मणिपुर में राष्ट्रपति शासन क्यों नहीं
मणिपुर में हिंसा का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है ।राज्य में अभी भी मैतेई और कुकी जनजाति के बीच जातीय हिंसा जारी है ।अब तक 100 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं, लेकिन राज्य की डबल इंजन सरकार हिंसा रोकने में पूरी तरह नाकाम हुई है। ऐसे में क्या जरूरी नहीं है कि मणिपुर में तत्काल प्रभाव से राष्ट्रपति शासन लागू किया जाए ?
मणिपुर में हिंसा को भड़के डेढ़ माह से ज्यादा का समय हो चुका है । देश के गृह मंत्री अमितशाह से लेकर राज्य सरकार के साथ पूरी केंद्र सरकार हिंसा को रोकने में लगी है लेकिन कामयाबी नहीं मिली है। लेकिन ये पहली बार हो रहा है की नाकाम साबित हो चुकी राज्य सरकार को हटाने में केंद्र सरकार संकोच कर रही है ,क्योंकि मणिपुर की सत्ता में वो खुद भागीदार है।
केंद्र और राज्य संबंधों की धज्जियां उड़ाने के लिए बीते 9 साल में एक से बढ़कर एक दुस्साहसिक कदम उठाने वाली केंद्र सरकार को मणिपुर में प्रभावी कार्रवाई करने के लिए वहां राष्ट्रपति शासन लागू करने में आखिर हिचक क्यों है । ? राज्य की हिंसा पर हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी न तो अब तक एक शब्द बोले हैं और न ही उन्होंने राज्य का दौरा करने की जहमत उठाई है । और तो और वे जलते,धधकते मणिपुर को छोड़ चार दिन बाद स्टेट डिनर लेने अमेरिका रवाना होने वाले हैं।
आपको याद होगा कि जम्मू-कश्मीर से राज्य का दर्जा छीनने ,उसके तीन टुकड़े करने ,बंगाल और दिल्ली में राज्य सरकारों को कामकाज करने से रोकने के लिए राज्यपाल का दुरूपयोग करने वाली केंद्र की सरकार मणिपुर को लेकर ऐसे दिखाई दे रही है जैसे उसे सांप सूंघ गया हो। हिंसा सांप जैसी ही है । आज मणिपुर में फ़ैल रही हिंसा को यदि न रोका गया तो कल दूसरे सीमावर्ती राज्यों में फ़ैल सकती है ,क्योंकि असनतोष तो पूरे सीमावर्ती राज्यों में है ।
मणिपुर की हिंसा को लेकर सत्तारूढ़ दल तो अलग विपक्ष ने भी अब तक सरकार पर कोई दबाब नहीं बनाया है । न राज्य की स्थिति का अध्ययन करने के लिए कोई संसदीय दल बनाया गया है और न किसी ने इसकी मांग की है । समूचा विपक्ष भाजपा के खिलाफ चुनावी गठबंधन करने में लगा है । मणिपुर की फ़िक्र विपक्ष को भी नहीं है । यदि होती तो विपक्ष तमाम मुद्दों को भूलकर मणिपुर की हिंसा पर बात न करता ? क्या मणिपुर भारत का हिस्सा नहीं है ? क्या मणिपुर के मुद्दे से जिस तरह से निबटा जा रहा है वो पर्याप्त है ? क्या केंद्र सरकार को इस मुद्दे पर सर्वदलीय बैठक बुलाकर चर्चा नहीं करना चाहिए ?
मणिपुर की हिंसा लगातार भड़क रही है। थोंगजू में उपद्रवियों ने बीजेपी दफ्तर पर हमला कर दिया. इतना ही नहीं ऑफिस पर जमकर पथराव और तोड़फोड़ की गई है, जिसके बाद पंखे तक टूट गए हैं. यहां तक की उपद्रवियों ने बीजेपी के झंडे भी उखाड़कर फेंक दिए। इससे पहले 15 जून को इंफाल में केंद्रीय विदेश राज्य मंत्री आर के रंजन सिंह के आवास पर भीड़ ने तोड़फोड़ की. उपद्रवियों ने इसी रात न्यू चेकऑन में भी दो घर फूंक दिए। जिसके बाद सुरक्षाबलों को आंसू गैस के गोले छोड़ने पड़े। इसके साथ ही भीड़ ने 14 जून को इंफाल के लाम्फेल इलाके में महिला मंत्री नेमचा किपजेन के आधिकारिक आवास पर भी आग लगा दी थी.
राज्य में हालात तनावपूर्ण होने के चलते पूर्व आर्मी चीफ वेद प्रकाश मलिक ने प्रधानमंत्री मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह से तत्काल ध्यान देने का आह्वान किया है । पूर्व आर्मी चीफ मणिपुर के सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल के ट्वीट को रिट्वीट करते हुए कहा कि मणिपुर में कानून और व्यवस्था की स्थिति पर उच्चतम स्तर पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। लेकिन मलिक की कौन सुनता है ? मलिक आखिर हैं क्या ?
मणिपुर में 3 मई को कुकी जनजातीय समुदाय की रैली के बाद राज्य में हिंसा भड़क उठी थी । ये रैली राज्य के बहुसंख्यक मैतेई समुदाय को जनजातीय दर्जा देने के विरोध में बुलाई गई थी। राज्य में हिंसा के चलते अब तक 100 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं, जबकि 300 से ज्यादा लोग घायल हुए है। शान्ति भाली की तमाम कोशिशें नाकाम होने के बाद अब सरकार के पास शेष बचा क्या है ? क्यों नहीं इस मसले पर केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक बुलाकर प्रधानमंत्री जी मणिपुर में राष्ट्रपति शासन लागू करने का निर्णय लेते ?
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बेहतर हो की प्रधानमंत्री जी मणिपुर को जलता छोड़ अमेरिका जाएँ ही न। अमेरिका में स्टेट डिनर तो फिर भी मिल सकता है किन्तु यदि मणिपुर जलकर पूरी तरह राख हो गया तो उसे वापस मणिपुर बनाना आसान नहीं है ।
पता नहीं क्यों केंद्र इस हकीकत को नहीं समझ रहा की राज्य की जनता राज्य की सरकार के साथ ही भाजपा से घृणा कर रही है । इस घृणा को प्रेम में बदलने के लिए कुछ तो करना होगा ।मणिपुर का मामला बेहद संवेदनशील है,इसे हठधर्मिता से नहीं बल्कि हिकमत अमली से सुलझाया जा सकता है।
मणिपुर की हिंसा इस बात का प्रमाण भी है की केंद्र सरकार राज्यों कि साथ सौहार्द स्थापित करने में पूरी तरह नाकाम हुई है । भाजपा जिन-जिन राज्यों में विधानसभा कि चुनाव हारी है उन तमाम राज्यों कि साथ केंद्र सौतेला व्यवहार करने में लगा है। हाल ही में कर्नाटक को भारतीय खाद्य निगम से चावल देने से इंकार करना इस बात का ताजा प्रमाण है। राजनीतिक अदावतें होती हैं,कांग्रेस कि जमाने में भी यही सब होता था किन्तु संवेदनशील मामलों में संवाद की खिड़की हमेशा खुली रखी जाती थी। अब ये खिड़की वर्षों से बंद है। किसी भी राष्ट्रीय मसले पर सबसे बात करना जैसे सरकार भूल ही चुकी है।
(राम अचल की फेसबुक वॉल से)