चन्नी का चुनाव कांग्रेस के लिये फ़ायदे का सौदा?
क्या पंजाब की राजनीति बदलने वाली है? जिस प्रदेश में अब तक जाट सिखों का बोलबाला था, क्या वो अब टूटने वाला है? क्या पंजाब की राजनीति में उसी तरह का बदलाव देखने को मिलेगा जैसे यूपी में 1990 के दशक में देखने को मिला था? कांशीराम का जो प्रयोग 90 के दशक में नाकाम हो गया था, क्या पंजाब में उसका समय आ गया है? ये सवाल इसलिये उठ रहे हैं या उठने चाहिए क्योंकि पंजाब में पहली बार एक दलित को मुख्यमंत्री बनाया गया है! चरणजीत सिंह चन्नी की नियुक्ति पंजाब की राजनीति में कोई औपचारिक घटना नहीं है। चन्नी ने अगर गंभीर राजनीति की तो फिर एक नये युग का आग़ाज़ हो सकता है।
पंजाब में पिछले कई महीनों से कांग्रेस में घमासान मचा था। कैप्टन अमरिंदर सिंह की मुख्यमंत्री के तौर पर नाकामी और नवजोत सिंह सिद्धू से उनकी भिड़ंत ने कांग्रेस को ख़ासा परेशान कर रखा था। हालात ये हो गये थे कि जिस पंजाब में कांग्रेस की जीत पक्की मानी जा रही थी वहाँ वो हार के कगार पर जा खड़ी हुई थी। लिहाज़ा अमरिंदर को हटाना लाज़िमी था। लेकिन उसके बाद बड़ा सवाल ये था कि अगला मुख्यमंत्री कौन और किस समुदाय से। जाट सिख या हिंदू या दलित। पंजाब में अब तक जाट सिख ही मुख्यमंत्री हुए हैं। ऐसे में कांग्रेस यह प्रयोग कर सकती था कि सुनील जाखड़ जैसे किसी हिंदू को मुख्यमंत्री बना कर 38% हिंदू वोटरों को अपनी तरफ़ खींच ले। पर एक पेच था कि सिख के नाम पर बने राज्य में किसी ग़ैर सिख को कैसे मुख्यमंत्री बना दिया जाए। आख़िरी समय में पार्टी ने एक दलित को चुन लिया।
दलित पंजाब में 32% हैं। और जाट सिख 20%। हर पार्टी दलितों को अपनी तरफ़ लाने की कोशिश तो करती है पर उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाती। ऐसे में कांग्रेस ने दलित को कुर्सी सौंप कर एक बड़ा दांव खेला है। हालाँकि यह कहा जा रहा है कि पंजाब के जाट सिख और हिंदू कभी किसी दलित को अपना नेता नहीं मानेंगे। और कोई भी समुदाय अपने राजनीतिक वर्चस्व को टूटते नहीं देखना चाहता। ऐसे में यह कहना अभी कठिन है कि पंजाब में राजनीति किस करवट बैठेगी, या वहाँ यूपी की तरह दलित राजनीति का प्रयोग कामयाब होगा। वैसे तो यूपी में भी एक समय तक अगड़ी जातियों का वर्चस्व था पर मंडल की राजनीति ने उसे तोड़ दिया और लंबे समय के बाद योगी आदित्यनाथ, जो अगड़ी जाति के हैं, उनको तख़्त मिला।
पंजाब में कांग्रेस ने जाट सिखों और हिंदुओं को साथ लेकर चलने के लिये सुखजिंदर रंधावा और ओ पी सोनी को उप मुख्यमंत्री बनाया है। सिद्धू खुद पार्टी के मुखिया हैं। साफ़ है कांग्रेस जातियों का नया काकटेल बनाने की कोशिश में है। कितना सफल होगा इसका नतीजा चुनाव के नतीजे बतायेंगे। लेकिन दलित कार्ड काफ़ी कारगर हो सकता है और इसका फ़ायदा कांग्रेस को पंजाब के बाहर की राजनीति में भी हो सकता है।
पंजाब में ‘आप’ सत्ता की बड़ी दावेदार है। उसने यह वादा किया था कि वो किसी दलित को उप मुख्यमंत्री बनायेगी। अब वो क्या करेगी? क्या वो किसी दलित को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाने को तैयार होगी और अगर ऐसा होता है तो भगवंत मान का क्या होगा जो पंजाब में पार्टी के अकेले लोकप्रिय नेता हैं? वो मुख्यमंत्री का चेहरा बनने को लेकर अड़ गये हैं। और उनकी दावेदारी को नकारा नहीं जा सकता है, और अगर ऐसा होता है तो ‘आप’ का दलित प्रेम खोखला साबित होगा।
अकाली दल ने बीएसपी के साथ गठबंधन किया है। बीएसपी का रामदसिया दलित समुदाय में ख़ासा असर है। रामदसिया समुदाय पंजाब की आबादी का कुल 10% है। चन्नी भी रामदसिया समुदाय से आते हैं। लिहाज़ा अकाली और बीएसपी का समीकरण भी गड़बड़ायेगा।
बीजेपी ने पिछले दिनों कांग्रेस को चुनौती दी थी कि वह दलित मुख्यमंत्री बना के दिखाये। पार्टी ने बना दिया तो अब बीजेपी क्या कहेगी और किस मुँह से कहेगी?
यह सच है कि पंजाब में दलित समुदाय कभी एकजुट नहीं रहे हैं। वो दलित हिंदू और दलित सिख में बंटे हैं। अगर 10% रामदसिया हैं तो 10% के आसपास ही मज़हबी दलित सिख भी हैं। फिर वाल्मीकि और बाज़ीगर दलित भी हैं। ऐसे में यह तर्क दिया जा सकता है कि जब कांशीराम पंजाब की दलित राजनीति में फेल हो गये तो कांग्रेस कैसे कामयाब होगी?
कांशीराम ने 1980 की शुरुआत में पंजाब के दलितों को एकजुट करना शुरू किया था। वो थोड़ा सफल भी हुये थे। 1989 में हरभजन लाखा बीएसपी के पहले सांसद पंजाब से ही हुये थे। पर इसके बाद कांशीराम की दाल ज़्यादा नहीं गली। उन्हें उत्तर प्रदेश में बड़ी कामयाबी मिली। मायावती चार बार मुख्यमंत्री बनीं और बीएसपी पंजाब में हाशिये पर ही रही। लेकिन एक फ़र्क़ है। आज देश में अस्मिता की राजनीति का बोलबाला है। देश स्तर पर हिंदुत्व एक बड़ी पहचान के तौर उभरा है तो अलग-अलग राज्यों में जातिगत पहचान ने भी अपने को मज़बूती से रखना शुरू कर दिया है। गुजरात में पाटीदार समुदाय का मुख्यमंत्री बनाना इसी ओर संकेत करता है। कर्नाटक में भी बीजेपी लिंगायत समुदाय को नाराज़ करने का जोखिम नहीं उठा पायी और येदियुरप्पा के बाद बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री की कुर्सी देनी पड़ी।
वीडियो चर्चा में देखिए: पंजाब में दलित मुख्यमंत्री के क्या हैं मायने
बीजेपी ने भी पिछले दिनों यूपी की राजनीति के मद्देनज़र कैबिनेट में यूपी से जिन सात लोगों को मंत्री बनाया उनमें से छह पिछड़ी और दलित जातियों से हैं। मोदी को ये कहना पड़ रहा है कि उनकी कैबिनेट में 27 पिछड़ी जातियों के मंत्री हैं। अब ये अलग बात है कि उनको अधिकार कितना मिला हुआ है।
लेकिन तमाम दावों के बाद भी बीजेपी का एक भी सीएम दलित समुदाय से नहीं है। वो 17 राज्यों में सरकार में है या चला रही है। ऐसे में चन्नी को मुख्यमंत्री बनाने का फ़ायदा कांग्रेस को न सिर्फ़ पंजाब में होगा बल्कि यूपी और उत्तराखंड में भी लाभ मिल सकता है।
यूपी में 21% दलित हैं। और उत्तराखंड मे 18%। यूपी में मायावती की दलित राजनीति सिर के बल खड़ी हो गयी है। वो ‘जय भीम’ के नारे से शुरू हुई थी और ‘जय श्रीराम’ पर आ गयी है। बीएसपी का दलित वोट खिसक रहा है। बीजेपी ने ग़ैर-जाटव वोटरों को अपनी तरफ़ खींच लिया है। मायावती इसलिये अब ब्राह्मणों को लुभाने में लगी हैं। ऐसे में यूपी में कांग्रेस, जो बहुत मज़बूत नहीं है, को दलितों को अपनी तरफ़ लाने का एक तर्क मिल गया है। उत्तराखंड में तो कांग्रेस सत्ता की प्रमुख दावेदार है। पंजाब कांग्रेस के प्रभारी हरीश रावत खुद मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं। वह यह बात कह सकते हैं कि उनकी वजह से पंजाब में दलित मुख्यमंत्री मिला और ये तर्क उनके पक्ष में जा सकता है।
यह नहीं भूलना चाहिए कि दलित आज़ादी के बाद चार दशक तक कांग्रेस के साथ थे। 1990 में वो कांग्रेस से छिटकने शुरू हुये। यूपी और बिहार में उनका कांग्रेस से मोहभंग हुआ लेकिन पंजाब समेत दूसरे राज्यों में अभी भी वो कांग्रेस से उतने उखड़े नहीं हैं। लिहाज़ा पंजाब का प्रयोग कांग्रेस के लिये एक बड़ा राजनीतिक हथियार हो सकता है। और दलित नैरेटिव में एक नया अध्याय लिख सकता है। अगर ऐसा हुआ तो कांग्रेस के लिये नई शुरुआत भी हो सकती है और बीजेपी को भी राष्ट्रीय स्तर पर अपनी रणनीति बदलनी पड़ सकती है। क्या ऐसा होगा? ये तो पाँच राज्यों के चुनाव के नतीजे ही बतायेंगे!