आम चुनाव के कुछ महीने पहले विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी को रैली, जनसभा और पदयात्रा करने से रोकने की कोशिश कर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी उनके लोकतांत्रिक अधिकारों पर चोट कर रही हैं। यह राज्य की राजनीति में नया तो है ही, सत्तारूढ़ दल और तेजी से पाँव पसार रही बीजेपी के बीच चल रही ज़बरदस्त लड़ाई भी इससे खुल कर सामने आ रही है। ममता ऐसा क्यों कर रही हैं, यह सवाल लाज़िमी है।
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इसकी वजहें राजनीति की बिसात पर चल रहे शह और मात के खेल में वह रणनीति है, जिसमें पश्चिम बंगाल बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस के बीच की लडाई की बड़ी रणभूमि बनने जा रहा है। बीजेपी यह अच्छी तरह जानती है कि अगले लोकसभा चुनाव में उसे उत्तर प्रदेश और पूर्वोत्तर ही नहीं, दूसरे कई राज्यों में सीटों का भारी नुक़सान होने जा रहा है। अब तक हुए सभी चुनाव पूर्व सर्वेक्षण बता रहे हैं कि बीजेपी ही नहीं, उसकी अगुआई वाला गठबंधन एनडीए भी बहुमत पाने में नाकाम होगा। ऐसे में बीजेपी पश्चिम बंगाल पर फ़ोकस इसलिए भी कर रही है कि यहां उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के बाद सबसे अधिक लोकसभा सीटें हैं। वह चाहती है कि यहां की 42 सीटों में ज़्यादा से ज़्यादा झटक लिया जाए। दूसरी ओर तृणमूल कांग्रेस का लक्ष्य है कि वह पश्चिम बंगाल से जीती गई मौजूदा 34 लोकसभा सीटें बढ़ा न पाए तो कम के कम बरकरार रखे ताकि त्रिशंकु लोकसभा बनने की स्थिति में ममता बनर्जी विपक्ष के प्रधानमंत्री उम्मीदेवार के लिए अपना दावा ठोक सकें।
बीजेपी पश्चिम बंगाल से सफलता की उम्मीद इसलिए भी कर रही है कि पिछले कई चुनावों में उसका प्रदर्शन काफी अच्छा रहा है और वह राज्य का राजनीतिक परिदृश्य बदलने में कामयाब रही है। राज्य की राजनीति में हमेशा हाशिए पर रहने वाली बीजेपी को पिछले लोकसभा चुनाव यानी 2014 में 87 लाख वोट मिले, जो कुल पड़े वोट का लगभग 16 प्रतिशत था। यहाँ पार्टी ने आसनसोल और दार्जिलिंग की सीटें भी जीतीं। यह 2009 के चुनाव की तुलना में बहुत ही अच्छा प्रदर्शन था। उस चुनाव में बीजेपी को 26 लाख से थोड़ा ज़्यादा वोट मिले थे, जो कुल वोट का तक़रीबन 6 प्रतिशत था। साल 2016 में हुए राज्य विधानसभा चुुनावों में पार्टी का वोट शेयर गिरा और उसे लगभग 10 प्रतिशत वोट ही मिले। लेकिन उसके बाद हुए पंचायत चुनावों में ऐसी सैकड़ों सीटें थीं, जिन पर दूसरे नंबर की पार्टी बीजेपी थी। इसे इससे भी समझा जा सकता है कि राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी के साथ हुई हिंसक झड़पों में निशाने पर ज़्यादातर जगहों पर बीजेपी थी, वामपंथी पार्टियाँ नहीं।
यह बिल्कुल साफ़ हो गया किसी समय पश्चिम बंगाल की राजनीति में अछूत समझी जाने वाली बीजेपी का जनाधार फैल रहा है, उसका वोट शेयर बढ़ रहा है, वह आक्रामक हो रही है और सीपीएम-कांग्रेस ही नहीं, तृणमूल भी उसे रोकने में ख़ुद को असहाय पा रही हैं।
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पश्चिम बंगाल में हुए पंचायत चुनावों तक यह साफ़ हो गया कि राज्य में मुख्य विपक्षी दल के रूप में बेजीपी तेज़ी से उभर रही है। इसकी पृष्ठभूमि में बीते कई सालों की वह राजनीति थी, जिसमें वामपंथी ताक़तों का पराभव हो गया, कांग्रेस किनारे हो गई और तृणमूल कांग्रेस केंद्र में आ गई। तृणमूल कांग्रेस ने वामपंथियों को बुरी तरह पटखनी दी थी और सत्ता पर काबिज हो गई थी। वामपंथी दल सिर्फ सत्ता से ही दूर नहीं हुए, वे जन मानस से भी दूर हो गए और लगभग अप्रासंगिकता की ओर बढ़ गए।
भारतीय मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी समेत तमाम वाम-उदारवादी दलों का आधार तेज़ी से सिकुड़ा और कांग्रेस पार्टी के बड़े आधार पर तृणमूल कांग्रेस ने कब्जा कर लिया। वामपंथी दल बदले हुए राजनीतिक परिदृश्य में न तो खुद को बदल पा रहे हैं, न ही अपने लिए नई भूमिका तलाश रहे हैं।
यह परिस्थिति बीजेपी की राजनीति के लिए अनुकूल इसलिए भी है कि शेष भारत में चल रही हिन्दुत्व की राजनीति की लहर पश्चिम बंगाल के शांत किनारे को भी छूने लगी। हिन्दुत्व की राजनीति के पश्चिम बंगाल में दस्तक देने को इससे भी समझा जा सकता है कि मोटे तौर पर सांप्रदायिक सद्भाव का मिसाल बने रहने वाले पश्चिम बंगाल में बीते दो-तीन साल में कई छोटे-मोट दंगे हुए, कई बार सांप्रदायिक तनाव हुआ और कई सांप्रदायिक झड़पें हुईं।
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- 1.इसकी पहली धमक 2 दिसंबर 2015 को सुनाई पड़ी थी, जब हिन्दू महासभा के कमलेश तिवारी ने पैगंबर मुहम्मद के ख़िलाफ़ कथित तौर पर कुछ कहा था, कालियाचक में दंगे भड़के और प्रशासन को धारा 144 लगानी पड़ी थी। स्थानीय लोगों ने बीएसएफ़ के जवानों पर हमले भी किए थे।
- 2.इसी तरह फ़ेसबुक पोस्ट में पैगंबर के बारे में कुछ कहने के बाद 1 मार्च 2016 को मालदह के इलम बाज़ार इलाक़े में दंगा भड़का, एक आदमी मारा गया और तीन ज़ख़्मी हुए।
- 3.इसी साल 12 अक्टूबर को हाजीनगर में मुहर्रम के जुलूस और दुर्गापूजा प्रतिमा विसर्जन के मुद्दे पर झड़पें हुईं।
- 4.राजधानी कोलकाता से सटे हावड़ा के धूलागढ़ में पैगंबर के जन्मदिन मीलाद-उन-नबी के मौक़े पर 13 दिसंबर को दंगा भड़का।
- 5.इसके कुछ दिन बाद ही कोलकाता के मटियाबुर्ज़ इलाक़े में मंदिर के बाहर बीफ़ फेंका गया, दंगा भड़का।
- 6.मिदनापुर ज़िले के खड़गपुर में रावणदहन के मौके पर हिंसा हुई। साल 2017 और 2018 में इस तरह की कई वारदातें हुईं।
- 7.पिछले साल यानी 2018 में दुर्गा प्रतिमा विर्सजन के दिन ही मुहर्रम था और ममता सरकार ने विसर्जन पर रोक लगा दी। बड़ी वारदात होते-होते टली।
धूलागढ़ दंगों के दौरान बीएसएफ़ पर हमले हुए।
यह सूची लंबी है। ये वारदातें बिल्कुल स्थानीय स्तर पर हुईं, जिन पर स्थानीय प्रशासन ने मुस्तैदी से क़ाबू पा लिया, पर ये सब यहां के लिए नया है। यह पश्चिम बंगाल की नयी राजनीति है, जिसमें वाम-उदारवादी दल हाशिए पर हैं, सेंटर टू लेफ़्ट समझे जाने वाले कांग्रेस के आधार में सेंध लग चुकी है। ख़ुद को राष्ट्रवादी कहते हुए सांप्रदायिकता की राजनीति करने वाली बीजेपी तेजी से बढ रही है। ममता बनर्जी पर आरोप लग रहा है कि वह भी मुसलिम तुष्टीकरण में लगी हुई हैं। उनके कई फ़ैसले इस आरोप की वजह बने हैं।
कालियाचक में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई।
यह बीजेपी की राजनीति के लिए बिल्कुल मुफ़ीद है। उसने अगले लोकसभा चुनाव में पूरा ध्यान पश्चिम बंगाल पर देने का फ़ैसला किया है। पार्टी ने फ़रवरी से चुनाव के पहले तक 300 रैलियों का कार्यक्रम बनाया है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की रैलियाँ हाल फ़िलहाल ही हुई हैं। योगी आदित्यनाथ जिस तरह खुले आम मुसलमानों के ख़िलाफ़ बयान देते हैं और पूरे कैबिनेट के साथ कुंभ स्नान करते हैं, उन्हें रोकने की ममता बनर्जी की कोशिश अचरज से भरा नहीं है।
बीजेपी की राजनीति ममता को भी कहीं न कहीं मजबूत करती है। वह ऐसा माहौल बनाना चाहती हैं जिसमें वह और उनकी पार्टी धर्मनिरपेक्ष ताक़तों का एक मात्र झंडाबरदार बन कर उभरे। वह जनता को यह समझा सकें कि बीजेपी और नरेंद्र मोदी को राज्य में रोकने की ताक़त सिर्फ़ उन्हीं में हैं।
राज्य की यह राजनीति ममता बनर्जी की महात्वाकांक्षा बढा रही है तो इसमें कोई अचरज की बात नहीं है। कोलकाता के ब्रिगेड परेड मैदान में लाखों की भीड़ के सामने 22 दलों के 25 नेताओं का जमावड़ा इस रणनीति का ही हिस्सा था। इसी रणनीति को आगे बढ़ाते हुए ममता बनर्जी ने कोलकाता पुलिस कमिश्नर के आवास पर सीबीआई टीम के पहुँचने को लपक लिया। उन्होंने इसे पश्चिम बंगाल बनाम केंद्र और संघ परिवार बनाम धर्मनिरपेक्ष दल ही नहीं, संविधान के संघीय ढाँचे पर मोदी सरकार के हमले के रूप में स्थापित करने की भरपूर कोशिश की।
ममता बनर्जी बीजेपी के तमाम नेताओं को राज्य में नहीं घुसने देने की कोशिश कर ध्रुवीकरण की राजनीति को हवा दे रही हैं, जो बीजेपी के लिए ही नहीं, उनकी अपनी राजनीति के लिए भी अच्छा होगा, क्योंकि वह पूरी लड़ाई को तृणमूल बनाम बीजेपी बनाना चाहती हैं। वह यह संदेश भी देना चाहती है कि बीजेपी की सांप्रदायिक राजनीति को हिम्मत से रोक पाने की क्षमता विपक्ष में केवल उनमें हैं। किसी जमाने में आडवाणी की रथयात्रा रोक लालू यादव ने अपने आपको जिस तरह धर्मनिरपेक्षता के झंडबरदार के रूप में स्थापित कर लिया था, ममता वैसा ही चाहती हैं। वह इसमें कितना कामयाब होती हैं, यह कुछ दिन बाद ही साफ़ हो पाएगा।