समलैंगिक विवाह के मामले में सुनवाई के तीसरे दिन याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट में समलैंगिक विवाह को वैध बनाने की दलीलें रखीं। याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राजू रामचंद्रन ने गुरुवार को तर्क दिया कि यदि अनुच्छेद 21 यानी जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण के तहत पसंद के व्यक्ति से शादी करने का अधिकार दिया गया है तो मेरे मौलिक अधिकार का प्रयोग करने के लिए मुझे नोटिस देने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए। विशेष विवाह अधिनियम 1954 के तहत विवाह के लिए सार्वजनिक आपत्तियों को आमंत्रित करने के लिए अनिवार्य 30 दिन का नोटिस पीरियड होता है।
इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विशेष विवाह अधिनियम 1954 के तहत विवाह के लिए सार्वजनिक आपत्तियों को आमंत्रित करने के लिए अनिवार्य 30-दिवसीय नोटिस 'पितृसत्तात्मक' है। बार एंड बेंच की रिपोर्ट के अनुसार कोर्ट ने यह भी कहा कि इससे समाज द्वारा आक्रमण किया जाना आसान हो जाता है। न्यायमूर्ति भट ने कहा कि नोटिस प्रणाली केवल पितृसत्ता पर आधारित थी और ये कानून तब बनाए गए थे जब महिलाओं के पास कोई एजेंसी नहीं थी। सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा कि इससे आक्रमण की राह आसान हो जाती है।
अधिवक्ता राजू ने यह भी कहा कि विवाह ऐसे जोड़ों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करता है। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के सामने कहा, 'जिस बात पर मैं जोर देना चाहता हूँ वह यह है कि उनके विवाह की मान्यता उनके लिए एक महत्वपूर्ण सुरक्षा कवच है। एक सामाजिक मान्यता जो उन्हें वैसे मामलों में समाज और उनके अपने माता-पिता के परिवारों से बचाती है।' इधर, याचिकाकर्ताओं की ओर से ही पेश वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि देश में पर्सनल लॉ यानी व्यक्तिगत कानून 1954 के विशेष विवाह अधिनियम की तरह 'भेदभाव नहीं करते हैं'।
मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने गुरुवार को पूछा कि क्या दो पति-पत्नी विवाह के लिए ज़रूरी हैं? उन्होंने कहा, 'हम इन समलैंगिक संबंधों को न केवल शारीरिक संबंधों के रूप में देखते हैं, बल्कि एक स्थिर, भावनात्मक संबंध के रूप में भी देखते हैं।
उन्होंने कहा, 'समलैंगिक विवाह को वैध बनाने के लिए हमें विवाह की विकसित धारणा को फिर से परिभाषित करने की आवश्यकता है। क्या विवाह के लिए दो पति-पत्नी का अस्तित्व ज़रूरी है?'
उन्होंने कहा कि 1954 में विशेष विवाह अधिनियम के आने के बाद से पिछले 69 वर्षों में कानून काफ़ी विकसित हुआ है। उन्होंने 2018 के अहम फ़ैसले का हवाला देते हुए कहा, 'समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करके, हमने न केवल सहमति देने वाले समलैंगिक वयस्कों के बीच संबंधों को मान्यता दी है, बल्कि हमने यह भी माना है कि जो लोग समलैंगिक हैं, वे भी स्थिर संबंधों में होंगे।'
बता दें कि 6 सितम्बर, 2018 को समलैंगिक संबंध बनाना अपराध नहीं रहा था। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट की पाँच जजों की एक संविधान पीठ ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटा दिया था। इस फ़ैसले से पहले समलैंगिक यौन संबंध आईपीसी की धारा 377 के तहत एक आपराधिक जुर्म था।
बहरहाल, याचिकाकर्ताओं की ओर से सिंघवी ने ऑस्कर वाइल्ड का ज़िक्र किया और अमेरिका में समलैंगिक विवाह को वैध बनाने वाले देश के फैसले को उद्धृत किया। उन्होंने फैसले को उद्धृत किया, 'इन पुरुषों और महिलाओं को यह कहना गलत होगा कि वे शादी के विचार का अनादर करते हैं। उनकी दलील यह है कि वे इसका सम्मान करते हैं, इतनी गहराई से इसका सम्मान करते हैं कि वे अपने लिए इसकी तलाश करते हैं। सभ्यता की सबसे पुरानी संस्थाओं में से एक से बाहर, अकेलेपन में रहने पर उनकी उम्मीदों की निंदा नहीं की जानी चाहिए। वे कानून की नजर में समान सम्मान की मांग करते हैं। संविधान उन्हें वह अधिकार देता है।'
सुप्रीम कोर्ट ने एक दिन पहले सुनवाई के दौरान सरकार के उस तर्क पर बड़ा सवाल खड़ा किया था जिसमें उसने दावा किया था कि समलैंगिक शादी 'शहरी संभ्रांतवादी' विचारों को प्रतिबिंबित करती हैं। सीजेआई चंद्रचूड़ ने बुधवार को कहा था कि सरकार का कोई ऐसा आँकड़ा नहीं कि समलैंगिक विवाह शहरी या ऐसा ही कुछ और है। केंद्र ने पहले कहा था कि यह 'मात्र शहरी संभ्रांतवादी दृष्टिकोण' है।
रोहतगी ने कहा था कि अगर समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता मिल जाती है तो स्पेशल मैरिज एक्ट के कुछ प्रावधानों को बदलना होगा। रोहतगी ने कहा, 'यदि न्यायालय समलैंगिक विवाह को मान्यता देता है, तो समाज अंततः इसे स्वीकार कर लेगा।' रोहतगी का तर्क है कि समलैंगिक विवाह को मान्यता देने वाला न्यायालय का घोषणापत्र समाज को इसे स्वीकार करने के लिए प्रेरित करेगा।