उत्तर प्रदेश के 'लव जिहाद क़ानून' की कथित अभियुक्त मुरादाबाद की पिंकी की कोख यदि सचमुच सुरक्षित रह पाती है, उसे किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुँचती है तो जन्म लेने के बाद उसका अबोध शिशु अपने और अपनी माँ के ऊपर हुए शारीरिक व मानसिक आघातों का हिसाब-किताब किससे माँगेगा ‘प्रदेश' के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से जो अपनी राजनीतिक हित साधना के चलते उसके माता-पिता जैसी परिपक्व युवा दंपत्तियों को धर्म और जीवन साथी चुनने के उनके मौलिक अधिकार से उन्हें वंचित कर देते हैं मुरादाबाद पुलिस जैसी सुरक्षा एजेंसियों से, बेशक जिनका गठन संवैधानिक दायित्वों की पूर्ति के उद्देश्य से किया जाता है लेकिन जो अपने राजनीतिक आकाओं की जी हुज़ुरी में बढ़चढ़ कर भाग लेने की स्वार्थवश लालसा में अवैधानिकता की हद तक क्रूर और अमानवीय हो जाती है या अपने उस अनकहे नानी-नाना से, संतान को संपत्ति मानने की जिसकी सामंती सोच उसे माता-पिता की जगह एक निर्मम संपत्ति मालिक बना डालती है और अपनी बेटी और उसके पति के विरुद्ध शत्रुतापूर्ण तरीक़े से एफ़आईआर करवा के उन्हें गिरफ़्तार करवाने और उनके प्रेम, संवेदना और जीवन साथी बनने की आकांक्षा की हत्या करने पर आमादा हो जाते हैं
बड़े आश्चर्य की बात है कि अदालत में 'सीआरपीसी की धारा 164 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट के सामने 3 माह का गर्भ धारण करने वाली पिंकी द्वारा यह बयान देने के बावजूद कि उसने पाँच महीने पहले (24 जुलाई को) रशीद के साथ निक़ाह किया था और अदालत उसे 'नारी संरक्षण गृह' से मुक्त किये जाने का आदेश देती है, मुरादाबाद के एसपी (ग्रामीण) विद्यासागर मिश्र मीडिया के सामने यह बयान देते हैं कि अभी उसके बयान एवं शादी आदि की तिथि की जाँच की जाएगी। गोया पुलिस जुडिशियल मजिस्ट्रेट से ऊपर हो!
यूपी में इन दिनों यही हो रहा है। सारे अपराधों को नज़रअंदाज़ करके राज्य की पुलिस सिर्फ़ यही जाँचने में लगी है कि होने वाली शादियाँ कहीं 'लव जिहाद' के नाम पर बने नए अध्यादेश की जद में तो नहीं आती। ऐसा करने के लिए यदि दूसरे क़ानूनों और नागरिकों के मौलिक और संवैधानिक अधिकारों को धता बताना पड़े तो उसे कोई गुरेज़ नहीं।
6 दिसम्बर को रजिस्ट्रार ऑफ़िस में साढ़े 4 महीने पहले देहरादून में हुए अपने निक़ाह का रजिस्ट्रेशन करने को पहुँचे रशीद और पिंकी को 'बजरंग दल' के कार्यकर्ताओं ने घेर लिया।
उन्होंने उनसे बड़े हमलावर अंदाज़ में पूछताछ की कि क्या उन्होंने इस बाबत डीएम की इजाज़त ली थी वग़ैरह-वगैरह यह कहने के बावजूद कि उनका विवाह नया अध्यादेश बनने से 4 महीने पहले हुआ है और आज वे महज़ रजिस्ट्रेशन करवाने आये हैं, बजरंगियों ने उन्हें नए अध्यादेश का दोषी ठहराया और फिर उन्हें जबरन थाना कांठ ले गए।
(सांकेतिक तसवीर)
थाना पुलिस ने भी किसी तरह की तर्कसंगत पूछताछ करने की बजाय लड़की के माता-पिता को तलब किया। इसके बाद लड़की की माँ की तरफ़ से एफ़आईआर दर्ज़ हुई। लड़के और साथ में मौजूद उसके भाई को गिरफ़्तार कर लिया गया। लड़की को पुलिस हिरासत में 'महिला संरक्षण गृह' भेज दिया गया। तब से लड़का और उसका भाई जेल में हैं। लड़की पिंकी गर्भ से थी। इस सप्ताह उसे 'नारी संरक्षण गृह' से 2 बार 'ज़िला महिला अस्पताल' ले जाया गया। उसे रक्तस्राव जारी था। उसके ससुराल वालों ने 'नारी संरक्षण गृह' में गर्भपात करवाए जाने का संदेह व्यक्त किया था। सरकारी जाँच में ऐसा नहीं पाया गया। दोबारा रक्तस्राव होने पर जुडिशियल मजिस्ट्रेट ने मेडिकल कॉलेज में दोबारा जाँच करवाने का आदेश दिया है।
इन पंक्तियों के लिखे जाने तक जाँच जारी है।
अब यहाँ 2 सवाल बड़ी गंभीरता से उठते हैं
(1) रजिस्ट्रार कार्यालय में इस दंपत्ति के आने की सूचना 'बजरंग दल' कार्यकर्ताओं तक कैसे पहुँची बताया जाता है कि इन दिनों सरकार की ओर से रजिस्ट्रार कार्यालयों, यहाँ तक कि 'स्पेशल मेरिज एक्ट' करवाने वाले अतिरिक्त ज़िलाधिकारी कार्यालयों (जहाँ अंतरधार्मिक विवाह करना आज भी क़ानूनी हैं), मंदिर और मसजिदों में आदेश है कि विवाह के लिए आने वाले जोड़ों की सूचना पुलिस को दी जाए। हो यह रहा है कि पुलिस ने अपनी सीमित संख्या के चलते अपनी ड्यूटी 'बजरंग दल', 'हिन्दू सेना' जैसे राजनीतिक संगठनों की लगा दी है। मौक़े पर वे पहुँच जाते हैं।
(2) ऐसी स्थिति में जब 'सैयां भये कोतवाल तो फिर डर काहे का' के सिद्धांत को मान कर ये राजनीतिक सेनाएँ 'मौक़ा-ए-वारदात' पर पहुँच जाती हैं तो उनसे कोई यह कैसे पूछ सकता है कि यदि सचमुच क़ानून की अनुपालना नहीं हो रही तो आप कौन होते हैं इसकी जाँच करने वाले
नए अध्यादेश के अंतर्गत पहला मामला बरेली देहात में 29 नवम्बर को दायर हुआ। उस मामले में जबरन मुक़दमा बनाये जाने के आरोप पुलिस पर लगे थे। पुलिस अभी तक अपनी सफ़ाई नहीं दे सकी है। इसके बाद सीतापुर में हुए मुक़दमे में 7 लोगों को गिरफ़्तार किया गया, 14 व्यक्तियों को मऊ में और 2 के ख़िलाफ़ मुज़फ़्फ़रनगर में मुक़दमे दायर किये गए। इन सब पर कथित आरोपियों की ओर से अलग-अलग स्पष्टीकरण हैं जिनके विरुद्ध पुलिस के पास अदालत में पहुँचकर मज़बूत तर्क खड़े हो पाएँगे, इसमें संदेह है। लखनऊ का मामला पुलिस को छोड़ना पड़ा।
ऐसे मौक़े पर जब प्रदेश में अन्य जघन्य अपराधों को रोक पाने में पुलिस की सक्षमता साबित नहीं हो रही है, पुलिस अपनी सारी 'मर्दानगी' 'लव जिहाद अध्यादेश' (यह इसी नाम से लोकप्रिय है) को निबटाने में कर रही है। इस पूरे मामले में उन्हें शासन से वाहवाही मिलने की उम्मीद भी रहती है और शासन पीठ ठोंकता ही है क्योंकि आख़िरकार यह तो उसी का रचा विधान है।