मराठा आरक्षणः 4 युवकों की आत्महत्याओं ने आंदोलन को फिर से हवा दी
महाराष्ट्र में मराठा आंदोलन फिर से राज्य की कानून व्यवस्था के लिए दिक्कत खड़ी कर सकता है। एक तरफ युवक खुदकुशियां कर रहे हैं और दूसरी तरफ मराठा आंदोलन के नेताओं ने 25 अक्टूबर से फिर से आंदोलन शुरू करने की घोषणा की है। दरअसल, मराठा आरक्षण आंदोलन के नेताओं ने खुद 25 अक्टूबर की डेडलाइन तय करते हुए राज्य सरकार को मराठा कोटा लागू करने को कहा था। शिंदे सरकार वादा करती है लेकिन लागू नहीं करती है। अब युवकों की आत्महत्याओं ने आग में घी डालने का काम किया है।
24 साल के युवक शुभम पवार ने अपने स्यूसाइड नोट में लिखा है- मराठा आरक्षण के लिए अपना बलिदान दे रहा हूं। त्योहार मनाने नांदेड़ लौटे शुभम पवार ने शनिवार को जहर खा लिया। उनका परिवार सदमे में है। मराठा आरक्षण की मांग से संबंधित यह चौथी आत्महत्या है।
शुभम मुंबई में छोटे-मोटे काम करता था। उसने परिवार को सूचना दी थी कि बहन से मिलने जा रहा है लेकिन उसके बाद वो लापता हो गया। परिवार ने उसके लापता होने की सूचना पुलिस को दी। पुलिस ने तलाश शुरू की तो तमसा रोड पर झाड़ियों में पवार का शव पाया गया। पुलिस को वहां एक स्यूसाइड नोट और कीटनाशक की बोतल मिली।
मराठा आरक्षण के लिए यह पहली खुदकुशी नहीं है। इससे पहले, 45 वर्षीय मराठा आरक्षण आंदोलनकारी सुनील कावले मुंबई में मृत पाए गए थे। वो भी आरक्षण के मुद्दे पर अपने बलिदान का स्यूसाइड नोट छोड़ गए थे। इसी तरह, सुदर्शन कामारिकर और किसन माने ने अपना जीवन खत्म कर लिया। उनके निराशा की वजह कोटा मुद्दे पर सरकार का उदासीन रवैया था।
इन आत्महत्याओं पर सरकार हिल गई है। मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे प्रत्यक्ष तौर पर युवकों से ऐसा कदम नहीं उठाने और मराठा आरक्षण के लिए अपना संकल्प बार-बार दोहरा रहे हैं लेकिन सरकार कहीं न कहीं इस मामले में राजनीतिक लाभ उठाने का रास्ता खोज रही है। शिंदे सरकार में भाजपा बराबर की भागीदार है लेकिन भाजपा का रवैया मराठा आरक्षण को लेकर बदलता रहता है।
मराठा आरक्षण आंदोलन के नेता के रूप में मनोज जारांगे सामने आए हैं। मनोज ने 25 अक्टूबर से आंदोलन तेज करने की धमकी दी है। मनोज जारांगे को समुदाय के भीतर मिल रहे समर्थन ने राज्य सरकार, खासकर भाजपा को परेशानी में डाल दिया है।
मराठा समुदाय पिछले डेढ़ दशक से आरक्षण के लिए दबाव बना रहा है, हालांकि आंदोलन का मौजूदा दौर पिछले दौर से कुछ अलग है। पहली बार, जारांगे के नेतृत्व में मराठा आंदोलन एक नेतृत्व लेकर आया है जिसे बयानबाजी से नफरत है। छगन भुजबल सहित कई ओबीसी नेताओं ने इस आंदोलन में घुसने की कोशिश की लेकिन उन्हें काफी गुस्से का सामना करना पड़ा। यह आंदोलन पूरी तरह युवकों के हाथ में है। वे किसी भी तरह का राजनीतिक बयान नहीं देते। उनके एक्शन में ही उनका बयान होता है। इनके बीच राजनीतिक पकड़ नहीं होने के कारण भाजपा परेशान है। क्योंकि वो न तो इसके खिलाफ बोल पा रही है और न विरोध कर पा रही है।
मांग पूरी हुई तो क्या होगाः महाराष्ट्र सरकार अगर मराठा आंदोलनकारी युवकों की मांग स्वीकार कर लेती है तो इसका मतलब सभी मराठों को ओबीसी श्रेणी में शामिल करना होगा। प्रदेश की कुल आबादी में मराठों की हिस्सेदारी 30 फीसदी से अधिक है। आरक्षण के मकसद से मराठा समुदाय को ओबीसी श्रेणी में शामिल करने के कई मतलब होंगे। जो मतलब निकल रहे हैं, राजनीतिक दल उसे भुनाना चाहते हैं लेकिन युवकों के कड़े रुख के आगे बेबस पा रहे हैं। इसमें सबसे ज्यादा भाजपा परेशान है।
अगर मराठा कोटे की मांग मानी जाती है तो इससे आरक्षित सीटों के लिए ओबीसी समुदाय के बीच होड़ बढ़ सकती है। सरकार द्वारा मराठा समुदाय की मांग मानने से ओबीसी के अन्य वर्गों के उत्तेजित होने की संभावना है। इससे महाराष्ट्र का सामाजिक ताना-बाना और बिगड़ सकता है।
शिंदे सरकार मराठा आरक्षण की मांग को लेकर सतर्क दिखाई तो दे रही है। लेकिन गठबंधन सरकार में तीन दल शामिल हैं, इसलिए वो अकेले फैसला नहीं ले सकती। सरकार में सहयोगी भाजपा दुविधा में सबसे ज्यादा है कि आगे कैसे बढ़ा जाए क्योंकि अन्य पिछड़ा वर्ग की मांगों में मराठों को शामिल करने के मुद्दे पर ओबीसी के बीच नाराजगी बढ़ने की संभावना है। राजनीतिक तौर पर ओबीसी बड़े पैमाने पर बीजेपी के साथ हैं।
बहरहाल, मराठा समुदाय को आरक्षण मिलने पर अन्य ओबीसी समूहों की तरह उसे भी सरकारी नीतियों का लाभ मिल सकता है। इससे समुदाय के भीतर सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को दूर करने में मदद मिल सकती है।
मराठा आरक्षण आंदोलनकारी राज्य में सभी मराठों को कुनबी का दर्जा देने की मांग कर रहे हैं। कुनबी शब्द खेती की गतिविधियों में लगी मराठा उप-जाति के लिए इस्तेमाल होता है। मंडल आयोग ने कुनबी को ओबीसी के रूप में मान्यता दी थी। मराठा कुनबी प्रमाणपत्र चाहते हैं। लेकिन बाकी कुनबी समुदायों का कहना है कि क्या उन्हें इसके बाद मराठा मान लिया जाएगा। दरअसल ये सवाल एक विभाजन को बताता है। मराठा खुद के कुनबी से बेहतर जाति मानते हैं। लेकिन वो नौकरी आदि के लिए कुनबी बनना चाहते हैं।
बहरहाल, महाराष्ट्र में मराठा समुदाय न सिर्फ तादाद में सबसे बड़ा, बल्कि राजनीतिक रूप से सबसे प्रभावशाली वर्ग है। पिछले कई दशकों से राज्य मंत्रिमंडल में मराठों की हिस्सेदारी 52% से कभी कम नहीं हुई। 1960 में महाराष्ट्र बनने के बाद अधिकांश समय तक, मराठा मुख्यमंत्री रहा है। कई रिपोर्टों के मुताबिक मराठा राज्य के लगभग 50% शैक्षणिक संस्थानों, 70% सहकारी संस्थानों और 70% से अधिक कृषि भूमि को नियंत्रित करता है।