बंगाल चुनाव: ये ममता बनर्जी पर सियासी सितम है!
मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा ने अपने सेवाकाल के अंतिम दिन ऐसा फैसला सुनाया जिसकी गूंज लंबे समय तक लोकतंत्र की दुनिया में सुनाई देती रहेगी। संभव है कि सुनील अरोड़ा जैसे व्यक्ति अपने फैसले की शान बनाए रखें और वैसे किसी सियासी इनाम से खुद को दूर रखें जो पश्चिम बंगाल चुनाव खत्म होने के चंद घंटों के भीतर नयी जिम्मेदारी के तौर पर उन्हें मिल सकता हो।
मगर, यह वक्त तय करेगा कि यह फैसला लोकतंत्र की ज़रूरत को देखते हुए हुआ या फिर सियासत का साया इस फैसले पर रहा।
एक सूबे की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के खिलाफ मिली शिकायत सही हो सकती है, कार्रवाई को भी बाकी लोगों के लिए सबक के तौर पर बताया जा सकता है लेकिन उसी सूबे में देश के प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और उन दोनों के सियासी कुनबे से जुड़े नेताओं पर इसी किस्म के एक्शन का जज्बा नहीं दिखाया गया। चुनाव आयोग के इस एक्शन के साथ कई नॉन-एक्शन की गूंज भी जरूर फिजां में रहेगी।
तब क्यों चुप रहा आयोग?
क्या प्रधानमंत्री ने कूच बिहार में यह कहकर धर्म के आधार पर वोट नहीं मांगे- “हमने ये कहा होता कि सारे हिंदू एकजुट हो जाओ, बीजेपी को वोट दो, तो हमें चुनाव आयोग के 8-10 नोटिस मिल गए होते।” क्या प्रधानमंत्री के ओहदे का दुरुपयोग नहीं हुआ जब चुनाव की रैली में नरेंद्र मोदी ने पश्चिम बंगाल के अधिकारियों को शपथ ग्रहण के लिए तैयार रहने (निर्देश दिया) को कहा?
एससी के नाम पर वोट नहीं मांगे?
क्या पीएम ने बांग्लादेश जाकर पहले चरण के मतदाताओं को प्रभावित करने का कार्यक्रम इस तरह नहीं रखा जिसे देशभर की मीडिया के जरिए दिखाकर वोटरों को प्रभावित किया जाए?
क्या चुनाव आयोग ने कभी कोविड नियमों का पालन करने के लिए प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को कहा जो देशव्यापी कोविड नियमों के नीति-निर्धारक हैं और खुद ही उसके उल्लंघनकर्ता भी?
क्या चुनाव आयोग ने दूसरे नेताओं को भी इसलिए छूट दी ताकि मोदी-शाह से सवाल-जवाब नहीं किए जा सकें?
उकसाने वालों पर होगी कार्रवाई?
चुनाव आयोग ने ममता बनर्जी से उनके उन बयानों के लिए भी सवाल-जवाब किया है जिसमें आयोग ने पाया है कि केंद्रीय बलों के खिलाफ वह लोगों को उकसा रही हैं। मगर, कूच बिहार की घटना के बाद जो बयान बीजेपी नेताओं के आ रहे हैं उससे तो ऐसा लगता है जैसे केंद्रीय अर्धसैनिक बल चुनाव आयोग ने नहीं बीजेपी ने तैनात किए हों।
गौर कीजिए शीतलकुची में बीजेपी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष राहुल सिन्हा के घोर आपत्तिजनक बयान पर- “8 लोगों को मारा जाना चाहिए था। उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी होना चाहिए कि क्यों उन्होंने चार लोगों की ही जान ली।”
शीतलकुची में फ़ायरिंग पर बयान
बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष को दक्षिण 24 परगना में यह बयान देने का अधिकार किसने दिया? –“शीतलकुची में शरारती लड़कों को गोलियां लगी हैं। अगर कोई भी कानून अपने हाथों में लेने की कोशिश करेगा तो यही अंजाम होगा।
शीतलकुची की घटना से जुड़े बीजेपी नेताओं के बयानों को संदर्भ से जोड़कर देखने की भी जरूरत है। उनके बयान सिर्फ सियासी न होकर मजहबी नफरत पैदा करने वाले भी हैं। याद दिलाना जरूरी है कि केंद्रीय अर्धसैनिक बलों की गोली से मारे गये लोग एक ही समुदाय के हैं। इनमें एक बच्चा भी है जिसे गोली मारने के बाद ही सारा बखेड़ा शुरू हुआ। क्या चुनाव आयोग इतना भोला है कि उसे यह बात समझ में नहीं आती?
बंगाल चुनाव पर देखिए वीडियो-
एक पक्ष को छूट क्यों?
क्या दिलीप घोष जैसे नेताओं को खुली छूट इसलिए मिली कि उनके कई विवादास्पद बयानों से चुनाव आयोग अनजान बना रहा। क्या दिलीप घोष का ममता बनर्जी के लिए यह बयान शर्मसार करने वाला नहीं था और कार्रवाई नहीं बनती थी?- “जनता ममता का मुंह भी नहीं देखना चाहती है, इसीलिए अब वो अपना टूटा हुआ पैर दिखा रही हैं। वो साड़ी पहनती हैं, लेकिन उनका एक पैर नहीं दिख रहा है और जिसमें चोट लगी है वो नजर आ रहा है, ऐसे साड़ी पहने कभी किसी को नहीं देखा। अगर आप अपना पैर ही दिखाना चाहती हैं तो आप बरमूडा पहन सकती हैं, इससे पैर साफ दिखेगा।”
चुनाव आयोग ने क्यों नहीं आसनसोल दक्षिण से बीजेपी उम्मीदवार अग्निमित्रा पॉल पर उनके 4 अप्रैल को दिए बयान पर कार्रवाई की जिसमें पॉल ने अपनी प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार अभिनेत्री सायनी घोष के बारे में कहा, “हारने के बाद संभवत: वह कंडोम की दुकान खोलेगी”?
बयानों की फेहरिस्त
छुटभैये नेताओं की तो पूछिए ही नहीं। चुनाव आयोग ने कभी उनके बयानों पर गौर ही नहीं किया। बीरभूम के जिला बीजेपी अध्यक्ष ध्रुव साहा का बयान कितना ख़तरनाक और लोकतंत्र विरोधी है, गौर करें- “दो मई को बीजेपी बंगाल में सरकार बनाएगी। जिन्होंने देश से गद्दारी की, पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा लगाया उन्हें दो मई के बाद निश्चित तौर पर (पुलिस के) एनकाउंटर का सामना करना पड़ेगा।”
ऐसे बयानों की फेहरिस्त बहुत बड़ी है। सबका जिक्र यहां मुनासिब नहीं है। टीएमसी नेताओं की ओर से भी ऐसे बयान आए हैं जो घोर आपत्तिजनक हैं। मगर, उनका जिक्र इसलिए करना जरूरी नहीं है क्योंकि चुनाव आयोग ने उन बयानों को नजरअंदाज नहीं किया है। सबको नोटिस भेजे हैं।
अगर चुनाव आयोग ने शुरू से ही नोटिस भेजने और एक्शन दिखाने में तत्परता दिखलायी होती तो यह नौबत नहीं आती। मगर, वह ऐसा नहीं कर सका तो इसकी वजह भी सिर्फ ममता पर कार्रवाई और बाकी पर कार्रवाई से परहेज दिखाने के फैसलों से स्पष्ट जाती है।
शुभेंदु पर कार्रवाई नहीं?
हालाँकि ममता को सजा देने के बाद दिलीप घोष को नोटिस और राहुल सिन्हा पर 48 घंटे का बैन लगा। क्या ये कार्रवाई ममता पर लगे बैन को सही और न्यायसंगत बताने की ख़ातिर की गयी है ? वैसे सबसे सांप्रदायिक और ज़हरीले बयान देने वाले शुभेंदु अधिकारी को सजा के नाम ऐसे झिड़की दी गयी है कि जैसे किसी लाड़ले बच्चे को झिड़का जाता है जबकि उनके चुनाव प्रचार पर बहुत पहले रोक लगनी चाहिये थी।
ममता बनर्जी के पास कोई चारा नहीं है कि वह सिवाय इसके कि गांधीवादी तरीके से चुनाव आयोग के फैसले का प्रतिकार करें। अपने साथ हुए और हो रहे जुल्म के खिलाफ आवाज़ उठाएं। ममता चुनाव आयोग के फैसले के खिलाफ 13 अप्रैल को 12 बजे गांधी मूर्ति के सामने धरने पर बैठीं। मगर, उनका धरना नये मुख्य चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा के विरुद्ध होगा। जिनके विरुद्ध होना चाहिए वह तो पदमुक्त हो चुके हैं।