लखनऊ में प्रियंका गाँधी वाड्रा के शानदार रोड शो ने लगभग सुन्न पड़ी हुई उत्तर प्रदेश कांग्रेस में नई जान फूँक दी है। प्रदेश कांग्रेस के उपाध्यक्ष शिराज़ मेहंदी कुछ ऐसा ही महसूस कर रहे हैं। मेहंदी को लगता है कि प्रियंका गाँधी के स्वागत के लिए जिस तरह लखनऊ और आस-पास के इलाक़ों के कार्यकर्ता घर से बाहर आए, उसी तरह जब वह दूसरे क्षेत्रों में जाएँगी तो उन क्षेत्रों के कार्यकर्ता उठ खड़े होंगे और इस तरह कांग्रेस को एक नया जीवन मिल जाएगा।
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मेहंदी के अनुसार कांग्रेस के निराश कार्यकर्ताओं में आशा की नई किरण जगाना इस वक़्त की सबसे बड़ी ज़रूरत है। लखनऊ एयरपोर्ट से प्रियंका का रोड शो क़रीब 2 बजे शुरू हुआ और लगभग 15 किलोमीटर का सफ़र 4 घंटों से ज़्यादा समय में पूरा हुआ।
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रोड शो में जुटे कार्यकर्ता
रोड शो से पहले पार्टी का अनुमान था कि यात्रा क़रीब दो घंटे में पूरी हो जाएगी। लेकिन जगह-जगह बेशुमार भीड़ के कारण केंद्रीय लखनऊ में पार्टी मुख्यालय तक का सफ़र चार घंटे से ज़्यादा समय में तय हुआ। इस शो में पार्टी के अध्यक्ष राहुल गाँधी, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रभारी ज्योतिरादित्य सिंधिया और प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर भी शामिल थे। कांग्रेस महासचिव और पूर्वी उत्तर प्रदेश की प्रभारी बनने के बाद प्रियंका की यह पहली लखनऊ यात्रा थी।
- लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कपूर का कहना है कि प्रियंका के आने से कांग्रेसियों का मनोबल बढ़ा है और यही सबसे महत्वपूर्ण बात है। कांग्रेस के लिए यह महत्वपूर्ण इसलिए भी है कि लंबे समय से कांग्रेसी प्रदेश में निराशा के शिकार हैं।
प्रदेश में बैकफ़ुट पर है कांग्रेस
क़रीब 30 सालों से उत्तर प्रदेश की राजनीति पूरी तरह से जातियों के ख़ेमे में बँटी हुई है और तभी से प्रदेश में कांग्रेस की हालत पस्त है। लेकिन जातियों के पुराने ख़ेमे टूटते भी हैं और नए खेमे बनते भी हैं। अस्सी-नब्बे के दशक की तीन घटनाओं के बाद उत्तर प्रदेश में कांग्रेस हाशिये पर फ़िसल गई और तब से बैकफ़ुट पर ही है। इसमें पहली घटना है कांशीराम का दलित आंदोलन, जिसने आगे चलकर बहुजन समाज पार्टी और मायावती को खड़ा किया। इस आंदोलन ने दलितों को कांग्रेस से अलग कर दिया। आगे चल कर राम जन्मभूमि आंदोलन ने सवर्ण ख़ासकर ब्राह्मणों को कांग्रेस से काट डाला और भारतीय जनता पार्टी को पैर ज़माने का मौक़ा मिल गया।
- पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन के आधार पर पिछड़ों को आरक्षण देने की पहल की तो इसके बाद मुलायम सिंह यादव और समाजवादी पार्टी एक बड़ी ताक़त के रूप में सामने आए। इन तीनों झटकों से उत्तर प्रदेश कांग्रेस अब तक संभल नहीं पाई है।
बिखरती चली गई कांग्रेस
नब्बे के दशक में ही कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में पिछलग्गू का रोल स्वीकार कर लिया। 1996 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने बहुजन समाज पार्टी से समझौता किया। प्रदेश की 403 सीटों में से तीन सौ सीटें तो BSP के खाते में गईं। क़रीब 100 सीटों पर कांग्रेस खड़ी हुई। इसके बाद से कांग्रेस बिखरती ही चली गई। कांग्रेस के अनेक नेता बीजेपी, समाजवादी पार्टी और बीएसपी में चले गए। एक समय ऐसा भी आया जब दलितों के साथ ब्राह्मण भी कांग्रेस का साथ छोड़कर बीएसपी के समर्थक बन गए। इसके बूते पर ही 2007 में मायावती ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई।
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5 साल में कमज़ोर हुई पार्टी
2009 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की स्थिति थोड़ी सुधरी। अकेले दम पर चुनाव लड़कर कांग्रेस ने लोकसभा की 22 सीटों पर जीत दर्ज की। 2014 की मोदी लहर में सफ़ाया होने के बाद कांग्रेस फिर आसान रास्ते की तलाश में समाजवादी पार्टी से जुड़ी। 2017 का विधानसभा चुनाव दोनों ने मिलकर लड़ा, इसके बावजूद कांग्रेस विधानसभा की महज़ सात सीटों तक सिमट गई जबकि 2012 में उसके पास 28 सीटें थीं।
- 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए भी कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी से गठबंधन के लिए लालायित थी लेकिन सपा और बसपा ने ही कांग्रेस को ठुकरा दिया।
परखा हुआ विकल्प है कांग्रेस : मेहंदी
यूपी कांग्रेस के उपाध्यक्ष शिराज़ मेहंदी का कहना है कि मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग बीजेपी, सपा और बसपा तीनों की राजनीति से नाराज़ है और उसके पास पुराना, परखा हुआ विकल्प कांग्रेस ही है। धर्म और जाति दोनों से ऊपर उठकर राजनीति करने के कारण कांग्रेस के लिए उम्मीद अभी बाक़ी है। मेहंदी मानते हैं कि कांग्रेस को अकेले लड़ना चाहिए और प्रियंका गांधी की भूमिका इस दिशा में महत्वपूर्ण हो सकती है।
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पूर्वांचल में देंगी चुनौती
प्रियंका को पूर्वी उत्तर प्रदेश का इंचार्ज बनाया गया है और इससे इस इलाक़े में आने वाली सीटों में कांग्रेस की स्थिति अच्छी हो सकती है। सोनिया गाँधी की रायबरेली और राहुल की अमेठी सीट भी इसी इलाक़े में हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वाराणसी सीट भी इसी इलाक़े में आती है।
- पूर्वांचल से चली मोदी लहर पूरे उत्तर प्रदेश पर छा गई। लेकिन दूसरी तरफ़ इसी इलाक़े में गोरखपुर और फूलपुर के लोकसभा चुनाव उपचुनावों में बीजेपी को हराकर मतदाताओं ने संकेत दे दिया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए सब कुछ अच्छा नहीं है।
क्या सीएम चेहरा होंगी प्रियंका?
लोकसभा चुनावों में कुल जमा 2 महीने बचे हैं। इन चुनावों पर प्रियंका की छाप दिखाई दे या नहीं लेकिन 2022 के विधानसभा चुनावों तक उन्हें काम करने का काफ़ी समय मिल जाएगा और तब वह उत्तर प्रदेश में एक नई राजनीति की शुरुआत कर सकती हैं। वैसे, कांग्रेसियों का एक वर्ग अभी से चर्चा करने लगा है कि प्रियंका गाँधी को 2022 के चुनावों में मुख्यमंत्री पद का दावेदार बनाया जाना चाहिए।