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क्या बीजेपी की भाषा भारतीय मीडिया की भी भाषा हो चुकी है?

क्या बीजेपी की भाषा भारतीय मीडिया की भी भाषा हो चुकी है?

विपक्षी दलों द्वारा उठाए गए मुद्दों या सवालों पर मुख्य धारा का मीडिया की रिपोर्टिंग क्या उसी तरह होती है जैसी बीजेपी के मुद्दों या सवालों की होती है? क्या मीडिया की भाषा में कुछ अंतर दिखता है?

क्या भारतीय मीडिया इन दिनों भारतीय जनता पार्टी की भाषा बोलने लगा है? वैसे एक सवर्ण पूर्वग्रह भारतीय मीडिया की भाषा में हमेशा सक्रिय रहा, लेकिन वह पहले एक शील के तहत इसे कुछ छुपाने की या संतुलित करने की ज़रूरत महसूस करता था। मगर पिछले कुछ दिनों में भारत में आक्रामक बहुसंख्यकवाद के उभार का असर हो या कुछ और- मुख्यधारा के मीडिया ने यह न्यूनतम शील भी छोड़ दिया है।

मिसाल के तौर पर ब्रिटेन के दौरे पर गए राहुल गांधी के वक्तव्यों की रिपोर्ट देखें। राहुल गांधी ने मोटे तौर पर वहां दो-तीन बातें कही थीं। उन्होंने भारतीय लोकतंत्र के क्षरण पर चिंता जताई और इस बात का उल्लेख किया कि आकार में यूरोप के तीन-चौथाई हिस्से में लोकतंत्र की इस हालत से यूरोप-अमेरिका बेपरवाह हैं- शायद इसलिए कि उनकी नज़र पूंजी और बाज़ार पर है। इसके बाद मीडिया में ख़बर चल पड़ी कि राहुल गांधी ने भारतीय लोकतंत्र के भीतर अमेरिका और यूरोप के हस्तक्षेप की मांग की है। अगले दिन राहुल गांधी ने स्पष्ट किया कि भारतीय लोकतंत्र के संकट की वजहें अंदरूनी हैं और इनका हल भी भीतर से ही निकलेगा। लेकिन मीडिया ने इसे राहुल गांधी का यू-टर्न बताया।

जाहिर है, राहुल गांधी के वक्तव्य का यह भाष्य बीजेपी का था जिसे मीडिया ने लपक लिया और साबित करने में लग गया कि राहुल ने कैसा नासमझी भरा बयान दिया है। जब प्रधानमंत्री ने दक्षिण भारत में यह मुद्दा उठाया तो बीजेपी नेता और जोशो-ख़रोश के साथ राहुल गांधी से माफ़ी मंगवाने में जुट गए। उनका नया आरोप था कि राहुल गांधी ने विदेशी धरती पर देश को बदनाम किया है। 

लेकिन क्या भारत जैसा देश, जिसकी परंपरा का गुणगान करते प्रधानमंत्री भी नहीं अघाते, ऐसे किसी वक्तव्य से बदनाम हो सकता है? आज की दुनिया में बिल्कुल स्थानीय स्तर पर घटने वाली घटनाएं भी भूमंडलीय आयाम ग्रहण कर लेती हैं। क्या पिछले कई वर्षों में मीडिया की अभिव्यक्ति अवरुद्ध करने, सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल में डालने और गाय के नाम पर मॉब लिंचिंग की ऐसी ढेर सारी घटनाएं नहीं घटी हैं जिनसे वाक़ई देश बदनाम होता है?

यह सच है कि हमारी राजनीति- या शायद दुनिया भर की राजनीति- सरलीकरणों पर चलती है। उसमें बहुत सूक्ष्म वक्तव्यों की गुंजाइश नहीं होती, जिसे 'फाइन प्रिंट' कहते हैं उसे देखने की फुरसत नहीं होती। इस लिहाज से राहुल गांधी के वक्तव्य में राजनीतिक दुरुपयोग की गुंजाइश खासी थी जिसे बीजेपी ने इस्तेमाल कर लिया। 

लेकिन जो काम बीजेपी ने किया, क्या वही भारतीय मीडिया को करना चाहिए? वह क्यों चीख चीख कर कहने लगा कि देखो राहुल गांधी ने देश को बदनाम कर दिया। जबकि यही मीडिया प्रधानमंत्री या बीजेपी के अन्य नेताओं के बयानों को लेकर अतिरिक्त सतर्क हो जाता है।

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ऐसे मामलों में मीडिया की चुप्पी क्यों?

मामला सिर्फ कांग्रेस या बीजेपी के समर्थन और विरोध का होता तो चिंता की बहुत बात नहीं होती। मामला उस मानसिकता का है जिसके तहत मीडिया पिछड़ों, दलितों या अल्पसंख्यकों के विरुद्ध बनाए जा रहे माहौल को लेकर या तो रणनीतिक तौर पर चुप रहता है या उसका समर्थन करता है- या फिर ऐसी भाषा का इस्तेमाल करता है जिसमें बड़ी चालाकी से कोई आरोप जुर्म में बदल दिया जाता है, कोई उत्पीड़न कार्रवाई बन जाता है। मिसाल के तौर पर उत्तर प्रदेश में उमेश पाल की हत्या के बाद इसके संदिग्ध अतीक अहमद और उसके सहयोगियों पर जिस तरह की कार्रवाई हो रही है, उस पर कई सवाल बनते हैं। एक के बाद एक कई लोगों के घर तोड़े जा रहे हैं, एनकाउंटर में उन्हें मारा जा रहा है, लेकिन मीडिया न्याय प्रक्रिया से बाहर चल रही इस कार्रवाई को 'शूटरों के ख़िलाफ़ एक्शन' बता रहा है। एक ही वाक्य में मीडिया ने संदिग्ध आरोपियों को मुजरिम बना डाला और एक ग़लत कार्रवाई को वैधता प्रदान कर डाली। 

यह सच है कि अतीक अहमद कोई दूध का धुला नहीं है, उसका एक आपराधिक अतीत है, उसके सहयोगियों के भी ख़िलाफ़ कई तरह के आरोप हैं, उमेश पाल की हत्या में उसके लोगों का हाथ होने का संदेह भी बेजा नहीं है, लेकिन इन सब के खिलाफ जो कानूनी कार्रवाई वैधानिक दायरे में होनी चाहिए, वह अक्सर इससे बाहर जा रही है और उसमें मक़सद मुजरिम को सज़ा दिलाने से ज़्यादा एक पूरे समुदाय को डराने का नज़र आ रहा है। अगर थोड़ी देर के लिए मान लें यह मक़सद नहीं है तो भी इस तरह की पुलिसिया और प्रशासनिक कार्रवाई पर सवाल उठाना उस लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है जिसकी बदनामी की फ़िक्र में सत्तापक्ष सदन नहीं चलने दे रहा। लेकिन मीडिया में कहीं यह सवाल दिखाई नहीं पड़ेगा।

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तीसरा उदाहरण लालू यादव के घर छापों का है। नौकरी के बदले ज़मीन ले लेने का आरोप मीडिया के लिए अभी से घोटाला बन चुका है। दिल्ली की न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी में तेजस्वी यादव का मकान ढाई सौ करोड़ का हो चुका है। जबकि दिल्ली के भूगोल से परिचित कोई भी आदमी अपने सामान्य ज्ञान से बता सकता है कि न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी में अभी किसी घर की क़ीमत ढाई सौ करोड़ नहीं हो सकती। कहीं भी कोई तथ्य स्पष्ट नहीं दिखाई पड़ता। इस मामले में भी लालू यादव के प्रति जो वर्गीय घृणा है वह मीडिया के बड़े हिस्से में देखी जा सकती है। 

इसका दूसरा पक्ष यह है कि मीडिया ने अब मॉब लिंचिंग जैसे मामलों का नोटिस लेना तक छोड़ दिया है। गाय की वैध या अवैध खरीद-फरोख्त में लगे लोगों को 'गौतस्कर' का नाम दिया जा चुका है।

गाय के अलावा शायद ही कोई और सामान है जिसका देश के भीतर कारोबार तस्करी कहलाता हो। नशीले पदार्थ बेचने वाले भी 'ड्रग डीलर' कहलाते हैं, तस्कर नहीं। और तो और, अब लेखकों, पत्रकारों या सामाजिक कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ दर्ज किए जा रहे केस या उनको जेल भेजने की घटनाएं खबरों की सुर्ख़ियो में नहीं रहतीं। यह सवाल विपक्ष के कुछ नेता भले पूछते हैं- और टीवी चैनलों पर किन्हीं बहसों में भले चला जाता है- कि सरकारी एजेंसियां सिर्फ विपक्षी नेताओं के यहां छापे क्यों मारती हैं या क्या बीजेपी के सभी नेता दूध के धुले हैं, लेकिन मुख्यधारा का मीडिया अपनी ओर से यह कोशिश करता दिखाई नहीं पड़ता कि वह ऐसी कार्रवाइयों का सच बताए- यह बताए कि इन कार्रवाइयों के बाद कितनों को सज़ा हुई, कितनों को इंसाफ़ मिला।

राहुल गांधी देश में कहें या विदेश में- यह ठीक कहते हैं कि हमारे लोकतंत्र पर ख़तरा बढ़ा है, आम लोगों की अभिव्यक्ति को कुचला जा रहा है और यह काम सरकार ही नहीं कर रही, उसके साथ खड़ा मीडिया भी कर रहा है।

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