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मराठा आंदोलन: घरेलू राजनीति का कड़वा चौथ!

मराठा आंदोलन: घरेलू राजनीति का कड़वा चौथ!

महाराष्ट्र की मौजूदा सरकार में भी मराठा हैं, उसके पहले की सरकार में भी थे और जब सूबे में अकेले कांग्रेस की सरकार होती थी तब भी मराठा सत्ता में सर्वोपरि थे, तब मराठों को आरक्षण देने की मांग इतनी बलवती क्यों नहीं थी? अब क्यों है?

देश भर में महिलाएँ आज अपने जीवनसाथी की दीर्घायु के लिए करवा चौथ का व्रत रख रही हैं लेकिन घरेलू राजनीति में आज का दिन ‘कड़वा चौथ’ का दिन साबित हो रहा है। लोकतंत्र के दीर्घायु होने के लिए कोई राजनीतिक दल व्रत रखने के लिए तैयार नहीं है। राजनीति में लोकतंत्र के प्रति व्रती कोई नहीं बनना चाहता। लोकतांत्र कल मरता हो तो आज मर जाए।

बात महाराष्ट्र से शुरू करता हूँ। महाराष्ट्र में इन दिनों मराठा आरक्ष्ण को लेकर आग लगी हुई है। दल विशेष के जनप्रतिनिधियों के घर जलाये जा रहे हैं। सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाया जा रहा है और सरकार मूकदर्शक बनकर खड़ी हुई है। किसी की समझ में नहीं आ रहा कि इस आंदोलन के अचानक उग्र होने के पीछे कौन है और सरकार का इस आंदोलन को लेकर रवैया क्या है? मराठा आरक्षण आंदोलन से आखिर किसका फायदा और किसका नुकसान होने वाला है।

महाराष्ट्र अनेक समाज सुधारकों, बुद्धिजीवियों, योद्धाओं के लिए जाना जाता है। इतिहास में महाराज शिवाजी से लेकर डॉ. भीमराव आंबेडकर, ज्योतिबा फुले तक यहीं से आते हैं, लेकिन यहीं अब आरक्षण को लेकर आग लगी है और आग तब लगी है जब महाराष्ट्र में डबल इंजन की सरकार है। जाहिर है या तो सरकार नाकाम साबित हो रही है या फिर सरकार का इस आंदोलन को परोक्ष समर्थन है ताकि सरकार के आंतरिक गठजोड़ की खामियों और प्रशासनिक नाकामियों पर पर्दा डाला जा सके।

महाराष्ट्र की राजनीति आजकल तोड़फोड़ की राजनीति है। सत्तारूढ़ भाजपा ने सत्ता में बने रहने के लिए पहले शिवसेना को तोड़ा और बाद में एनसीपी को और जो ईंट-रोड़े मिले उसने अपना सरकारी घर बना लिया। लेकिन ये ईंट-रोड़े कब कमजोर साबित हो जायेंगे, ये महाराष्ट्र में कोई नहीं जानता। भाजपा को येन-केन महाराष्ट्र में अपनी सरकार चाहिए। महाराष्ट्र में पहले जिस शिवसेना के मुख्यमंत्री के नेतृत्व में महाराष्ट्र अघाडी गठबंधन की सरकार चल रही थी वो भी ईंट और रोड़े की ही सरकार थी। उसमें भी कांग्रेस और एनसीपी के अलावा भाजपा की अनन्य सहयोगी रही शिवसेना थी। मराठा आरक्षण आंदोलन तब भी था लेकिन आज की तरह उग्र नहीं था। आज इस आंदोलन को कोई तो है जो परदे के पीछे से ताक़त दे रहा है। कोशिश कर रहा है कि महाराष्ट्र की राजनीति में बवाल हो।

महाराष्ट्र में मराठा अगड़े हैं या पिछड़े ये सब जानते हैं। उनकी माली दशा कैसी है ये भी किसी से छिपी नहीं है। सत्ता में मराठाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले लोग भी जाने-पहचाने हैं, इन सबके रहते आरक्षण का मुद्दा अब तक ज़िंदा क्यों है, इसकी समीक्षा की जानी चाहिए। सवाल ये है कि अपने आपको मराठा कहने वाले महाराष्ट्र के तमाम नेता इस मुद्दे पर अपना रुख साफ़ क्यों नहीं करते, क्यों अपने समाज को बिखरते देख रहे हैं? महाराष्ट्र की मौजूदा सरकार में भी मराठा हैं, उसके पहले की सरकार में भी थे और जब सूबे में अकेले कांग्रेस की सरकार होती थी तब भी मराठा सत्ता में सर्वोपरि थे, तब मराठों को आरक्षण देने की मांग इतनी बलवती क्यों नहीं थी? अब क्यों है?

मुझे ये कहने में कोई संकोच नहीं है कि मराठा आरक्षण आंदोलन अवसरवादी आंदोलन है। देश के दूसरे हिस्सों में भी इसी तरह के आंदोलन होते रहे हैं। कभी जाटों के, कभी गुर्जरों के। सभी राज्यों में तत्कालीन सरकारों ने आरक्षण के इस मुद्दे को केंद्र के पाले में डाल रखा है।

आरक्षण की तमाम मांगों के संदर्भ में सरकारें और राजनीतिक दल सुप्रीम कोर्ट में मामलों को लटकाये बैठे हैं। निर्णय लेने की हिम्मत किसी में नहीं है। न न्यायपालिका में और न संसद में। इस मुद्दे को लेकर चाहे राजनीतिक दल हों या आरएसएस जैसे संगठन, हमेशा रंग बदलते रहते हैं। कभी आरक्षण का समर्थन करते हैं तो कभी विरोध। जातीय समूह इस हकीकत को समझे बिना राजनीति के हाथों का खिलौना बने हुए हैं महाराष्ट्र में भी और दूसरे राज्यों में भी। आरक्षण की मांग कब पिटारी में बंद हो जाती है और कब बाहर आ जाती है खुद मांग करने वालों को पता नहीं चलता।

महाराष्ट्र पर वापस लौटते हैं। मराठा आरक्षण आंदोलन की उग्रता के पीछे कभी-कभी मुझे जातीय जनगणना का ताजातरीन मुद्दा भी दिखाई देता है। बिहार सरकार ने ये मुद्दा पैदा किया है और कांग्रेस इस मुद्दे को ले उड़ी है। कांग्रेस ने घोषणा कर दी है कि देश में जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकारें हैं या आगे बनेंगी, इन राज्यों में जाति जनगणना कराई जाएगी। जाति जनगणना के मुद्दे पर भाजपा भ्रमित  है। भाजपा इस मुद्दे को समाज के लिए विभाजनकारी मानती है लेकिन आरक्षण के मुद्दे पर फिर गुलाटी मार जाती है। इस मुद्दे पर भाजपा महाराष्ट्र में भी उलझी है और महाराष्ट्र के बाहर पूरे राष्ट्र में भी।  

जाति जनगणना के मुद्दे के सामने राम मंदिर में रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा का महकदार धुंआ भी असर करने वाला नहीं है। भाजपा के पास राम नाम लेने के अलावा और कोई मुद्दा है भी नहीं। भाजपा के तरकस के तमाम तीर निकल चुके हैं यानी इस्तेमाल किये जा चुके हैं। मुमकिन है कि आरएसएस और भाजपा की प्रयोगशाला से मराठा आरक्षण और जाति जनगणना जैसे ज्वलंत मुद्दों की काट के लिए कोई नया मुद्दा बनाया जा रहा हो! लेकिन फिलहाल महाराष्ट्र को धधकती आग से बचाने का सबसे बड़ा मुद्दा है। यदि ये आग और फैली तो तय मानिए कि देश का एक समृद्ध राज्य भी बर्बाद हो जाएगा। मणिपुर जैसा छोटा राज्य हम पहले ही बर्बाद कर चुके हैं। आइये राष्ट्र को बचाएं, महाराष्ट्र को बचाएं, आग को फैलने से रोकें। आग बुझाएं। मराठा आंदोलन के चक्कर में मैं आज स्थापना दिवस की बधाई देना भी भूल गया था। आज जन्मा मध्यप्रदेश तमाम अलाओं-बलाओं से दूर रहे। यही कामना है।

(राकेश अचल के फ़ेसबुक पेज से)

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