फ़िराक़ गोरखपुरी : ‘सांप्रदायिक हिंदू, हिंदू जाति के लिये ख़तरनाक है…’

08:59 am Aug 28, 2020 | जाहिद ख़ान - सत्य हिन्दी

‘शराब के शौक़ीन, एक उम्दा मोती, खु़श लहजे के आसमान के चौदहवीं के चाँद और इल्म की महफ़िल के सद्र। ज़हानत के क़ाफ़िले के सरदार। दुनिया के ताजदार। समझदार, पारखी निगाह, ज़मीं पर उतरे फ़रिश्ते, शायरे-बुजु़र्ग और आला। अपने फ़िराक़ को मैं बरसों से जानता और उनकी ख़ासियतों का लोहा मानता हूँ। इल्म और अदब के मसले पर जब वह ज़बान खोलते हैं, तो लफ़्ज़ और मायने के हज़ारों मोती रोलते हैं और इतने ज़्यादा कि सुनने वाले को अपनी कम समझ का एहसास होने लगता है। वह बला के हुस्नपरस्त और क़यामत के आशिक़ मिज़ाज हैं और यह पाक ख़ासियत है, जो दुनिया के तमाम अज़ीम फ़नकारों में पाई जाती है।’ 

यह मुख़्तसर सा तआरुफ़ अज़ीम शायर फ़िराक़ गोरखपुरी का है। उनके दोस्त शायर-ए-इंक़लाब जोश मलीहाबादी ने अपनी आत्मकथा ‘यादों की बरात’ में फ़िराक़ का खाका खींचते हुए उनके मुताल्लिक ये सब बातें कही हैं। 

जिन लोगों ने भी फ़िराक़ को देखा, पढ़ा या सुना है, वे सब अच्छी तरह से जानते हैं कि फ़िराक़ गोरखपुरी की शख्सियत इन सबसे कमतर नहीं थी, बल्कि कई मामलों में, तो वह इससे भी कहीं ज़्यादा थे। फ़िराक़ जैसी शख्सियत, सदियों में एक पैदा होती है। फ़िराक़ गोरखपुरी का ख़ाका लिखते वक़्त जोश मलीहाबादी यहीं नहीं रुक गए, बल्कि अपने इसी मजामीन में उन्होंने डंके की चोट पर यह एलान भी कर दिया, ‘जो शख़्स यह तस्लीम नहीं करता कि फ़िराक़ की अज़ीम शख़्सियत हिंदुस्तान के माथे का टीका और उर्दू ज़बान की आबरू, शायरी की माँग का संदल है, वह ख़ुदा की क़सम पैदाइशी अंधा है।’ फ़िराक़ गोरखपुरी की सतरंगी शख्सियत का इससे बेहतर तआरुफ शायद ही कोई दूसरा हो सकता है।

28 अगस्त, 1896 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में जन्मे रघुपति सहाय बचपन से ही शायरी से हद दर्जे के लगाव और मोहब्बत के चलते फ़िराक़ गोरखपुरी हो गए। उन्होंने अपना यह तख़ल्लुस क्यों चुना इसका भी एक मुख्तसर सा क़िस्सा है, जो उन्होंने मौलाना खै़र बहोरवी के नाम लिखे अपने एक ख़त में वाजेह किया था। इस ख़त में फ़िराक़ लिखते हैं,

‘‘वे ‘दर्द’ देहलवी के कलाम से काफ़ी मुतास्सिर थे। ‘दर्द’ के उत्तराधिकारी नासिर अली ‘फ़िराक़’ थे। चूँकि वे भी ‘दर्द’ देहलवी के कलाम के मद्दा थे, लिहाज़ा उन्हें यह तखल्लुस ख़ूब पसंद आया और उन्होंने भी अपना तखल्लुस ‘फ़िराक़’ रख लिया।”

‘फ़िराक़’ तखल्लुस पसंदगी की एक और वजह शायद इस लफ़़्ज के मायने भी हैं, जो उनकी शख्सियत से काफ़ी मेल खाता है। बहरहाल गोरखपुर में पैदाइश की वजह से उनका पूरा नाम हुआ, फ़िराक़ गोरखपुरी। फ़िराक़ के वालिद मुंशी गोरख प्रसाद ख़ुद एक अच्छे शायर थे और उनका तखल्लुस ‘इबरत’ था। वे फ़ारसी के आलिम थे और उर्दू में शायरी करते थे। ज़ाहिर है कि घर के अदबी माहौल ने फ़िराक़ के मासूम ज़हन पर भी असर डाला। वह भी शायरी के शौकीन हो गए। बीस साल की उम्र आते-आते वह भी शे’र कहने लगे। शुरुआत में उन्होंने फ़ारसी के उस्ताद महदी हसन नासिरी से कुछ ग़ज़लों पर इस्लाह ली। बाद में ख़ुद के अंदर ही शे’र कहने की इतनी सलाहियत आ गई कि किसी उस्ताद की ज़रूरत नहीं पड़ी। 

फ़िराक़ गोरखपुरी ने आला तालीम इलाहाबाद विश्वविद्यालय और आगरा विश्वविद्यालय से हासिल की। तालीम पूरी होते ही उनका सिलेक्शन पी. सी. एस. (प्रांतीय सिविल सेवा) और आई. सी. एस. (भारतीय सिविल सेवा) में हो गया था। लेकिन वह अंग्रेज़ी हुकूमत की नौकरी को ठुकराकर, आज़ादी की तहरीक में शामिल हो गए।

साल 1920 में प्रिंस ऑफ़ वेल्स की यात्रा की मुखालफत के इल्ज़ाम में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और वह ढाई साल तक कांग्रेस पार्टी के बड़े नेताओं- पं. मोतीलाल नेहरू और पंडित जवाहर लाल नेहरू के साथ आगरा और लखनऊ की जेलों में रहे।

रिहाई के बाद कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने उन्हें ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी का अंडर सेक्रेटरी बना दिया। लेकिन साल 1927 में जब कांग्रेस पार्टी का दफ्तर कुछ दिनों के लिए मद्रास चला गया, घर-परिवार की ज़िम्मेदारियाँ बढ़ गईं, तो वह लखनऊ में अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर हो गए। इसके बाद कुछ दिन उन्होंने कानपुर में भी पढ़ाया। साल 1930 में वह अंग्रेज़ी ज़बान के प्रोफ़ेसर के तौर पर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के लिए चुन लिए गए। यहीं से वह रिटायर हुए।

17 बरस की छोटी सी उम्र में फ़िराक़ गोरखपुरी की शादी हो गई, लेकिन यह शादी नाकामयाब रही। कुछ प्रेम प्रसंग भी हुए, जो परवान नहीं चढ़े। जिसका असर उनकी ज़िंदगी पर पड़ा। फ़िराक़ की शुरुआती शायरी यदि देखें, तो उसमें जुदाई का दर्द, ग़म और जज्बात की तीव्रता शिद्दत से महसूस की जा सकती है। अपनी ग़ज़लों, नज़्मों और रुबाइयों में वह इसका इज़हार बार-बार करते हैं,

“वो सोज-ओ-दर्द मिट गए, वो ज़िंदगी बदल गई/

सवाल-ए-इश्क है अभी ये क्या किया, ये क्या हुआ।’’

वे अपने जाती दर्द को इन अल्फाजों में आवाज़ देते हैं,

‘‘उम्र फ़िराक़ ने यों ही बसर की 

कुछ गमें जानां, कुछ गमें दौरां।’’,

“शामें किसी को मांगती है आज भी ‘फ़िराक़’

गो ज़िंदगी में यों मुझे कोई कमी नहीं।’’ 

जुदाई के दर्द के अलावा उनके अश्आर में ‘रात’ एक रूपक के तौर पर आती है। उनके कलाम का एक हिस्सा ऐसा है, जिसकी बिना पर उन्हें शायरे-नीमशबी कहा जा सकता है। मिसाल के तौर पर उनके कुछ ऐसे ही अश्आर हैं, 

“उजले-उजले से कफन में सहरे-शाम ‘फ़िराक़’

एक तसवीर हूँ मैं रात के कट जाने की।’’

‘‘तारीकियाँ चमक गयीं आवाजे-दर्द से

मेरी ग़ज़ल से रात की जुल्फें संवर गयीं।’’

“अब दौरे-आसमां है न दौरे-हयात है 

ऐ दर्दे-हिज्र, तू ही बता कितनी रात है।’’

साल 1936 में मुल्क में प्रगतिशील लेखक संघ का गठन हुआ। ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के घोषणा-पत्र पर विचार-विनिमय करने के लिए संगठन के बानी सज्जाद जहीर, भारतीय भाषाओं के तमाम लेखकों से मिले। इन लेखकों में फ़िराक़ गोरखपुरी भी शामिल थे। सज्जाद जहीर ने उनसे पीडब्लूए के घोषणा-पत्र पर तो राय-मशिवरा किया ही, बल्कि संगठन के पहले राष्ट्रीय अधिवेशन में उनसे अपना पर्चा भी पढ़वाया। ज़ाहिर है कि साल 1936 के बाद फ़िराक़ गोरखपुरी के कलाम में बदलाव आने लगता है। उनके कलाम में साम्यवादी ख्याल जगह पाने लगते हैं। अब वे मकसदी अदब के कायल हो जाते हैं। शायरी से मुआशरे में बदलाव उनका मकसद हो जाता है। उनके लहज़े में तल्खियाँ और एहतेजाज दिखाई देने लगता है।

“मायूस नहीं होते अफसुर्दा नहीं होते

हर जुर्म-ओ-गुनाह करके इन्सान है फिर इन्सां।’’ 

वहीं अपनी लंबी नज़्म ‘दास्ताने आदम’ में फ़िराक़ गोरखपुरी साम्यवाद का खैरमकदम करते हुए, कुछ इस तरह से लिखते हैं, 

“तहजीब को परवान चढ़ाया है हमीं ने

तारीख़ को हर दर्स पढ़ाया है हमीं ने

सैयारों की गर्दिश को बढ़ाया है हमीं ने

अब शम्सो कमर अपने इशारों पै चलेंगे

हम जिन्दा थे, हम जिन्दा हैं, हम जिन्दा रहेंगे।’’ 

अपनी इस नज़्म में फ़िराक़ गोरखपुरी आगे चलकर रूस की साम्यवादी व्यवस्था को एक नई तहजीब के विशेषण से नवाजते हैं, जिसे मज़दूर तबक़े की ताक़त ने बनाया है। 

फ़िराक़ गोरखपुरी ने ग़ुलाम मुल्क में किसानों-मज़दूरों के दुःख-दर्द को समझा और अपनी शायरी में उनको आवाज़ दी। जब वे इस तरह की ग़ज़लें और नज़्में लिखते थे, तो उसमें साम्यवादी चेतना साफ़ दिखलाई देती थी। जोश मलीहाबादी की तरह उनकी इन नज़्मों का फलक बड़ा होता था। मज़दूरों का आह्वान करते हुए वे लिखते हैं, 

“तोड़ा धरती का सन्नाटा किसने हम मज़दूरों ने

डंका बजा दिया आदम का किसने हम मज़दूरों ने

ओट में छिपी हुई तहजीबों का घूंघट सरकाया किसने 

शर्मीली तकदीर की देवी का आंचल ढलकाया किसने

कामचारे सपनों की काया में शोला भड़काया किसने

बदनचोर इस प्रकृति कामिनी का सीना धड़काया किसने’’ 

इसी तरह वे अपनी नज़्म ‘धरती की करवट’ में किसानों को भी खिताब करते हैं। तमाम तरक्कीपसंद शायरों की तरह फ़िराक़ गोरखपुरी के कलाम में भी साम्राज्यवाद, पूंजीवाद और साम्प्रदायिकता की मुखालफत साफ़ दिखलाई देती है।

‘‘बेकारी, भुखमरी, लड़ाई, रिश्वत और चोरबजारी

बेबस जनता की यह दुर्गत, सब की जड़ सरमायादारी।’’ 

उनकी किताब ‘गुले नग्मा’ में इस तरह की ग़ज़लें और नज़्में बहुतायत में हैं। साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ कई नज़्मों में उनका लहजा काफ़ी तल्ख भी हो जाता है। उनकी ऐसी ही एक नज़्म पढ़िए,

“ये सब मर्दखोर हैं साथी इनके साथ मुरव्वत कैसी

यह दुनिया है इनकी मिलकियत इस दुनिया की ऐसी तैसी

दुनिया भर बाज़ार है जिसका इक मंडी हेराफेरी की

उस अमेरिका की यह हालत यह बेकारी धत तेरे की”

फ़िराक़ गोरखपुरी हालाँकि अपनी ग़ज़लों और मानीखेज शे’र के लिए जाने जाते हैं, मगर उन्होंने नज़्में भी लिखीं। और ये नज़्में, ग़ज़लों की तरह ख़ूब मक़बूल हुईं। ‘आधी रात’, ‘परछाइयाँ’ और ‘रक्से शबाब’ वे नज़्में हैं, जिन्हें जिगर मुरादाबादी, जोश मलीहाबादी से लेकर अली सरदार जाफरी तक ने दिल से सराहा। ‘दास्ताने-आदम’, ‘रोटियाँ’, ‘जुगनू’, ‘रूप’, ‘हिंडोला’ भी फ़िराक़ की शानदार नज़्में हैं, जिनमें उनकी तरक्कीपसंद सोच साफ़ ज़ाहिर होती है। ‘हिंडोला’ नज़्म में तो उन्होंने हिंदुस्तानी तहजीब की शानदार तसवीरें खींची हैं। हिंदू देवी-देवताओं, नदियों, त्यौहारों, रीति-रिवाजों और अनेक मजहबी-समाजी यक़ीनों का इज़हार इस नज़्म में उन्होंने बड़ी ही खूबसूरती से किया है। उर्दू आलोचकों ने इस नज़्म को पढ़कर बेसाख्ता कहा, यह नज़्म हिंदुस्तानियत की बेहतरीन मिसाल है। इस नज़्म में मकामी रंग शानदार तरीक़े से आए हैं। फ़िराक़ गोरखपुरी के एक और समकालीन फै़ज़ अहमद फै़ज़ ने अपने एक मजामीन में उनके कलाम की तारीफ़ करते हुए कहा था, 

“फ़िराक़ साहिब जज़्बात व एहसासात की बारीकबीनी में इज़्हार के ढंग के बारे में कशीदाकारी के माहिर थे। इस लिहाज से कुल्ली तौर से न सही, बहुत हद तक उनका ‘सौदा’ और ‘मीर’ से मुकाबला कर सकते हैं।’’

फ़िराक़ गोरखपुरी की ग़ज़लों-नज़्मों में फ़ारसी, अरबी के ही कठिन अल्फाज नहीं होते थे, बल्कि कई बार अपने शे’रों में उस हिंदुस्तानी ज़बान को इस्तेमाल करते थे, जो हर एक के लिए सहज है। मिसाल के तौर पर उनके कुछ इस तरह के शे’र हैं, 

“मजहब कोई लौटा ले, और उसकी जगह दे दे

तहजीब सलीके की, इंसान करीने के।’’

‘‘तुम मुखातिब भी हो, करीब भी

तुमको देखें कि तुमसे बात करें।’’,

“आए थे हंसते खेलते मय-खाने में फ़िराक़

जब पी चुके शराब तो संजीदा हो गए।’’, 

‘‘एक मुद्दत से तेरी याद भी न आई हमें 

और हम भूल गए हों, तुझे ऐसा भी नहीं।’’, 

‘‘मुहब्बत में मिरी तन्हाइयों के हैं कई उन्वां

तिरा आना, तिरा मिलना, तिरा उठना, तिरा जाना।’’ 

फ़िराक़ ने शृंगार रस में डूबी अनगिनत ग़ज़लें भी लिखीं। जब इनसे दिल भर गया, तो रुबाइयात लिखीं, नज़्में लिखीं। हिंदू कल्चर और हिंदुस्तानियत में रचे इस शायर ने एक से बढ़कर एक नज़्में लिखीं। ‘आधी रात’ उन्वान से लिखी नज़्म में उन्होंने भाषा और विचार के स्तर पर जो प्रयोग किए हैं, वे तो अद्भुत हैं। नज़्म को पढ़कर, यह एहसास ही नहीं होता कि यह उन फ़िराक़ गोरखपुरी की नज़्म है, जो उर्दू के मुक़ाबिल हिंदी ज़बान के मामले में बेहद पक्षपाती हो जाते थे। यक़ीन न हो तो इस नज़्म के कुछ मिस्रे देखिए,

‘‘करीब चांद के मंडला रही है इक चिड़िया

भंवर में नूर के, करवट से कैसे नाव चले

कहां से आती है अमद मालती लता की लपट

कि जैसे सैंकड़ों परियां गुलाबियां छलकाएं

कि जैसे सैंकड़ों बन देवियों ने झूलों पर

अदाए-खास से इक साथ बाल खोल दिए

बदल सके तो फिर इस जिंदगी का क्या कहना।’’ 

जिसमें यह मिस्रा तो ऐसा है जिसका कोई जवाब नहीं, ‘‘कंवल की चुटकियों में बंद है नदी का सुहाग’’ इस मिस्रे को पढ़कर मशहूर उर्दू आलोचक अस्करी ने कहा था, ‘‘इस एक मिस्रे में पूरा हिंदू कल्चर गूंज रहा है। मिठास, नर्मी, अपनापन, फितरत की पाकीजगी, रोजमर्रा की चीजों की पाकीजगी का एहसास, हर चीज यहाँ मौजूद है।’’

फ़िराक़ गोरखपुरी सिर्फ़ आला दर्जे के शायर ही नहीं थे, बल्कि सुलझे हुए दानिश्वर, फिलॉसफर भी थे। मुल्क की गंगा-जमुनी तहजीब, भाषा और सियासत के तमाम ज्वलंत सवालों पर वे अपनी खुलकर राय रखते थे। हक़गोई और बेबाकी, ज़ेहानत और ज़बानदानी उनकी घुट्टी में थी। सच को सच कहने का हौसला उनमें था। वह साम्प्रदायिकता और मजहबी कट्टरता के घोर विरोधी रहे। अपने ऐसे ही एक विचारोत्तेजक मजामीन ‘हमारा सबसे बड़ा दुश्मन’ में वे लिखते हैं,

साम्प्रदायिकता का भाव ख़ुद अपने सम्प्रदाय के लिए ख़ुदकुशी के बराबर होता है। देखने में फिरकापरस्त आदमी दूसरे धर्मवालों को छुरा भोंकता है, लेकिन दरअसल वह आदमी अपने ही फिरके का ख़ून करता है। चाहे दूसरे फिरके वालों से बदला लेने के लिए वह ऐसा काम करे।


फ़िराक़ गोरखपुरी

साम्प्रदायिक लोग समाज के लिए किस कदर ख़तरनाक हैं, अपने इसी लेख में वह आगे लिखते हैं,

“साम्प्रदायिक हिन्दू, हिन्दू जाति के लिए ख़तरनाक है, मुसलमान के लिए उतना ख़तरनाक नहीं है। फिरकापरस्त मुसलमान, फिरके के लिए ज़्यादा नुक़सान पहुँचाने वाला है, हिन्दू के लिए उतना नहीं। और यही हाल साम्प्रदायिक सिख, साम्प्रदायिक पारसी, साम्प्रदायिक एंग्लो इंडियन, साम्प्रदायिक इसाई का है। ये सब अपनी जाति के दुश्मन हैं। साम्प्रदायिकता के आधार पर अपने सहधर्मियों की सेवा ही नहीं की जा सकती, पर साम्प्रदायिकता से बच कर ही अपने सम्प्रदाय की, अपने सहधर्मियों की तरक्की हो सकती है। या यों कहो कि दूसरे सम्प्रदायवालों, दूसरे धर्मवालों की उन्नति, खुशहाली मुमकिन है।’’

फ़िराक़ गोरखपुरी अपने इस लेख में साम्प्रदायिकता की समस्या को चिन्हित भर नहीं करते, बल्कि देशवासियों को आगाह भी करते हैं, “हिन्दू संस्कृति को हिन्दू राज्य मिटाकर रख देगा, मुसलिम संस्कृति को इसलामी राज्य मिटाकर रख देगा और साम्प्रदायिक राज्य अपने ही सहधर्मियों को ले डूबेगा।’’

फिर मुल्कवासियों का असली दुश्मन कौन है और उसे किससे लड़ना चाहिए इस बात का सुराग भी वे अपने इसी लेख में देते हैं,  “हमारे अनुचित रीति-रिवाज़, हमारे समाज का ग़लत ढाँचा, ग़लत क़ानून, क़ारोबार के ग़लत तरीक़े, व्यापार के नाम पर बेदर्दी से नफा कमाने का लालच और ख़ुद हमारे जीवन की ग़लतियाँ, रिश्वत, चोर बाज़ारी, निरक्षरता, भूख और बेकारी असली दुश्मन हैं।’’ फ़िराक़ गोरखपुरी का यह लेख सत्तर साल पहले, साल 1950 में लिखा गया था, लेकिन आज भी यह उतना ही प्रासंगिक है, जितना लिखते वक़्त था। 

पचास साल से ज़्यादा वक़्त की अपनी अदबी ज़िंदगी में फ़िराक़ गोरखपुरी ने तकरीबन 40 हज़ार अशआर लिखे। उर्दू अदब में फ़िराक़ गोरखपुरी जैसी शोहरत बहुत कम शायरों को हासिल हुई है। 3 मार्च, 1982 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा। फ़िराक़ गोरखपुरी की एक अकेली ज़िंदगी के कई अफसाने हैं। एक अफसाना छेड़ो, दूसरा ख़ुद ही चला आता है। एक लेख में न तो उनकी पूरी ज़िंदगी आ सकती है और न ही उनके लिखे अदब के साथ इंसाफ हो सकता है। 

‘‘आने वाली नस्लें तुम पर फख्र करेंगी हम-असरो

जब भी उन को ख्याल आयेगा कि तुम ने ‘फ़िराक़’ को देखा है।”