यह एक चिथड़ा सुख की तलाश नहीं है
जिन दो उपन्यासों ने एक दौर में मेरे भीतर अपनी बहुत गहरी छाप छोड़ी- और जिन्हें बार-बार पढ़ने की इच्छा होती है- उनमें एक फणीश्वर नाथ रेणु का ‘परती परिकथा’ है और दूसरा निर्मल वर्मा का ‘एक चिथड़ा सुख’। हालाँकि ये दोनों एक-दूसरे से नितांत भिन्न आस्वाद की कृतियां हैं- एक में आंचलिक आभा है तो दूसरे में महानगरीय वैभव। एक की कथा पूर्णिया के परानपुर नाम के पिछड़े गांव में घूमती है तो दूसरे के चरित्र दिल्ली के संभ्रांत ठिकानों में भटकते हैं। एक में सामूहिकता के उत्सव के बीच भविष्य की कल्पना है तो दूसरे में अपनी एकांतिकता की अपने वर्तमान से मुठभेड़ का यथार्थ। एक में पचास के दशक में देखा गया विकास का नेहरूवादी सपना है तो दूसरे में ऐसा कोई सपना नहीं है, बस एक कशमकश है और एक बेचैन पड़ताल- एक चिथड़ा सुख की स्मृति की, या उसकी तलाश की।
लेकिन दो नितांत भिन्न कृतियों में वह कौन सी एक समान चीज़ होती है जो किसी पाठक को फिर भी आकृष्ट करती है? इस सवाल का जवाब आसान नहीं है। इस पर विचार करते हुए मुझे यह खयाल आता है कि रेणु और निर्मल वर्मा दोनों व्यक्ति के अंतर्जगत के भी अद्भुत चितेरे हैं। बल्कि अपनी जड़ों से टूटने और फिर उन्हें खोजने की कसक उनके किरदारों को भटकाती रहती है। ‘परती-परिकथा’ का नायक जित्तन मिश्र ऐसा ही किरदार है- देश और समाज को बदलने की चाहत और इसे बदलने निकले लोगों की हक़ीक़त उसे जड़ों से भी काट देती है और बाक़ी दुनिया से भी। अलग-अलग ग्राम प्रांतरों में घूमते हुए, सितार बजाने से लेकर पत्रकारिता करते हुए, अंततः वह जड़ों की तलाश में गांव लौटा है। गांव वाले उसे पागल कहते हैं।
इरावती भी विभाजन की चोट खाई भटकती हुई एक लड़की है जो अपने परती-पुत्तर को खोज रही है। बल्कि विकास की हवा में गांव की चूलें भी उखड़ गई हैं। सर्वे की आंधी में सब उड़ रहे हैं- रिश्ते-नाते, भरोसा और सरोकार और वह जीवन जो सामूहिकता से बना है। इस टूटन के बीच अलग-अलग चरित्र तरह-तरह की छटपटाहटों से भरे हैं- ताजमनी, मलारी, लुत्तो- सबके अपने-अपने दुख हैं- जितने सामाजिक, उतने ही निजी भी-बल्कि सारी खरोचें देह से ज़्यादा चेतना पर पड़ी हुई हैं। अपनी सारी आंचलिकता और सामाजिकता के बावजूद यह व्यक्तिगत छटपटाहट न होती तो ‘परती परिकथा’ हमारे भीतर किसी ‘तीरे नीमकश’ की तरह धंसी हुई न होती।
निर्मल वर्मा के यहाँ तो जैसे सारे के सारे चरित्र अपनी जड़ों से उखड़े हुए हैं। इलाहाबाद से आई बिट्टी अपनी बेख़याली में दिल्ली के रंगमंच में अपना ठिकाना खोज रही है। उसका भाई दर्शक भी है, भोक्ता भी और एक तरह से लेखक भी- जो सबकुछ देख और झेल रहा है।
इस मोड़ पर एक बात और विचार करने लायक है। यह जो जड़ों से कटे रहने की त्रासदी है, क्या वह कोई निजी त्रासदी है जो किन्हीं चरित्रों की आंतरिक उलझनों या मजबूरियों से पैदा हुई है? दरअसल ठीक से देखें तो अपने दूसरे हिस्से में बीसवीं सदी विस्थापित लोगों की सदी है। तरह-तरह के दबावों में गांव-घर छूटे हैं और नए इलाक़ों में अपनी पुरानी पहचान खोजते लोग यह जान कर ठिठके हुए हैं कि वे तो वे नहीं रहे जो वे हुआ करते थे।
निर्मल वर्मा इस सामाजिक त्रासदी के बीच पैदा हुई व्यक्तिगत विडंबना को लगभग एक अस्तित्ववादी बेचैनी के चरम पर ले जाते हैं। 'एक चिथड़ा सुख' का पाठ इसलिए एक अविस्मरणीय अनुभव बन जाता है। इस अविस्मरणीयता की वजहें और भी हैं। इन वजहों में उतरते हुए हम यह भी समझ पाते हैं कि बड़ी कृतियाँ अंततः अद्वितीय ढंग से मौलिक होती हैं, कि ‘परती-परिकथा’ और ‘एक चिथड़ा सुख’ के बीच के समान तत्वों की खोज या उनकी प्राप्ति के बावजूद दोनों एक-दूसरे से नितांत भिन्न रचनाएं हैं।
निर्मल वर्मा के चरित्र जैसे आधुनिक सभ्यता के बियाबान में छटपटाते चरित्र हैं। वे सब ख़ुद को खोज रहे हैं, अपनी जगह खोज रहे हैं।
‘एक चिथड़ा सुख’ की नायिका बिट्टी इलाहाबाद से दिल्ली आई है। वह रंगमंच के अलग-अलग चरित्रों को जीती हुई जैसे अपने ही जीवन के मायने तलाश रही है। उसे एहसास है कि कुछ है जो खो गया है। इस एहसास को निर्मल वर्मा जिस सहजता और संवेदनशीलता के साथ उपन्यास में जगह देते हैं, वह भी दृष्टव्य है। बिट्टी और उसका कजिन सोने से पहले चुप्पी और संवाद के बीच आवाजाही कर रहे हैं- कुछ स्मृतियों का सिरा पकड़ कर और कुछ वर्तमान के दुखों के रेशे खोलते हुए। निर्मल वर्मा ने इसका वर्णन कुछ इस तरह किया है:
"कुछ देर बाद स्लीपिंग बैग हिला, मुंह बाहर निकला, छोटी सी आवाज़ आई, 'मुन्नू?'
'हूं', उसने करवट ली।
'तुम क्या सोचते हो, अगर वह ज़िंदा होतीं, तो मुझसे बहुत निराश हो जातीं?'
'बिट्टी,' उसका स्वर न जाने क्यों बहुत रुंधा सा हो आया। 'वह तुम्हें बहुत मानती थीं।'
'मुझे नहीं... वह लड़की कोई और थी।'
'और तुम... तुम कौन हो?'
'मैं'...-उसने बहुत धीमे से कहा। 'मैं उसे ही ढूंढ़ने दिल्ली आई थी'। "
यह त्रासदी है जो उपन्यास में जैसे हर किसी के साथ घटित हो रही है। लंदन से हिंदुस्तान के लिए चली इरा पा रही है कि वह हिंदुस्तान में नहीं थिएटर में है। वह लौट जाना चाहती है। यह भी साफ नहीं है कि वह क्यों आई थी। क्या उसे शादीशुदा नित्ती भाई का प्रेम खींच लाया था? और नित्ती भाई? वे जैसे खुद कई दुनियाओं में, कई किरदारों में बंटे हुए हैं।
इसी तरह डैरी हैं- दिल्ली में एक रईस बाप के बेटे जो बिहार से भटकते हुए रंगमंच में चेखव और स्ट्रिनबर्ग के बीच भटक रहे हैं।
निर्मल वर्मा ने यह कहानी बहुत मनोयोग से लिखी है। कुल चार-पांच मुख्य किरदारों के बीच घूमती इस कहानी में छठा किरदार दिल्ली नाम का वह शहर है जहाँ ये सब अपने-अपने हिस्से की भूमिकाएँ खोजने इकट्ठा हुए हैं। वैसे तो दिल्ली बहुत सारे लोगों की है- एक दौर में हुए बादशाहों की है, एक दौर में हुए शायरों की है, लेकिन एक दिल्ली निर्मल वर्मा भी बनाते हैं- वह दिल्ली जहाँ सब अपनी-अपनी पहचान और अपना-अपना मक़सद ढूढ़ने आए हैं। मंडी हाउस, बाराखंबा रोड, निज़ामुद्दीन, ओडियन सिनेमा, माल रोड- ये दिल्ली के नक़्शे पर दर्ज जगहों के नाम भर नहीं हैं, निर्मल वर्मा के उपन्यास के भीतर इनके किरदारों के वे ठिकाने भी हैं जहां से गुज़रते हुए ये सब खुद को बार-बार खो देते, खोजते और फिर पहचानने की कोशिश करते हैं।
यही वह मोड़ है जहां ‘एक चिथड़ा सुख’ फिर से ‘परती परिकथा’ की याद दिलाता है।
यह त्रासदी है जो उपन्यास में जैसे हर किसी के साथ घटित हो रही है। लंदन से हिंदुस्तान के लिए चली इरा पा रही है कि वह हिंदुस्तान में नहीं थिएटर में है। वह लौट जाना चाहती है। यह भी साफ नहीं है कि वह क्यों आई थी। क्या उसे शादीशुदा नित्ती भाई का प्रेम खींच लाया था? और नित्ती भाई? वे जैसे खुद कई दुनियाओं में, कई किरदारों में बंटे हुए हैं।
इसी तरह डैरी हैं- दिल्ली में एक रईस बाप के बेटे जो बिहार से भटकते हुए रंगमंच में चेखव और स्ट्रिनबर्ग के बीच भटक रहे हैं।
निर्मल वर्मा ने यह कहानी बहुत मनोयोग से लिखी है। कुल चार-पांच मुख्य किरदारों के बीच घूमती इस कहानी में छठा किरदार दिल्ली नाम का वह शहर है जहाँ ये सब अपने-अपने हिस्से की भूमिकाएँ खोजने इकट्ठा हुए हैं। वैसे तो दिल्ली बहुत सारे लोगों की है- एक दौर में हुए बादशाहों की है, एक दौर में हुए शायरों की है, लेकिन एक दिल्ली निर्मल वर्मा भी बनाते हैं- वह दिल्ली जहाँ सब अपनी-अपनी पहचान और अपना-अपना मक़सद ढूढ़ने आए हैं। मंडी हाउस, बाराखंबा रोड, निज़ामुद्दीन, ओडियन सिनेमा, माल रोड- ये दिल्ली के नक़्शे पर दर्ज जगहों के नाम भर नहीं हैं, निर्मल वर्मा के उपन्यास के भीतर इनके किरदारों के वे ठिकाने भी हैं जहां से गुज़रते हुए ये सब खुद को बार-बार खो देते, खोजते और फिर पहचानने की कोशिश करते हैं।
यही वह मोड़ है जहां ‘एक चिथड़ा सुख’ फिर से ‘परती परिकथा’ की याद दिलाता है।
यह सवाल पूछने की इच्छा होती है कि अगर ‘परती-परिकथा’ एक आंचलिक उपन्यास है तो ‘एक चिथड़ा सुख’ क्यों नहीं। क्या इसलिए कि दिल्ली देहात जैसी नहीं लगती और इस उपन्यास के किरदारों की भाषा में वह भदेसपन नहीं है जिसे हम अमूमन आंचलिकता के साथ जोड़ने के आदी हो गए हैं?
लेकिन अगर अपने इस अभ्यास को कुछ देर के लिए स्थगित कर सकें तो हम पाएंगे कि निर्मल वर्मा का उपन्यास भी ठेठ आंचलिक उपन्यास है- बस इसलिए नहीं कि इसमें दिल्ली का भूगोल या नक़्शा मिलता है, बल्कि इसलिए कि यह उपन्यास बस दिल्ली में ही घट सकता था- एक ऐसे महानगर में जो बाहर से इतना समृद्ध और संवेदनशील दिखाई पड़ता है कि किसी को अपने खोए हुए वजूद की तलाश के लिए बुला सकता है और भीतर से इतना तंगदिल और खोखला साबित होता है कि वह हर किसी को ख़ाली हाथ लौटा सकता है।
लेकिन क्या वाक़ई यही सच है? क्या निर्मल वर्मा ने जो दिल्ली रची है वह इतनी हृदयहीन है कि सबको ख़ाली हाथ लौटा देती है? इस मोड़ पर निर्मल वर्मा फिर उस्ताद लेखक साबित होते हैं। यह उनके लेखन का करिश्मा है कि यह दिल्ली जैसे हमारे भीतर भी धंसती-बसती चली जाती है, हम इस दिल्ली से मोहब्बत करने लग जाते हैं। दरअसल, यहाँ पता चलता है कि इस शहर ने आपको जितना ख़ाली कर दिया है उससे कहीं ज़्यादा भर दिया है। बिट्टी के नाटक का मंचन छोड़कर मुन्नू जब इलाहाबाद लौटेगा तो एक भिन्न व्यक्ति होगा जिसके भीतर बहुत सारी यादों का एक आबाद संसार होगा, जीवन की बहुत गहरी समझ होगी, सुख और दुख उसके जीवन में यंत्रवत आएंगे-जाएंगे नहीं, बल्कि उन्हें वह ठीक से महसूस कर सकेगा, बेशक वह उन्हें बार-बार खोजता और खोता भी रहेगा।
अंततः निर्मल वर्मा की दिल्ली वह किरदार है जो आपको चोट भी पहुँचाती है और सहारा भी देती है। उसकी वजह से जीवन व्यर्थ लगता है और उसी के साए तले जीवन के मायने खोजने की व्याकुलता भी पैदा होती है। अब 'एक चिथड़ा सुख' को दिल्ली के संदर्भ में निर्मल वर्मा का आंचलिक उपन्यास न कहें तो क्या कहें।
रंगमंच वह धागा है जो इस पूरी कथा को पिरो रहा है। निर्मल इसी रंगमंच की मार्फ़त कला में जीवन के पुनर्वास का स्वप्न भी देखते हैं और उसके बिखरते जाने की सच्चाई भी महसूस करते हैं। 500 बरस पहले शेक्सपियर का मैकबेथ अपनी छटपटाहट में चीखता है- ‘जीवन एक चलती हुई छाया है, एक कमज़ोर कलाकार जो अपने तय समय तक मंच पर ऐंठती-इठलाती है और फिर किसी को सुनाई नहीं पड़ती। यह किसी मूर्ख द्वारा सुनाई जा रही कथा है जिसमें शोर और हंगामा बहुत है, लेकिन अर्थ नहीं।‘
लेकिन जीवन के इस विराट आख्यान के समानांतर निर्मल के चरित्रों की छटपटाहट मैकबेथ के इस वक्तव्य की उदात्तता से कुछ भिन्न है। बल्कि शायद वे ‘मर्चेंट ऑफ़ वेनिस’ के ऐंटोनियो की याद दिलाते हैं- ‘मैं दुनिया को एक रंगमंच की तरह देखता हूँ ग्रैटियानो जिसमें हर कोई अपनी भूमिका अदा कर रहा है, और मेरे हिस्से एक उदास किरदार है।‘ यह उदासी निचाट अकेलेपन से, या किसी अन्य संशय से पैदा हुई उदासी नहीं है- यह फिर इस आकुलता से जन्मी है कि उनके भीतर कुछ है जो बाहर नहीं आ रहा है, कुछ है जो अव्यक्त रह जा रहा है, कुछ है जिसे दूसरे ढंग से जिया जाना था। रिहर्सल के दौरान वे कुछ से कुछ हो जाते हैं। मुन्नू न बिट्टी को ठीक से पहचान पाता है न इरा को। उसे लगता है- वे तो कोई और हैं जो बिल्कुल एक अलग जीवन जी रहे हैं।
लेकिन इस कथा का असली नायक किशोर मुन्नू है- बिट्टी का कजिन- जिसे मां ने मरने से पहले एक डायरी दी है, साथ में हिदायत भी- कि जो देखना वही लिखना। लेकिन क्या जो दिखाई पड़ता है वही सच होता है? क्या दृश्य के भीतर बहुत सारे अदृश्य नहीं होते हैं? और जो अदृश्य होता है क्या वह भी तरह-तरह के दृश्यों में बंटा नहीं होता? मुन्नू कहीं भोक्ता है कहीं दर्शक और कहीं सब कुछ का लेखक- वही है जो उपन्यास के भीतर चल रहा नाटक भी देख रहा है और ज़िंदगी के भीतर चल रहा नाटक भी।
मुन्नू जैसे लेखक की आंख से इसे देख रहा है- जीवन की समूची गतिमयता को, उसके एक-एक क्षण में छुपी निरीहता को। वह लिखता है- ‘तुम देखे को न समझो, यह बात दूसरी है, लेकिन एक बार देख लेने पर दुनिया एक कीड़े की तरह सुई की नोक पर बिंध जाती है, तिलमिलाती है, लेकिन कोई उसे छुड़ा नहीं सकता। देखना तभी ख़त्म होता है, जब मरना होता है, और मरने पर भी आँखें खुली रहती हैं- जैसे मां की आंखें थीं- कांच के दो कंचे- जिन पर दुनिया एक पथराई छाया की तरह चिपकी रहती है।‘ कहना न होगा, दुनिया को इस तरह की सूक्ष्मता के साथ देखते हुए निर्मल वर्मा लगभग महाकाव्यात्मक हो उठते हैं।
अपने पसंदीदा लेखकों में निर्मल वर्मा एकाधिक बार टॉमसमॉन जेम्स ज्वायस आदि का ज़िक्र करते रहे हैं। लेकिन ‘एक चिथड़ा सुख’ पढ़ते हुए मुझे सबसे ज़्यादा अल्बेयर कामू की याद आती है- उसके ‘आउटसाइडर’ की। कामू का नायक लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के मारे यूरोप में पैदा हुई व्यापक अनास्था की संतान था जिसके लिए जीवन के मायने ही मायने नहीं रखते थे। निर्मल वर्मा के किरदारों की यातना लगभग वैसी ही वेधक है, लेकिन वह एक दूसरी त्रासदी से पैदा हुई है। वह शायद उस अकेलेपन से पैदा हुई है जो इस विस्थापित सभ्यता का अपरिहार्य सह-उत्पाद है।
क्या निर्मल या उनके किरदार इस अकेलेपन से मुठभेड़ की कोई राह प्रस्तावित करते हैं? क्या उनमें किसी मुक्ति की कामना है? इसका कोई स्पष्ट उत्तर नहीं है। लेकिन एक बात समझ में आती है- डैरी से नित्ती भाई तक, इरावती और बिट्टी से उसके कजिन तक- जैसे सब यह समझ रहे हैं कि जीवन तलाश में है, प्राप्ति में नहीं, शायद इस तलाश से कुछ लम्हों की निजात में भी है जब बिट्टी की बरसाती पर सब जमा होते हैं, रिकॉर्ड बजाते हैं, बीयर पीते हैं, बहस करते हैं और कभी लड़-झगड़ कर, एक दूसरे को चोट पहुंचा कर, फिर पछताने और सहलाने का ज़रूरी काम भी करते हैं। अगर वह छटपटाहट निकाल दी जाए जो इन सबको भटका रही है तो फिर एक बड़ा शून्य बचेगा, जिसमें शेक्सपियर के मुताबिक शोर और हंगामा भले हो, लेकिन अर्थ नहीं होगा। सारी व्यर्थता के बीच यह अर्थ अनुभव करके मुन्नू लौट रहा है। उसे अब नाटक नहीं देखना है जब वह मंचित होने वाला है।
अर्थ और व्यर्थ के बीच घूमती, इस कुछ भटकी हुई टिप्पणी के बीच उपन्यास के आख़िरी हिस्से का एक लंबा उद्धरण देने की इच्छा हो रही है- ‘नहीं, सच, कहीं जाने के लिए टिकट का होना ज़रूरी है। यह एक तरह का सिग्नल है जैसे घड़ी का होना, डायरी का होना, कैलेंडर का होना- वरना एक रात हमेशा के लिए रात रहेगी, एक शहर हमेशा के लिए एक शहर, एक मृत्यु हमेशा के लिए एक मृत्यु, उसके जाने के बाद भी बारहखंबा रोड की सड़क चलती रहेगी, मंडी हाउस के आगे वह पेड़ खड़ा रहेगा जिसे पकड़ कर एक रात अंधेरे में नित्ती भाई खड़े रहे थे; सप्रू हाउस की झाड़ियां, सिगरेट की दुकान, लहराते पेड़ ज्यों के त्यों खड़े रहेंगे और बरसों बाद जब कोई इस सड़क से गुज़रेगा, उसे पता भी नहीं चलेगा कि यहां बहुत पहले एक लड़की एक छोटे से लड़के के साथ जाती थी और वह लड़का इलाहाबाद से आया था और वह लड़की रोड-साइन के तख़्ते पर सिर रखकर रोई थी।‘
इस उपन्यास को पढ़ना एक अप्रतिम कथा-शिल्पी की अंगुली पकड़ कर बहुत गहरी और वेधक मार्मिकता के साथ जीवन की कई परतों को पहचानना है।
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