+
मायावती के दांव से अखिलेश चित या योगी?

मायावती के दांव से अखिलेश चित या योगी?

मायावती के राजनीतिक विरोधी आरोप लगा रहे हैं कि उनकी राजनीति बेपर्दा हो गई है और वे बीजेपी से मिली हुई हैं। 

'एसपी को हराने के लिए बीएसपी बीजेपी का भी समर्थन करेगी।' बीएसपी सुप्रीमो मायावती का यह बयान क्या आत्मघाती है कुछ लोगों को लग रहा है कि मायावती का यह बयान थके-हारे नेता का बयान है। उन्हें यह बयान मायावती के सत्ता से बाहर रहने की हताशा और हड़बड़ी में दिया गया लग रहा है। 

मायावती के राजनीतिक विरोधी आरोप लगा रहे हैं कि उनकी राजनीति बेपर्दा हो गई है और वे बीजेपी से मिली हुई हैं। उनके समर्थक दलित अब मायावती से दूर होंगे। लेकिन सच कुछ और है। मायावती ने बहुत सोची-समझी रणनीति के तहत यह बयान दिया है। 

वैसे भी आजकल मायावती बहुत कम बोलती हैं। केवल ट्वीट करके अपनी राजनीतिक प्रतिक्रिया देती हैं। लेकिन उन्होंने यह बयान बाकायदा मीडिया के सामने दिया है। इसलिए भी इस बयान को हलके में नहीं लिया जाना चाहिए। इस बयान को बहुत संजीदगी से समझने की ज़रूरत है। इसके कई संदर्भ हैं। उन्होंने विक्टिम कार्ड खेलकर एसपी पर जोरदार हमला बोला है और एक तीर से कई निशाने साधे हैं। 

चंद्रशेखर आजाद का उभार

दरअसल, मायावती की निष्क्रियता से उनका समर्थक कोर वोटर उनके प्रति उदासीन हो चला था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जहां से वे खुद आती हैं, एक नौजवान दलित नेता खड़ा हो गया है। वहां भीम आर्मी चीफ़ चंद्रशेखर आजाद एक नई उम्मीद बनकर उभर रहे हैं। चंद्रशेखर दलितों और खासकर जाटवों के स्वाभिमान की लड़ाई लड़ रहे हैं। 

जाहिर है कि विकल्प होने पर मायावती का कोर वोटर यानी जाटव समाज चंद्रशेखर की तरफ शिफ्ट कर सकता है। लोकसभा चुनाव के बाद इस कोर वोटर को संभाले रखने का उन्हें कोई मौक़ा नहीं मिल रहा था।

आंदोलनों से दूर है बीएसपी

रही बात अपने समर्थकों के बीच जाने और उनके मुद्दे उठाने की, तो हम जानते हैं कि उन्होंने सड़क पर संघर्ष करना कब का छोड़ दिया है। वे अपने समर्थकों और कार्यकर्ताओं को भी आंदोलन और संघर्ष से दूर रहने के लिए ही कहती हैं। वे अपने कार्यकर्ताओं को समाजवादी पार्टी की तरह सत्तातंत्र की पुलिस की लाठियों का शिकार होने नहीं भेजती हैं। 

हाथरस मामले में निष्क्रियता

हाथरस में वाल्मीकि समाज की बेटी के साथ बलात्कार और मौत के बाद हुए आंदोलन और प्रदर्शन में भी बीएसपी के कार्यकर्ता नहीं दिखाई दिए। जबकि एसपी, कांग्रेस, भीम आर्मी से लेकर तमाम जन संगठन और यहां तक कि मीडिया का बड़ा हिस्सा भी इस जघन्य अपराध पर मुखर था। मायावती ने केवल ट्वीट करके प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को हटाने की अपील की। उनका कोई कार्यकर्ता हाथरस में विरोध प्रदर्शन करने भी नहीं पहुंचा। 

मायावती का मानना है कि पुलिस की लाठी खाकर चोटिल होने के बजाय संगठन को मजबूत करना और जनाधार बचाए रखना ज़रूरी है। वे जानती हैं कि उनकी राजनीति को बरकरार और प्रासंगिक बनाए रखने के लिए इतना प्रयास काफी है। इसलिए हाथरस कांड पर भी उनके कार्यकर्ताओं को कोई निर्देश नहीं मिला और ना ही उन्होंने कोई आंदोलन किया। इस कारण मायावती की आलोचना भी हुई लेकिन उनकी समझ संघर्ष के मामले में बहुत पुख्ता हो चुकी है। लगता है कि आंदोलन में अब उनका कोई भरोसा नहीं रहा।

उदासीन और नाराज़ अपने समर्थकों को जोड़ने के लिए मायावती को एक मौक़े की तलाश थी। योगी सरकार को घेरने के बजाय कांग्रेस और चंद्रशेखर आजाद को जब वे निशाना बना रही थीं तो उनके समर्थक दुविधा में थे।

बुद्ध और आंबेडकर के विचारों से लैस और दलित स्वाभिमान से लबरेज उनके समर्थक मायावती के पिछले दरवाजे से हिन्दुत्व की राजनीति करने वाली पार्टी के साथ जुगलबंदी को समझ नहीं पा रहे थे। इससे उनमें निराशा और नाराजगी बढ़ रही थी। 

अखिलेश ने दिया मौक़ा

माना जाता है कि राजनीति में दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों और घटनाओं का ठीकरा दूसरों के सिर फोड़ा जाता है। मायावती को एक ऐसे मौक़े की तलाश थी, जिससे वे अपने बीजेपी से जुड़ाव को न्यायसंगत ठहरा सकें। यह अवसर उन्हें एसपी प्रमुख अखिलेश यादव ने सहज ही उपलब्ध करा दिया।

राज्यसभा चुनाव 

राज्यसभा चुनाव के लिए नामांकन में बीजेपी ने आठ सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे। जबकि नौवीं सीट जीतने के लिए भी उसके पास कुछ और विधायकों की संख्या थी। बीजेपी दूसरे दलों में बड़ी आसानी से सेंधमारी करती है। ऐसे में एक सीट छोड़ना किसी नए समीकरण की ओर इशारा कर रहा था। इसके बाद मायावती ने अपना प्रत्याशी मैदान में उतारा। जबकि उनके पास सीट जीतने के लिए विधायकों की संख्या पर्याप्त नहीं थी। इससे स्पष्ट हो गया कि मायावती और बीजेपी में अंदरखाने कोई बड़ी डील हो चुकी है। 

इसके आगामी परिणामों और समीकरणों को लेकर राजनीतिक गलियारों में चर्चा होने लगी। यह चर्चा सामाजिक हलकों तक भी पहुंची। दलितों पर बढ़ते अत्याचारों और उनके अधिकारों के लगातार हनन के बीच मायावती की बीजेपी से अंदरखाने मिलीभगत को लेकर दलितों में शंका उपजने लगी। 

देखिए, इस विषय पर चर्चा-

मायावती की विश्वसनीयता पर फिर से सवाल उठने शुरू हो गए। इस दरम्यान एसपी ने एक प्रत्याशी उतारकर मायावती की राजनीतिक गणित बिगाड़ने की चाल खेली। अखिलेश यादव ने शह देते हुए बीएसपी के सात विधायक तोड़ लिए। अपना खेल बिगड़ते देख मायावती ने सारा ठीकरा एसपी पर फोड़ दिया।

बहुत मुखर होकर मायावती ने अखिलेश यादव पर विश्वासघात करने और उनके विधायक तोड़ने का आरोप लगाया। उन्होंने बीएसपी और खुद को विक्टिम के रूप में पेश करते हुए एसपी की कार्रवाई को दलित अस्मिता के साथ जोड़ दिया।

एसपी से होगा मुक़ाबला

मायावती ने कहा कि अखिलेश यादव एक दलित को राज्यसभा जाने से रोकने की साजिश कर रहे हैं। इसके बाद बहुत आक्रामक अंदाज में उन्होंने एलान किया कि एसपी को रोकने के लिए अगर उन्हें बीजेपी का समर्थन करना पड़ेगा तो वे ऐसा भी करेंगी। उन्होंने अब सीधे तौर पर एसपी को दुश्मन नंबर एक घोषित कर दिया है। उनका मुकाबला अब बीजेपी से नहीं बल्कि एसपी से है। 

इस एलान के बाद आश्चर्यजनक रूप से मायावती के समर्थक डटकर उनके साथ खड़े हो गए हैं। सोशल मीडिया पर इसका असर देखा जा सकता है। बीएसपी समर्थक मायावती के बयान को न्यायसंगत ठहरा रहे हैं और एसपी के प्रति खुलकर नाराजगी जाहिर कर रहे हैं। 

मास्टर स्ट्रोक

इसलिए मायावती का यह बयान उनके भटकाव या हताशा का नतीजा नहीं है बल्कि एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है। एक तरह से मास्टर स्ट्रोक है। वे जानती हैं कि जब तक दलित और खासकर सबसे बड़ी जाति जाटव उनके साथ है, तब तक वे यूपी की राजनीति में प्रासंगिक हैं। इस वोटबैंक के लिए ही उनके यहां टिकट लेने वालों की होड़ लगी रहती है।

सत्य हिंदी ऐप डाउनलोड करें