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क्या सियासी रंग दिखा पायेगा महाराष्ट्र के प्रोजेक्ट्स का गुजरात जाना ?

क्या सियासी रंग दिखा पायेगा महाराष्ट्र के प्रोजेक्ट्स का गुजरात जाना ?

महाराष्ट्र के प्रोजेक्ट्स गुजरात ले जाने का मुद्दा क्या प्रदेश में नया राजनीतिक ध्रुवीकरण खड़ा करेगा ? क्या यह मुद्दा कोई सियासी रंग दिखा पायेगा ? या यूं कह लें कि क्या यह मुद्दा भारतीय जनता पार्टी द्वारा जोड़ तोड़ कर बनाये गए नए सत्ता समीकरण के लिए नयी चुनौती साबित होगा ? संजय राय ने इन्हीं सवालों को उठाया है।

महाराष्ट्र के राजनीतिक गलियारों में ही नहीं लोगों में भी यह सवाल अब चर्चा का विषय बनता जा रहा है कि क्या केंद्र सरकार  महाराष्ट्र को आर्थिक रूप से कमजोर करने का काम कर रही है  ? क्या वाकई में देश की आर्थिक राजधानी की आर्थिक गतिविधियों को यंहा से हटाकर गुजरात  ले जाया जा रहा है ? ये सवाल ऐसे ही चर्चा में नहीं आये हैं। इनके पीछे कई कारण है ? 

महाराष्ट्र में विधायकों की खरीद फरोख्त के खेल के परिणामस्वरूप हुए सत्ता परिवर्तन के बाद से एक एक कर  कई बड़े प्रोजेक्ट्स का गुजरात जाना इसका प्रमुख कारण है। विपक्ष इस बात को लेकर आक्रामक है। वेदांता- फॉक्सकॉन (Vedanta-Foxconn), बल्क ड्रग्स  पार्क (Bulk Drugs Park), मेडिसीन डिवाइस पार्क (Medical Device Park) और टाटा एयर बस (Tata Airbus Project) ऐसे प्रोजेक्ट्स हैं जिनके तहत महाराष्ट्र में बड़े पैमाने पर निवेश होना था। टाटा एयर बस प्रोजेक्ट की लागत  21,935 करोड़ रुपये , वेदांता फॉक्सकॉन प्रोजेक्ट में करीब 1.54 लाख करोड़ का निवेश होना था। पर गुजरात चुनाव के ठीक पूर्व ये प्रोजेक्ट गुजरात चले गए। ये प्रोजेक्ट्स गुजरात क्यों चले गए इस बात का कोई ठोस कारण नयी सरकार ने नहीं बताया है। 

राजनीतिक आरोप प्रत्यारोपों के तहत यही कहा जा रहा है कि दरअसल यह निर्णय महाराष्ट्र विकास आघाडी सरकार के दौरान ही हो गए थे इसमें नयी सरकार की कोई भूमिका नहीं है। जबकि पिछली सरकार के उद्योग मंत्री सुभाष देसाई और आदित्य ठाकरे ये कहते हैं कि उन्होंने स्वयं इस बारे में टाटा समूह के प्रमुख से इस प्रोजेक्ट पर चर्चा की थी और नागपुर में इसे लगाने पर सहमति हुई थी। महाराष्ट्र के प्रोजेक्ट्स ,गुजरात में ले जाने का वादा देवेंद्र फडणवीस की सरकार के दौरान भी उठता रहा है। ये आरोप लगते रहे हैं कि वे केंद्र की सरकार के इशारों पर चलते हुए महाराष्ट्र का पक्ष नहीं रखते लिहाजा एक एक कर अच्छे प्रोजेक्ट्स गुजरात जा रहे हैं। यह बात अंतरराष्ट्रीय वित्त केंद्र को मुंबई से हटाकर अहमदाबाद ले जाने के समय भी उठा था। उस समय पूर्व कृषि मंत्री और एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने  महाराष्ट्र राज्य के स्थापना दिवस के अवसर पर केंद्र सरकार पर आरोप लगाया था। 

महाराष्ट्र राज्य के हीरक जयंती समारोह में एक समाचार पत्र द्वारा आयोजित वेब संवाद के दौरान पवार ने कहा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मात्र अपने राज्य (गुजरात ) को  फायदा पंहुचाने के बारे में ही नहीं सोचना चाहिए, उन्हें पूरे देश का ध्यान रखना चाहिए। पवार ने कहा था  कि देश का अंतरराष्ट्रीय वित्त केंद्र मुंबई से हटाकर गुजरात ले जाने का जो निर्णय किया गया है उससे हम नाराज हैं। शरद पवार का यह  बयान उस दौर में आया था जब प्रदेश में महाविकास आघाडी की सरकार थी। 

वर्तमान में प्रोजेक्ट्स के स्थानांतरण को लेकर शुरु हुए विवाद में भी महाविकास आघाडी के सभी दल भारतीय जनता पार्टी को घेर रहे हैं। मुंबई सहित प्रदेश में करीब 13 महानगरपालिकाओं के चुनाव हैं। इन चुनावों के लिए विपक्षी दलों को एक महत्वपूर्ण मुद्दा भी मिल गया है महाराष्ट्र बनाम गुजरात का। महाराष्ट्र की राजनीति में यह मुद्दा संवेदनाओं से जुड़ा हुआ है। इसके गर्भ से ही शिवसेना का उदय हुआ है। संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन और उसमें शहीद हुए सैकड़ों लोगों की कुर्बानी को हर साल सरकारी तौर पर याद भी किया जाता है। उल्लेखनीय है कि जब देश में राज्यों के पुनर्गठन या भाषाई आधार पर उनके निर्माण की प्रक्रिया चल रही थी तो महाराष्ट्र और गुजरात राज्य के निर्माण पर भी काम चल रहा था।

मुंबई को लेकर उस समय बहुत बड़ा टकराव हुआ था कि इसे किस प्रदेश का हिस्सा बनाया जाय, महाराष्ट्र या गुजरात ? उस समय  मोरारजी देसाई इस बॉम्बे प्रोविंस के प्रधानमंत्री हुआ करते थे। देसाई, मुंबई को गुजरात में शामिल करने के पक्षधर थे लेकिन उसके  खिलाफ यंहा के नेताओं और जनता ने संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन की शुरुवात कर दी।  उद्धव ठाकरे के दादाजी प्रबोधनकार ठाकरे भी उस आंदोलन के एक प्रमुख नेता थे। शिवसेना प्रमुख बालासाहब ठाकरे भी उस आंदोलन से जुड़े थे। आंदोलन इतना उग्र रूप धारण कर चुका था कि सैकड़ों लोगों की जान चली गयी थी। 

प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने इस मामले में निर्णय कर मुंबई को महाराष्ट्र में ही रखने की जब स्वीकृति प्रदान की तब जाकर यह आंदोलन थमा था। उसके बाद से ही, खासतौर पर मुंबई में शिवसेना के निशाने पर गुजराती कारोबारी रहे हैं। प्रदेश में जब देवेंद्र फडणवीस की सरकार थी उस समय भी  कांग्रेस एनसीपी ही नहीं शिवसेना भी इस बात का इशारा करती रहती थी  कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी महाराष्ट्र की अनेक योजनाओं और यंहा आने वाले निवेश को गुजरात ले जाने को प्रोत्साहन देते रहते हैं। लेकिन अब शिवसेना भाजपा के साथ नहीं है। महाराष्ट्र में महाविकास आघाडी की सरकार को गिराना, शिवसेना के विधायकों और सांसदों को तोड़कर अलग शिवसेना का गठन करना। 

इस पूरे घटनाक्रम के बाद उद्धव ठाकरे के समक्ष अपनी शिवसेना को फिर से खड़ी करने की चुनौती है। महाराष्ट्र और मराठी मानुष के हित के संघर्ष को आधार बनाकर ही शिवसेना का जन्म हुआ है और अब उसे यह मुद्दा भी मिल गया है कि कैसे महाराष्ट्र और मुंबई से प्रोजेक्ट्स बाहर भेज कर यहां निवेश और रोजगार के अवसर ख़त्म किये जा रहे हैं। उद्धव ठाकरे की शिवसेना गुजराती बनाम मराठी मानुष के इस वाद में अपनी ताकत को फिर तराशने की कोशिश करेगी। अँधेरी विधानसभा उप चुनाव में जिस प्रकार शिवसेना ने भाजपा को इस मुद्दे पर घेरा था वह ताजा उदाहरण है। उस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने अपने प्रत्याशी को चुनाव मैदान से हटा लिया था। ऐसे में भाजपा मुंबई महानगरपालिका पर अपनी सत्ता को स्थापित करने का ख्वाब कैसे पूरा कर सकेगी।

पिछले महीने केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह जब मुंबई में गणपति दर्शन के लिए आये थे तो उन्होंने पार्टी के प्रमुख नेताओं के साथ बैठकर मुंबई महानगरपालिका जीतने की रणनीति पर विचार विमर्श किया था। लेकिन यदि इस नए विवाद के चलते उद्धव ठाकरे की शिवसेना अपने मराठी मतदाताओं को लामबंद करने में सफल रही तो अमित शाह की रणनीतियों विफल हो सकती हैं। वैसे उद्धव ठाकरे, आदित्य ठाकरे के साथ साथ उनकी पार्टी के सभी नेताओं महाराष्ट्र के प्रोजेक्ट्स, गुजरात ले जाने के मुद्दे को हर सभाओं और कार्यक्रमों में उठाना शुरु कर दिया है। कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेता भी प्रखरता से इस मुद्दे पर अपनी बात रख रहे हैं। 

आने वाले कुछ दिनों में राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा भी महाराष्ट्र आने वाली है। इस यात्रा में शरद पवार और उद्धव ठाकरे की भी प्रमुख उपस्थिति रहने वाली है। यानी महाराष्ट्र में विपक्ष एक मंच पर नजर आएगा और यह एकजुटता यदि जमीनी तौर हो जाती है तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय जनता पार्टी की राह आसान होगी।

ग्राम पंचायतों और जिला परिषदों के चुनावी नतीजों में यह स्पष्ट संकेत हैं कि प्रदेश में अकेले भाजपा, महाविकास आघाडी का मुकाबला नहीं कर सकती। एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में शिवसेना को तोड़ने के पीछे भाजपा की यही रणनीति रही होगी कि वह महाविकास आघाडी के विकल्प के खिलाफ नया गठबंधन तैयार करे। एकनाथ शिंदे के साथ उसने सत्ता स्थापित करने के लिए शिवसेना के विधायकों व सांसदों को तो तोड़ लिया लेकिन उसे इस बात का अहसास भी है कि शिवसेना के मतदाताओं को तोड़ पाना आसान नहीं है। लिहाजा अब शिवसेना शाखा स्तर के कार्यकर्ताओं को तोड़ने की प्रक्रिया शुरु है। 

और यह खेल महाराष्ट्र के गावों, शहरों में शिवसेना कार्यकर्ताओं के साथ मारपीट या उनके खिलाफ पुलिस मामले दर्ज होने के रूप में दिखाई भी दे रहा है। देवेंद्र फडणवीस और एकनाथ शिंदे का एक ही लक्ष्य है कि कैसे अधिक से अधिक उन क्षेत्रों में शिवसेना कार्यकर्ताओं में विभाजन हो जहां उद्धव ठाकरे का प्रभाव ज्यादा है। इसके पीछे एक महत्वपूर्ण कारण है कि जल्दी ही उन्हें महानगरपालिकाओं के चुनाव कराने पड़ेंगे। 

जब भाजपा विपक्ष में थी तब वह कोरोना काल में भी महानगरपालिकाओं के चुनाव कराने के लिए महाविकास आघाडी पर दबाव डालती थी और आंदोलन करती थी। लेकिन अब सत्ता में वापसी के बाद उसकी तरफ से कोई सक्रियता इस मामले में नजर नहीं आ रही। और इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि पार्टी अपने हिसाब से अनुकूल जमीन तैयार करने के बाद ही चुनाव की घोषणा करे। ऐसे में यदि महाराष्ट्र बनाम गुजरात का वाद और अधिक गंभीर हुआ तो भाजपा और एकनाथ शिंदे की परेशानियां बढ़ सकती हैं। 

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