केंद्र की अक्षमता ने ‘मणिपुर संकट’ को बढ़ा दिया है?

11:29 am Sep 15, 2024 | वंदिता मिश्रा

भारत ने पिछले लगातार दो दिनों में ओडिशा के चांदीपुर स्थित एकीकृत परीक्षण रेंज (ITR) से दो सरफेस टू एयर मिसाइल का सफलतापूर्वक परीक्षण किया। यह विज्ञान और राष्ट्रीय सुरक्षा दोनों ही नज़रिए से हर भारतीय के लिए गर्व का विषय है। लेकिन जब आप ओडिशा से पश्चिम बंगाल और असम होते हुए मणिपुर पहुँचेंगे तो भारतीय होने का यह गर्व काफ़ूर हो जाएगा। 3 मई 2023 से मणिपुर में मेतेई और कुकी-ज़ो समुदाय के बीच निरंतर हिंसक संघर्ष जारी है। मार्च 2023 में हाईकोर्ट के आदेश में मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने को कहा गया था। इस आदेश की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप 3 मई को कुकी-जो छात्रों द्वारा कैंडल मार्च निकाला गया जिसने भीषण हिंसा का स्वरूप धारण कर लिया। इसके बाद अगले 3 दिनों में ही कम से कम 52 लोगों की मौत हो चुकी थी। आने वाले दिनों में दो समुदायों के बीच यह हिंसा बढ़ती रही। आज स्थिति यह पहुँच गई है कि इस संघर्ष में 226 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है, 1500 से अधिक लोग घायल हैं, 32 से अधिक लापता हैं, सुरक्षा बलों के 16 जवानों की मौत हो चुकी है, 14 हज़ार से अधिक घर गिराए जा चुके हैं और 60 हज़ार से अधिक लोगों को विस्थापित होना पड़ा है।

मणिपुर में हुई यौन हिंसा ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था, यौन यातनाओं का क्रम अभी भी जारी है। सुरक्षा बलों के हज़ारों की संख्या में हथियार लूटे जा चुके हैं, अमानवीयता अपने चरम पर है और पिछले 17 महीनों से भारत के प्रधानमंत्री इस संबंध में कायरतापूर्ण चुप्पी धारण किए हैं, मानो उनकी यह चुप्पी कोई आभूषण हो। जब अपने ही देश का एक हिस्सा महीनों से जल रहा हो, शांति और सुरक्षा विलुप्त हो चुकी हो, क़ानून और प्रशासन शब्दों का नाम भी कोई लेने वाला ना हो तब भारत के प्रधानमंत्री का चुप रहना प्रश्न खड़े करता है। सवाल यह है कि अपने तीसरे कार्यकाल के लिए प्रधानमंत्री की गद्दी पर बैठे नरेंद्र मोदी के पास क्या ऐसा समस्याओं का हाल निकालने का कौशल नहीं है? क्या वो हाल निकालने में ख़ुद को अक्षम महसूस कर रहे हैं? या फिर मणिपुर को शांत करने की उनकी नीयत ही नहीं है? एक नागरिक के तौर पर मणिपुर की दुर्दशा देखकर मैं अपने अंदर कैसे गर्व महसूस करूँ?     

मणिपुर से कांग्रेस सांसद बिमोल अकोईजाम, जोकि JNU में प्रोफ़ेसर भी हैं, का कहना है कि मणिपुर की समस्या के पीछे भले ही सीएम बीरेन सिंह की कुछ कमज़ोरियाँ रही हों, लेकिन इस समस्या के असली खिलाड़ी नरेंद्र मोदी और अमित शाह हैं। यदि कुछ तथ्यों पर गौर करें तो शायद सांसद महोदय के दावे का सच सामने आने लगे। 3 मई को हुई भीषण हिंसा के अगले ही दिन 4 मई को कुलदीप सिंह को मणिपुर सरकार का सुरक्षा सलाहकार बना दिया गया। 31 मई आते-आते राज्य की एकीकृत कमान कुलदीप सिंह को दे दी गई। एकीकृत कमान देने का यह आदेश भी मुख्यमंत्री बीरेन सिंह से लिखवाया गया। अगले ही दिन 1 जून को केंद्र द्वारा राज्य का DGP और मुख्य सचिव बदल दिया गया। 3 जून को गुवाहाटी उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश अजय लांबा की अध्यक्षता में जाँच आयोग का गठन किया गया। इसे मणिपुर में विभिन्न समुदायों के सदस्यों को निशाना बनाकर की गई हिंसा और दंगों के कारणों और प्रसार के संबंध में जांच करने का काम सौंपा गया।  

अब सबकुछ केंद्र के नज़रिए से हो रहा था। लेकिन यह बड़ी अजीब घटना थी जहां बिना किसी राष्ट्रपति शासन के राज्य के मुख्यमंत्री से एकीकृत कमान ले ली जाए। साथ ही एक साल से ऊपर हो चुका है और यह कमीशन अब तक अपनी रिपोर्ट नहीं दे सका है। हाल ही में इस कमीशन को रिपोर्ट सौंपने के लिए दिये गये समय को नवम्बर, 2024 के लिए बढ़ा दिया गया है। एक तरफ़ मणिपुर जल रहा है, प्रधानमंत्री चुपचाप हैं, एक बार भी मणिपुर नहीं गये, सुप्रीम कोर्ट एक यौन उत्पीड़न के मामले में मात्र कुछ दिनों के लिए तथाकथित ‘एक्शन मोड’ में आया था तो दूसरी तरफ़ जिस समिति को जल्द से जल्द जाँच सौंपनी चाहिए थी वो वक़्त बढ़ाती जा रही है। क्या यह सब जानबूझकर किया जा रहा है? क्या इसके पीछे बीजेपी/आरएसएस की कोई भूमिका है? इन सभी सवालों के जवाब खोजे जाने चाहिए।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बातों पर भरोसा भी नहीं किया जा सकता, यह बात ख़ुद उनके ही तथ्य बता रहे हैं। जब मोदी तीसरी बार सत्ता में आये तो उन्होंने अपनी सरकार के पहले 100 दिनों का कार्यक्रम बनाया। इस कार्यक्रम में मणिपुर हिंसा भी शामिल की गई, कहा गया कि इसे 100 दिनों के अंदर सुलझा लिया जाएगा लेकिन तथ्य यह है कि 100 दिन की यह मियाद 16 सितंबर को समाप्त होने वाली है। ऐसे में पीएम और उनकी बातों पर कितना भरोसा किया जाना चाहिए? इस सरकार की नीयत समझने के लिए केन्द्रीय मंत्रियों के रवैये को ध्यान से देखना चाहिए। हाल में जब केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण से मणिपुर पर सवाल पूछा गया तो बजाय इसका जवाब देने के, बजाय कोई ठोस नीति और राहत की बात बताने के उन्होंने कॉंग्रेस के कार्यकाल में हुए दंगों की बात करना शुरू कर दी। उनकी बातों से स्पष्ट था कि सरकार मणिपुर के मुद्दे को मीडिया से दूर रखना चाहती है (और मीडिया सरकार की इस चाहत को बखूबी निभा भी रहा है) और अगर बात सामने आ भी जाये तो बजाय मणिपुर के लोगों की तकलीफ़ों पर बात करने, उसका समाधान खोजने के उसे राजनैतिक स्वरूप प्रदान कर दिया जाता है ताकि मणिपुर की समस्या को डाइल्यूट किया जा सके। 

मणिपुर की सिविल सोसाइटी और विपक्ष लगातार यह बात कह रहा है कि राज्य में वास्तविक सत्ता केंद्र सरकार के पास है। यह बात तब और भी पुष्ट हो जाती है जब ऐसी ख़बरें सामने आती हैं कि सीएम बीरेन सिंह राज्यपाल से मिलकर यह कह रहे हैं कि एकीकृत कमान उन्हें वापस सौंपी जाए।

यह सही है कि सीएम बीरेन सिंह मणिपुर के मौजूदा संकट में उनकी जिम्मेदारी से भाग नहीं सकते। वास्तव में मणिपुर में यह हिंसा तब से अंदर ही अंदर उबल रही थी जब बीरेन सिंह ने NRC को लेकर कहा था कि इसे 1961 से लागू किया जाना चाहिए। यह अलग बात है कि उत्तर-पूर्व के लिए बीरेन सिंह का यह बयान आरएसएस और बीजेपी के नक़्शेक़दम पर ही दिया गया था। लेकिन आज जब मुख्यमंत्री, राज्यपाल को ज्ञापन देकर एकीकृत कमान माँग रहे हैं तो इसका अर्थ है कि उनके हाथ में वास्तव में कुछ नहीं है। यह बात लुकी-छिपी नहीं है कि चाहे असम रायफ़ल्स हो या सीआरपीएफ़ सीएम की बात नहीं मानते साथ ही यह भी कि मुख्यमंत्री से ज़्यादा विरोध राज्य में सुरक्षा सलाहकार का हो रहा है, संघर्ष शुरू होते ही कमान सौंप दी गई थी। यह बात सोचने वाली है कि ऐसा क्यों हो रहा है। शायद जनता जान गई है कि एक दंतविहीन मुख्यमंत्री मणिपुर आपदा का कारण नहीं हो सकता। 

3 मई 2023 के बाद से मणिपुर की स्थिति में रत्ती भर सुधार नहीं हुआ है। स्थितियाँ लगातार गंभीर होती जा रही हैं। पत्रकारों के ऊपर उनके घरों पर सौ-सौ राउंड फायरिंग की जाती है। सेना के मैकेनाइज्ड इन्फैंट्री के सेवानिवृत्त हवलदार और एक महिला को पीट-पीट कर मार दिया जाता है। सोते हुए लोगों को गोली से मार दिया जा रहा है, इंटरनेट बंद कर दिया गया है, कर्फ्यू से शहर साँस नहीं ले पा रहे हैं, बच्चों और महिलाओं की दुर्दशा के बारे में शब्दों से बयान करना मुश्किल है। 

इसके अलावा अब ख़बर यह भी है कि मणिपुर में ड्रोन से बम गिराये जा रहे हैं और उपद्रवी रॉकेट बनाकर लोगों को निशाना बना रहे हैं। मोईराँग टाउन और उसके आसपास के क्षेत्र में अगस्त के बाद से तमाम रॉकेट दागे गये हैं। इस इलाक़े में ही एक शरणार्थी कैम्प भी है जिसकी सुरक्षा को लेकर ख़तरा उत्पन्न हो गया है। 6 सितंबर को दागे गये एक रॉकेट ने मोईराँग में मणिपुर के पूर्व और सबसे पहले मुख्यमंत्री कोइरांग सिंह के घर को ध्वस्त कर दिया, इस हमले में मुख्यमंत्री आवास में रहने वाले एक 70 वर्षीय वृद्ध की मौत हो गई और पूर्व सीएम की 13 वर्षीय पर-पोती घायल हो गई। आपसी हिंसा, सेना के हथियारों की लूटपाट और ड्रोन बमों से होते हुए मणिपुर के हिंसक संघर्ष में अब रॉकेट भी छोड़े जा रहे हैं। यद्यपि सुरक्षा बल इन रॉकेट्स को मिलिट्री ग्रेड नहीं मान रहा लेकिन लगभग 10 फीट लंबा रॉकेट जो घरों को ध्वस्त कर सकता हो, जिसकी रेंज लगभग 6 किमी हो, निश्चित रूप से ख़तरे की घंटी है। उपद्रवी इन्हें आगे उन्नत भी कर सकते हैं इसलिए मणिपुर में तत्काल समाधान की ओर कदम उठाने चाहिए। लेकिन पीएम की चुप्पी और मीडिया की निर्लज्जता ने भारत में अस्थिरता का एक ऐसा पॉकेट बना दिया है जहाँ संविधान और क़ानून जैसी चीजों का कोई नामलेवा नहीं है। 

भारत का वर्तमान यथार्थ यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में कुशासन का जो मॉडल सामने आया है वह अप्रत्याशित है। चाहे बिना-सोचे समझे CAA-NRC लागू कर अस्थिरता के माहौल का पोषण करना हो, किसान आंदोलनकारियों को ख़ालिस्तानी साबित करने की कोशिश या फिर मणिपुर को महीनों तक सुलगते रहने देना हो, पीएम हर जगह नाकाम और अक्षम साबित हुए हैं। 2019 में जम्मू एवं कश्मीर से धारा-370 हटा दी गई, अनुच्छेद-35ए ख़त्म कर दिया गया, राज्य की विधान सभा भंग कर दी गई, राज्य का दर्जा ख़त्म कर दिया गया, राज्य को विभाजित कर दिया गया, यह दावा किया कि इससे आतंकवाद ख़त्म हो जाएगा। लेकिन तथ्य कुछ और कह रहे हैं। मणिपुर की तरह जम्मू-कश्मीर तबाही की राह पर है। नागरिक स्वतंत्रता रसातल में पहुँचा दी गई है,  इंटरनेट शटडाउन के मामले में कश्मीर दुनिया में नंबर एक रहा, और अब ख़बर यह भी है कि पिछले 5 सालों में यानी जब से धारा-370 हटायी गई है, तबसे नशीले पदार्थों (ड्रग्स) की ख़पत 30% बढ़ चुकी है। जब सारा प्रशासन और तंत्र केंद्र सरकार के पास है तो ज़िम्मेदारी भी केंद्र को लेनी होगी। दस सालों से सत्ता से बाहर कश्मीर के लोकल नेतृत्व को इसका ज़िम्मेदार नहीं बनाया जा सकता। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार को आत्म मंथन करना चाहिए कि वो कैसे देशभर में व्याप्त अपने कुशासन के मॉडल को बदलकर सुशासन, संविधान और क़ानून सम्मत बना सकती है, क्योंकि अभी जहां तक नज़र जाती है अक्षमता, लापरवाही और सत्ता लोलुपता ही नज़र आती हैं। यह भारत के लिए ठीक नहीं है।