सपा और बसपा से मिले झटके से कांग्रेस अभी उबर भी नहीं पाई है कि दक्षिण में उसके सहयोगी दलों ने नई परेशानियाँ पेश करनी शरू कर दी हैं। कर्नाटक में जेडीएस ने लोकसभा चुनावों में एक-तिहाई सीटों की माँग कर डाली है। जेडीएस कर्नाटक की 28 लोकसभा सीटों में से 10 पर लड़ना चाहती है। जबकि कांग्रेस के नेता उसे 6 से ज़्यादा सीटें देने के पक्ष में नहीं हैं। कर्नाटक के कांग्रेसी नेताओं का कहना है कि जेडीएस का प्रभाव सिर्फ़ दक्षिण कर्नाटक में है और वह भी मैसूर, मांड्या, हासन, चामराजनगर और बेंगलुरू ग्रामीण में ही है। इन नेताओं के मुताबिक़ जेडीएस अकेले दम पर 3 सीटें भी नहीं जीत सकती है। लेकिन, कम से कम दस सीटें हासिल करने के लिए जेडीएस ने दबाव की राजनीति शुरू कर दी है। जेडीएस के नेता और मुख्यमंत्री कुमारस्वामी ने अपने ताज़ा बयान में कहा है कि कांग्रेस उसे तीसरे दर्ज़े का नागरिक समझ रही है। कुमारस्वामी का कहना है कि गठबंधन का धर्म एक-दूसरे का सम्मान करना होता है और लेना-देना सम्मानपूर्वक होना चाहिए।
इससे पहले भी कुमारस्वामी खुले तौर पर कांगेस के ख़िलाफ़ अपनी नाराज़गी ज़ाहिर कर चुके हैं। उनका आरोप है कि कांग्रेस के कुछ नेता सरकार के कामकाज में ग़ैर-ज़रूरी दख़लअंदाज़ी कर रहे हैं, जिसकी वजह से वह सही तरह से काम नहीं कर पा रहे हैं। वैसे भी कर्नाटक में चुनाव बाद बने गठबंधन की सरकार में शामिल दोनों दलों- कांग्रेस और जेडीएस में तल्ख़ी रही है।
चूँकि लोकसभा चुनाव सिर पर हैं और सपा और बसपा ने कांग्रेस को दरकिनार किया है, जेडीएस भी ज़्यादा से ज़्यादा लोकसभा सीटें हासिल करने की जोड़तोड़ में है। जेडीएस के नेताओं को यही सबसे अच्छा मौक़ा दिखाई देता है। ख़ास बात यह भी है कि कांग्रेस को जेडीएस की ज़रूरत ज़्यादा है।
जेडीएस के अकेले चुनाव लड़ने से कांग्रेस को नुक़सान होने और बीजेपी को ज़्यादा सीटें मिलने की संभावना है। कांगेस को इसका भी डर है कि कहीं जेडीएस बीजेपी के साथ न चली जाए। चूँकि मौजूदा स्थिति जेडीएस के ही अनुकूल है, वह कांग्रेस को अपनी बात मनवाने के लिए दबाव बना रही है।
तेलंगाना : पसोपेश में कांग्रेस
उधर, तेलंगाना में भी कांग्रेस सहयोगी पार्टियों को लेकर पसोपेश में है। हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में महागठबंधन का प्रयोग नाकाम होने की वजह से कुछ नेता इस बार लोकसभा में बिना किसी पार्टी के साथ गठबंधन के, अकेले चुनाव में उतरने की सिफ़ारिश कर रहे हैं। कुछ नेताओं ने कहना भी शुरू कर दिया है कि चंद्रबाबू नायडू की तेलुगु देशम पार्टी से गठजोड़ करने की वजह से तेलंगाना की जनता ने कांग्रेस को नकार दिया। इन नेताओं का कहना है कि अगर कांग्रेस चंद्रबाबू नायडू का साथ नहीं लेती तो उसे ज़्यादा सीटें मिलती क्योंकि तेलंगाना की जनता अब चंद्रबाबू को 'बाहरी' मानती है।
आंध्रप्रदेश में पार्टी अकेली
आंध्रप्रदेश में तेलुगु देशम पार्टी कांग्रेस के साथ गठजोड़ नहीं करेगी। यानी कांग्रेस को आंध्र में भी अकेले चुनाव लड़ना पड़ेगा। तेलुगु देशम कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ेगी, इसके संकेत मिलने शुरू हो गए हैं।
तेलुगु देशम पार्टी के संस्थापक एन टी रामाराव के जीवन पर बनी फ़िल्म में दिखाया गया है कि कांग्रेस की नीतियों का विरोध करने के लिए ही तेलुगु देशम का गठन किया गया। इस फ़िल्म के निर्माता रामा राव के बेटे और तेलुगु देशम के विधायक बालाकृष्णा हैं। सूत्र यह भी बताते हैं कि चंद्रबाबू ने सभी सीटों पर अपने उम्मीदवारों का चयन शुरू कर दिया है। इससे भी बड़ी बात, कांग्रेस और तेलुगु देशम के बीच सीटों के बँटवारे को लेकर अब तक एक बार भी बैठक ही नहीं हुई है। ग़ौर करने वाली बात यह है कि आंध्रप्रदेश विधानसभा के चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ होंगे।
सिर्फ़ तमिलनाडु से राहत
कांग्रेस के लिए राहत की बात तमिलनाडु से है। जहाँ डीएमके के नेता स्टालिन ने राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाने की वकालत की है। लेकिन हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक बयान ने तमिलनाडु में भी कांग्रेस की चिंताएँ बढ़ा दी हैं। मोदी ने कहा था कि बीजेपी अपने पुराने साथियों से दुबारा हाथ मिलाने के लिए तैयार है। मोदी का इशारा डीएमके की तरफ़ था। एक समय डीएमके एनडीए में शामिल थी। केरल में ही कांग्रेस बेहतर स्थिति में है। फ़िलहाल उसे किसी सहयोगी दल से कोई कड़वी बात सुनने को नहीं मिली है। महत्वपूर्ण बात यह है कि दक्षिण के पाँचों राज्यों - तेलंगाना, आंध्र, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल में क्षेत्रीय पार्टियों का ही दबदबा है।
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