उत्तर-पूर्व के राज्यों में पत्रकारों को जान जोखिम में डालकर काम करना पड़ता है। खास तौर पर उग्रवादी संगठनों के हिंसक रवैये को लेकर कई बार अखबार का प्रकाशन स्थगित करने की भी नौबत आ जाती है। एक तरफ उग्रवादी हमले की आशंका रहती है तो दूसरी तरफ सरकारी दमन का खतरा मंडराता रहता है।
मणिपुर में मीडिया बिरादरी के सदस्यों ने बुधवार को एक उग्रवादी संगठन के दबाव और "धमकी" के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन किया।
इम्फाल में ऑल मणिपुर वर्किंग जर्नलिस्ट्स यूनियन और एडिटर्स गिल्ड मणिपुर द्वारा विरोध प्रदर्शन आयोजित किया गया। पत्रकारों के संगठनों ने पहले अनिश्चितकाल के लिए समाचार पत्रों के प्रकाशन को रोकने का फैसला किया था लेकिन फिर वे इसे गुरुवार से जारी रखने के लिए सहमत हुए।
पत्रकारों और संपादकों ने विरोध प्रदर्शन से पहले एक आपात बैठक की, जिसमें उन्होंने इस उग्रवादी संगठन के बारे में समाचार प्रकाशित नहीं करने का फैसला किया। हालांकि, संगठन की पहचान स्पष्ट नहीं की गई है।
ऑल मणिपुर वर्किंग जर्नलिस्ट्स यूनियन के एक पदाधिकारी ने बताया कि मीडिया हाउस समाचार के प्रकाशन के संबंध में एक उग्रवादी समूह के दबाव में आ गए थे। उन्होंने कहा कि संगठन के भीतर ही संकट पैदा हो गया और हम त्रिशंकु की तरह फंस गए हैं।
घटनाक्रम की जानकारी रखने वाले एक अन्य पदाधिकारी ने मीडिया को बताया कि यह पहली बार नहीं है जब राज्य में पत्रकार दबाव का सामना कर रहे हैं। उन्होंने कहा, "कुछ समाचारों को छापने या न छापने के लिए दबाव का सिलसिला चलता रहा है।"
वर्ष 2000 में ऐसे ही हालात बने थे जब विरोध जताने के लिए पत्रकारों ने मणिपुर में 10 दिनों तक अखबारों का प्रकाशन स्थगित रखा था।
दबाव में हैं पत्रकार
मणिपुर लंबे समय से संघर्ष का क्षेत्र रहा है। इस राज्य में पत्रकारों को सरकार और उग्रवादी संगठनों के दबाव का सामना करना पड़ता रहा है। हालांकि पत्रकारों का समुदाय जिम्मेदारी से अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रहा है और देश के कानून और आम लोगों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के साथ प्रेस की स्वतंत्रता की भावना को जोखिम उठाकर भी संतुलित करता रहा है।
छोटे उग्रवादी संगठन मीडिया के माध्यम से वैधता हासिल करने के लिए दबाव की रणनीति अपनाते हैं। वे अखबारों का इस्तेमाल नोटिस बोर्ड के रूप में करना चाहते हैं। वे अपनी धमकी को प्रचारित करने के लिए मीडिया का सहारा लेना चाहते हैं।
लंबे समय से चले आ रहे संघर्ष और सरकार की दमनकारी नीतियों ने कई छिटपुट संगठनों के लिए सिर उठाने की जमीन तैयार की है। जबरन वसूली, फिरौती के लिए अपहरण, कंगारू अदालत, बम विस्फोट और आतंकी रणनीति के सहारे ये संगठन काम करते रहे हैं।
उग्रवादी गुटों के बीच फंसता मीडिया
इसी तरह के हालात में अक्टूबर 2010 में अखबारों ने तीन दिनों के लिए प्रकाशन बंद कर दिया था। जब कोई उग्रवादी गुट किसी संगठन से अलग होता है तो समाचार पत्रों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से एक समूह के रूप में वैधता हासिल करना चाहता है, जबकि मूल गुट नए समूह के प्रकाशन को रोकना चाहता है, जिसके परिणामस्वरूप दोनों समूहों और मीडिया के बीच सीधा टकराव होता है।
जून, 2008 में मणिपुर के मुख्य सचिव ने पुलिस प्रमुख के साथ प्रतिबंधित संगठनों के हैंडआउट के प्रकाशन को सेंसर करने की बात कही और ऐसा नहीं करने पर अखबारों के पंजीकरण को रद्द करने के लिए भारत के समाचार पत्रों के रजिस्ट्रार से संपर्क करने की चेतावनी दी थी।
सरकार ने यह कदम तब उठाया था जब प्रेस समुदाय प्रतिबंधित कंगालीपाक कम्युनिस्ट पार्टी के एक समूह के खतरे से जूझ रहा था, क्योंकि उसने उसके एक प्रेस नोट को प्रकाशित करने से इनकार कर दिया था। 2007 में जब प्रेस ने खुद को इसी तरह के संकट में पाया था, तब सरकार ने भूमिगत संगठनों के प्रेस-नोटों के 'उदार' प्रकाशन को प्रतिबंधित करने वाले एक ज्ञापन का प्रस्ताव किया, जिसमें तर्क दिया गया कि भूमिगत संगठनों के दबाव को कम करने में मदद मिल सकती है। ऑल मणिपुर वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन ने तब ऐसा करने से मना कर दिया था।
जून, 2008 में ऑल मणिपुर वर्किंग जर्नलिस्ट्स यूनियन के प्रतिनिधिमंडल ने सरकार के इस आरोप को बेबुनियाद बताते हुए चुनौती दी कि स्थानीय प्रशासन प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के दिशा-निर्देशों का पालन नहीं कर रहा है। तब सरकार ने धमकी दी थी कि समाचार पत्रों पर कड़ी निगरानी रखी जाएगी।