कर रहें हैं जब से इसे बनाने की चर्चा शुरू हुई थी। अब तो इसे निचले सदन ने पास कर दिया है और सीनेट की भी हरी झंडी मिलने जा रही है। इस क़ानून से मीडिया कंपनियों को टेक कंपनियों से सौदेबाज़ी करने में ताक़त मिलेगी। अगर ये टेक कंपनियाँ ग़लती करेंगी तो उन्हें हर ग़लती पर 56 करोड़ रुपए जुर्माना देना पड़ेगा। इसके अलावा स्थानीय टर्न ओवर का दस फ़ीसदी हर्ज़ाने के तौर पर भरना पड़ सकता है।
क़ानून के विरोध में गूगल ने धमकी दे रखी है कि वह अपने सर्च इंजन का इस्तेमाल ऑस्ट्रेलिया में रोक देगा। फ़ेसबुक ने तो ख़बरों की हिस्सेदारी पर रोक लगाकर हड़कम्प ही मचा दिया है। उसने ऑस्ट्रेलियाई यूजरों के लिए न केवल ख़बरें रोक दी हैं, बल्कि नेताओं और सरकार के कई पेजों को भी बंद कर दिया है।
दोनों अमेरिकी कंपनियों का कहना है कि ऑस्ट्रेलिया की सरकार यह समझने की कोशिश नहीं कर रही कि वे किस तरह काम करती हैं। वे उस पर धमकाकर दबाव बनाने की कोशिश कर रही हैं। उन्हें लग रहा है कि ऑस्ट्रेलिया की जनता परेशान होकर सरकार से क़ानून वापस लेने को कहेगी। लेकिन हो उल्टा रहा है। फ़ेसबुक के बहिष्कार का अभियान शुरू कर दिया गया है।
हालाँकि जहाँ एक ओर यह लड़ाई चल रही है वहीं गूगल ने रुपर्ट मर्डोक और एक अन्य ऑस्ट्रेलियाई मीडिया कंपनी सेवेन वेस्ट मीडिया से तीन साल का सौदा भी कर लिया है। गूगल ने इसके लिए एक नया प्रोडक्ट गूगल न्यूज़ शोकेस बनाया है।
जिन भी कंपनियों से वह कंटेंट का सौदा करेगा, उनके न्यूज़ उत्पाद इस पर उपलब्ध करवाए जाएँगे और गूगल इसके लिए उन्हें भुगतान करेगा। यह प्रीमियम कंटेंट होगा।
इस सौदे में तीन और चीज़ें शामिल की गई हैं। पहला तो यह कि एक सदस्यता आधारित प्लेटफ़ॉर्म विकसित किया जाएगा। दूसरा, गूगल एड टेक्नालॉजी की मदद से विज्ञापन का राजस्व साझा किया जाएगा। तीसरा, ऑडियो पत्रकारिता को बढ़ावा देने के साथ-साथ यू ट्यूब वीडियो पत्रकारिता में निवेश भी करेगा।
ज़ाहिर है कि ये सबके लिए खुला नहीं है और इसका फ़ायदा चुनिंदा कंपनियों को मिलेगा। इस तरह का समझौता उसने जर्मनी की दो-तीन कंपनियों के साथ भी किया है। इसके पूरे विवरण नहीं आए हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि यह एक भेदभावपूर्ण व्यवस्था होगी, जिसका फ़ायदा बड़ी मीडिया कंपनियों को ही होगा।
इस सौदे के बावजूद गूगल ने ऑस्ट्रेलियाई यूजरों के लिए सर्च इंजन को बंद करने की धमकी वापस नहीं ली है। उसका कहना है कि अगर वह सरकार की बात मान लेगी तो सर्च इंजन जिस बिज़नेस मॉडल पर काम करता है, वह ध्वस्त हो जाएगा।
यहाँ ये समझ लेना ज़रूरी है कि तमाम सर्च इंजन या फ़ेसबुक जैसे प्लेटफ़ॉर्म ख़ुद समाचारों का उत्पादन नहीं करते, बल्कि वे दुनिया भर के मीडिया संस्थानों के कंटेंट के लिंक या कंटेंट शेयर करते हैं और उसी से भारी कमाई करते हैं। यानी उनके पास केवल तकनीक है, जिसका फ़ायदा वे इस तरह उठाते हैं और मीडिया संस्थानों को कुछ नहीं देते। मीडिया कंपनियों को केवल यूजर का ट्रैफिक मिलता है, जिससे वे विज्ञापनदाताओं को आकर्षित कर सकते हैं या व्यूज़ के एवज़ में प्लेटफ़ॉर्म से मामूली रक़म प्राप्त कर सकते हैं।
गूगल, फ़ेसबुक आदि प्लेटफ़ॉर्म की इस नीति से मीडिया संस्थानों को ख़ासा नुक़सान होता है। क़ायदे से उनके कंटेंट को अगर ये कंपनियाँ अपने प्लेटफ़ॉर्म पर उपलब्ध करवाकर भारी कमाई करती हैं, तो उन्हें इन संस्थानों के साथ उसमें साझेदारी भी करनी चाहिए। इससे मीडिया कंपनियाँ बेहतर कंटेंट बनाने में भी सक्षम हो सकेंगी।
लेकिन ये कंपनियाँ विश्व बाज़ार पर एक तरह से एकाधिकार होने का फ़ायदा उठा रही हैं।
दरअसल, पिछले एक दशक में विज्ञापनदाता तेज़ी से प्रिंट, रेडियो और टीवी जैसे माध्यमों से हटकर डिजिटल मीडिया पर जा रहे हैं। वहाँ भी वे मीडिया कंपनियों को विज्ञापन देने के बजाय गूगल, फ़ेसबुक और यू ट्यूब जैसे प्लेटफ़ॉर्म का रुख़ कर रही हैं।
ज़ाहिर है कि इससे पारंपरिक माध्यमों के सामने आर्थिक संकट बढ़ता जा रहा है।
इसी को ध्यान में रखते हुए अमेरिका और यूरोप के देशों ने ख़ास तौर पर गूगल और फ़ेसबुक पर दबाव बनाना शुरू किया था कि वे सारा मुनाफ़ा अकेले डकारने के बजाय स्थानीय मीडिया संस्थानों को भी कुछ हिस्सा दें। मगर वे ऐसा करने से इंकार कर रही हैं। लेकिन यह भी सच है कि उन पर दबाव बढ़ता जा रहा है और वे बहुत समय तक मनमानी नहीं कर सकेंगे।
यूरोपीय संघ में व्यवस्था
ऑस्ट्रेलिया से पहले यूरोपीय संघ के कॉपीराइट क़ानून में इन कंपनियों को लिंक एवं कंटेंट साझा करने के बदले में भुगतान करने की व्यवस्था की गई है। उसके मुताबिक़ सर्च इंजन और न्यूज़ एग्रिगेटर को भुगतान करना चाहिए। इस क़ानून की वज़ह से वहाँ भी ठनी हुई है। हालाँकि फ्रांस के कुछ प्रकाशकों ने गूगल के साथ एक व्यवस्था बनाई है, मगर ऑस्ट्रेलियाई क़ानून की तरह सख़्त नहीं है।
मज़े की बात यह है कि माइक्रोसॉफ्ट ने ऑस्ट्रेलिया के प्रस्तावित क़ानून का समर्थन किया है। उसका कहना है कि ये ऑस्ट्रेलियाई न्यूज़ कंपनियों और डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म के बीच असंतुलन को दूर करता है। माइक्रोसॉफ्ट का यह रवैया आपसी प्रतिद्वंद्विता का नतीजा भी हो सकता है। यह भी मुमकिन है कि वह उम्मीद लगाए बैठा हो कि गूगल सर्च इंजन बंद करे तो वह उसके बाज़ार पर कब्ज़ा कर ले।
दरअसल, पूरा मामला डिजिटल न्यूज़ बाज़ार पर वर्चस्व का और उससे होने वाले मुनाफ़े का है। गूगल और फ़ेसबुक के चरित्र में एकाधिकारवाद है और अमेरिका तथा यूरोप में उन्हें इसके लिए मुक़दमों का सामना भी करना पड़ रहा है।
अभी भी वे इस कोशिश में हैं कि कुछ बड़े मीडिया संस्थानों से समझौता करके इन क़ानूनों के प्रभाव से बचा जाए।
लेकिन सवाल उठता है कि अगर ऑस्ट्रेलिया की तर्ज़ पर दुनिया के अन्य देशों में भी कानून बनने लगेंगे और बनेंगे ही तब गूगल और फ़ेसबुक कहाँ-कहाँ अपनी दादागीरी चलाएँगे। उनके पास इसके अलावा कोई रास्ता नहीं बचेगा कि वे क़ानूनों का पालन करें।
दरअसल, दुनिया में डिजिटल जगत को चलाने के लिए अब एक नई व्यवस्था आकार ले रही है और इसके बहुत सारे पक्ष हैं। न्यूज़ कंपनियों को भुगतान एक पक्ष है, विभिन्न देशों को कमाई पर टैक्स दूसरा और डिजिटल कंटेंट का पत्रकारिता के लिए तय मानकों के साथ वितरित करना तीसरा। इसे बनने में वक़्त लगेगा, मगर इसकी शुरुआत हो गई है यह तय है।
दुर्भाग्य यह है कि जब दुनिया भर में अपनी मीडिया कंपनियों के हितों की सुरक्षा करने के लिए सरकारें इन बहुराष्ट्रीय टेक कंपनियों के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल रही हैं तो भारत सरकार सोई हुई है। सरकार में इस तरह की कोई हलचल नहीं दिखाई दे रही। उसे अपने राजनीतिक हितों की चिंता है और इसके लिए वह ट्विटर पर पिली हुई है, मगर देश हित किस तरह से प्रभावित हो रहे हैं, उस बारे में कोई क़दम नहीं उठा रही।