मुंडे-खडसे के बिना बीजेपी कैसे साध पाएगी ओबीसी वोट?

07:19 am Mar 12, 2019 | सत्य ब्यूरो - सत्य हिन्दी

एक दौर था जब राजनीतिक दल दलित-मुसलिम समीकरण बिठाकर चुनाव जीतने की जुगत लगाते थे। फिर मंडल कमीशन ने देश की राजनीति के नए समीकरण गढ़ देश की आबादी के लगभग 42 प्रतिशत हिस्सा ओबीसी समाज को राजनीति की नयी धुरी बना दिया। कमंडल में उलझी भारतीय जनता पार्टी ने जब इस समीकरण को साधा तो सत्ता की कुर्सी तक पहुँच गयी।

महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी ओबीसी राजनीति के अपने दो बड़े धुरंधर नेताओं के बिना इस बार कैसे चुनावी वैतरणी पार कर पाएगी, यह सवाल लोगों के जे़हन में है। पहले कद्दावर नेता गोपीनाथ मुंडे जो इस दुनिया में अब नहीं हैं जबकि दूसरे एकनाथ खडसे, जो पार्टी में अपनी स्थिति लाल कृष्ण आडवाणी जैसी बताते हैं। इन दोनों नेताओं ने महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी को गाँव-गाँव तक पहुँचाने में बड़ी भूमिका निभायी है। मुंडे के नेतृत्व के कारण ओबीसी समुदाय के बहुत से लोग भाजपा में आए थे ।

पार्टी में हाशिए पर हैं खडसे

राकांपा प्रमुख शरद पवार के प्रखर आलोचक मुंडे को इस बात का श्रेय दिया जाता है कि उन्होंने महाराष्ट्र में  मराठा राजनीति के प्रभाव को इस सीमा तक बेअसर कर दिया कि शिवसेना-भाजपा गठबंधन 1995 में सत्ता में पहुँच सका और वह उप मुख्यमंत्री बने। वह 1980 में पहली बार विधायक बने और 2009 तक वह विधायक रहे। इसके बाद वह लोकसभा चले गए।

मुंडसे 1992 से 1995 तक महाराष्ट्र विधानसभा में विपक्ष के नेता रहे। महाराष्ट्र के पिछड़े वर्ग में उनका अच्छा जनाधार था। भाजपा में दूसरे बड़े ओबीसी नेता रहे हैं एकनाथ खडसे, जिन्हें इस बार सरकार आने पर मुख्यमंत्री तो नहीं बनाया गया, बल्कि भ्रष्टाचार के आरोप पर उनसे इस्तीफ़ा लेते समय यह कहा गया कि जैसे ही जांच रिपोर्ट में वह पाक-साफ़ पाए जायेंगे उन्हें मंत्री बना दिया जाएगा।  रिपोर्ट आए तीन साल हो गए और आज खडसे पार्टी में हाशिये पर हैं।

पार्टी में ओबीसी की उपेक्षा की तरफ़ दिया इशारा

एकनाथ खडसे सरकार आने से पहले विधानसभा में विरोधी पक्ष के नेता थे। यह पद उन्होंने शिवसेना से तार्किक आधार पर लड़ कर हासिल किया थ। बता दें कि पिछली विधानसभा में भी शिवसेना के भाजपा से कम विधायक चुने गए थे। बड़े दल का दावा कर खडसे विरोधी पक्ष के नेता बन बैठे, उस समय भी शिवसेना ने अपने को बड़ा भाई बताते हुए नाराज़गी ज़ाहिर की थी।

खडसे वही नेता हैं, जिन्होंने साल 2014 में शिवसेना के साथ गठबंधन टूटने वाली बैठक में प्रमुखता से भाजपा का पक्ष रखा था। राजनीति में गुमनामी झेल रहे खडसे पिछले सप्ताह जब अचानक मीडिया से मुख़ातिब हुए तो नयी चर्चाओं को जन्म दे दिया। एकनाथ खडसे ने कहा कि वह जल्द ही राष्‍ट्रीय कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) नेता छगन भुजबल से मिलकर ओबीसी समाज की समस्याओं पर चर्चा करेंगे। खडसे ने इशारे ही इशारे में अपनी पार्टी के नेतृत्व पर ओबीसी समाज की उपेक्षा का आरोप लगाया।

पिछले दो-ढाई साल में ओबीसी समाज के सक्रिय नेताओं को रास्ते से हटाने का काम जान-बूझकर किया गया। गोपीनाथ मुंडे, छगन भुजबल और मेरे साथ यही किया गया।


एकनाथ खडसे, बीजेपी नेता

कांग्रेस भी साध रही ओबीसी को

खडसे ने कहा, 'राज्य में ओबीसी समाज नेतृत्वहीन कर दिया गया है। यही वजह है कि ओबीसी समाज के प्रभावशाली नेता भुजबल के जेल से बाहर आने के बाद समाज उनके नेतृत्व में फिर एकजुट हो रहा है।' राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि खडसे का यह बयान राज्य में ओबीसी वोटों के नए ध्रुवीकरण का संकेत है और इसका असर 2019 के चुनाव में दिख सकता है।

तीन हिंदी भाषी राज्यों में जीत के बाद राहुल गांधी ने भी यह संकेत दिया था कि उनकी पार्टी भी ओबीसी के समीकरण को साधने में पीछे नहीं हटेगी। लिहाजा अशोक गहलोत, भूपेश बघेल और वणिक जाति से आने वाले कमलनाथ मुख्यमंत्री बनाए गए।

पार्टी अन्य राज्यों में भी इस फार्मूले के तहत कार्य कर रही है। ऐसे में देखना यह है कि भाजपा कैसे ओबीसी वोटों को अपनी तरफ़ आकर्षित करने में क़ामयाब होती है। मुंडे की ग़ैरमौजूदगी में भाजपा ने पंकजा मुंडे को मंत्री तो बना रखा है, लेकिन एक बात तो साफ़ है कि वह ओबीसी वर्ग का उस तरह से प्रतिनिधित्व नहीं कर पा रही हैं जैसे उनके पिता करते थे। ऊपर से मंत्री बनते ही वह चिक्की घोटाले के आरोपों से घिर गईं। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने उनके मंत्रालय के टेंडर्स को रद्द करने के भी आदेश दिये  हैं।