दूसरे विद्यार्थियों की तरह मैं भी प्रेमचंद को बचपन से पढ़ रहा हूं. उनकी एक एक कहानी कई कई बार पढ़ी है और उनका पढ़ना आज भी जारी है जब इस वक्त कहानी 'नशा' मेरे हाथ में है!
आज प्रेमचंद की जयंती है तो प्रेमचंद पर तमाम पोस्ट पढ़ने को मिल रही हैं. डीडी न्यूज़ पर दस्तावेज़ नाम से एक कार्यक्रम भी प्रसारित हुआ. कार्यक्रम का शीर्षक था ' मुंशी प्रेमचंद '. बस यहीं पर ठहर गया कि प्रेमचंद कैसे और कब मुंशी प्रेमचंद हो गए? कार्यक्रम का संचालन डीडी न्यूज़ के वरिष्ठ एंकर ने किया. लेकिन इसमें मैं उसको दोष नहीं देता. उसे जो स्क्रिप्ट दी गई होगी वही उसने पढ़ दी. प्रोड्यूसर ने बैकग्राउंड ग्राफिक जो बनाया होगा बस उसी के सामने खडे़ होकर उसने एंकरिंग कर दी होगी. डीडी न्यूज़ का ये वरिष्ठ एंकर एक राजनीतिक विश्लेषक है साहित्यकार तो नहीं ना है जो इस त्रुटि को इतनी बारीक़ी से पकड़े!
अब गुलज़ार साहब को ही ले लीजिए! तक़रीबन आठ - दस साल पहले दूरदर्शन नेशनल पर उनके द्वारा लिखित एक 12 एपीसोड्स की सीरीज़ ' तहरीर ' प्रसारित हुई थी. उसमें भी यही था ' मुंशी प्रेमचंद की कहानियां '! गुलज़ार साहब कवि, गीतकार और पटकथा लेखक हैं और उन्होंने कुछ बेहतरीन फिल्में लिखी और डायरेक्ट की हैं. उनकी फ़िल्म ‘इजाज़त’ देख कर तो मैं उनका मुरीद हो गया था.
एक बार 1999 - 2000 के दौरान दिल्ली में उनसे लगातार तीन चार दिनों तक इंटरएक्शन रहा. दूरदर्शन और बीबीसी के एक ज्वांइट वेंचर में मुझे एक कहानी लिखनी और डायरेक्ट करनी थी जिसमें उन्होंने मेरी ख़ासी मदद की थी. अब ये तो हम नहीं मान सकते कि ' तहरीर ' सीरीज़ के प्रोड्यूसर ने बग़ैर गुलज़ार साहब की नॉलेज के प्रेमचंद के नाम के आगे ' मुंशी ' जोड़ दिया हो! सवाल उठता है गुलज़ार साहब ने इस बात को अनदेखा कैसे कर दिया!
प्रेमचंद का असल नाम धनपत राय था और वो 'नबाव राय' नाम से उर्दू में लिखते थे . उनकी कहानियां उस वक्त के 'सोज़े वतन', ज़माना प्रेस, कानपुर में छपती थीं जिसके सारे एडीशन्स अंग्रेजी हुक़ूमत ने ज़ब्त कर लिए थे. ऐसे में 'ज़माना' के एडीटर मुंशी दया नारायण निगम ने नबाव राय की जगह उन्हें 'प्रेमचंद' उपनाम सुझाया। प्रेमचंद को ये नाम पसंद आ गया और वो नबाव राय से प्रेमचंद बन गए.
ये भी कहा जाता है कि प्रेमचंद स्कूल में टीचर थे इसलिए उन्हें मुंशी कहा जानें लगा. लेकिन हमारे उत्तर प्रदेश ख़ासतौर से पूर्वी उत्तर प्रदेश में टीचर को मास्साब कहते हैं. फिर उन्हें मास्साब प्रेमचंद क्यों नहीं कहा गया? मुंशी तो वकीलों के क्लर्क होते हैं. ये भी कहते हैं कि प्रेमचंद कायस्थ थे इसलिए उन्हें मुंशी कहा जाने लगा! ऐसा संभव होगा! क्योंकि कायस्थों के टोले को मुंशीयाना तो कहा जाता रहा है. लेकिन ठेठ भाषा में उन्हें ' लालान ' भी तो कहते हैं न? फिर लाला प्रेमचंद क्यों नहीं कहा गया?
दरअसल क़िस्सा ये है कि गांधी जी के कहने पर कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी और प्रेमचंद ने साथ मिलकर 1930 में हिंदी की एक पत्रिका निकाली जिसका नाम ‘हंस’ रखा. ‘हंस’ का संपादन के एम मुंशी और प्रेमचंद दोनों ने मिलकर किया. के एम मुंशी उस वक्त एक बड़ा नाम था .कई विषयों के जानकार होने के साथ मशहूर वकील भी थे. उन्होंने गुजराती के साथ हिंदी और अंग्रेजी साहित्य में भी ख़ासा नाम कमाया था.
के एम मुंशी उम्र में प्रेमचंद से बड़े थे. उनकी सीनियारिटी को ध्यान में रखते हुए हंस पत्रिका में बतौर संपादक उनका नाम प्रेमचंद से पहले लिखा जाने लगा. इस तरह हंस के कवर पर संपादक के तौर पर ‘मुंशी-प्रेमचंद’ का नाम जाने लगा. तब ही से प्रेमचंद को लोग मुंशी प्रेमचंद लिखने और कहने लगे वरना उनका नाम प्रेमचंद ही था और है. ' मुंशी प्रेमचंद ' क़तई नहीं!
(रमन हितकारी के फ़ेसबुक पेज से)