महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन को बड़ी जनजागृति के रूप में देखा गया है। अंग्रेज़ी हुकूमत से लड़ने का एक अहिंसक तरीका जिसने जनता के विद्रोही ऊर्जा को स्फुरित किया। असहयोग, सविनय अवज्ञा और चरखे के मेल से गांधी ने आन्दोलन की ऐसी पद्धति का आविष्कार किया जिसमें साधारण जन भी भाग ले सकते थे। एक तरह से यह कम से कम ऊर्जा खर्च करके या अधिक सरल शब्दों का इस्तेमाल करें तो बहुत सस्ते में राष्ट्रवादी होने का एक सुगम पथ था।
स्कूल कॉलेज के बहिष्कार, विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और विदेशी कपड़ों की होली के माध्यम से गांधी ने करोड़ों लोगों को राजनीति में भाग लेने की आसान राह सुझाई।
गांधी की इस रणनीति का कोई जवाब अंग्रेजों के पास नहीं था। उन्होंने ताक़त का इस्तेमाल करके इसे कुचलने की कोशिश की।
निहत्थी जनता के सामने पुलिस और फ़ौज के बल प्रयोग के पीछे छिपी हुई अंग्रेज़ी सत्ता अत्यंत क्षुद्र प्रतीत हुई। वह बाहुबल में निश्चय ही ऊपर थी, लेकिन नैतिक बल गांधी की इस जनता का था।
गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर
कम से कम एक व्यक्ति को हम जानते हैं जिसने इस आंदोलन को संदेह की दृष्टि से देखा। उसे इसके अहिंसक होने और नैतिक श्रेष्ठता के दावे पर यकीन न था। यह व्यक्ति गांधी के मित्र और उनके आलोचक कवि रवींद्रनाथ टैगोर थे। वे इस आन्दोलन में छिपे हुए अहंकार को ताड़ रहे थे। उनके अनुसार ऐसे किसी भी आंदोलन से, जो भले ही अहिंसक दिखलाई पड़े लेकिन अपनी नैतिक श्रेष्ठता के अभिमान के साथ चलाया जाए, शुभ के स्थान पर अशुभ ही पैदा होता है।दीनबंधु सी. एफ. ऐन्ड्रूज़ को एक ख़त में टैगोर ने बताया कि उनके पास छात्रों का एक दल स्कूल के बहिष्कार की अनुमति लेने आया। उन्होंने इनकार कर दिया और छात्र उनसे क्षुब्ध होकर वापस गए। इस घटना से कवि के राष्ट्रवादी होने पर उन्हें गहरा संदेह हुआ। टैगोर ने अपने निर्णय का कारण बताया कि उन्हें ‘शून्यता की अराजकता’ कभी भी आकर्षित नहीं करती।
चरखे को लेकर भी उनकी गांधी से बहस हुई। टैगोर को प्रतीत होता था कि चरखा चलाने के अभियान में एक यांत्रिकता है और कोई बौद्धिक या नैतिक निवेश नहीं है। ‘चार अध्याय’ और ‘घर बाहर’ राजनीतिक आंदोलन और विद्रोह में छिपी क्षुद्रता और हिंसा की कथा कहते हैं।प्रेमचंद टैगोर से पूरी तरह सहमत नहीं हैं। ‘वर्तमान आंदोलन के रास्ते में रुकावटें’ नामक अपने निबंध में वे कवि के भीतर के द्वंद्व पर टिप्पणी करते हैं,
'...बुद्धि और आध्यात्मिकता की यह खींचतान वर्तमान आंदोलन के रास्ते में भयानक रुकावट होगी और जब उसके समर्थक रवींद्रनाथ टैगोर जैसे दूरदर्शी, गहरी नज़रवाले लोग हैं तो इस रुकावट को हटाना आसान न साबित होगा।'
प्रेमचंद भी जानते हैं कि टैगोर का संदेह पूरी तरह निर्मूल नहीं है। आंदोलन या संगठन में व्यक्तित्व के सतहीकरण का ख़तरा बना रहता है। अहिंसा के बाने में हिंसा पनप सकती है। जोशीले भाषण, क्रांति-क्रांति के आह्वान से लोगों के अंदर छिपी हिंसा का व्यक्त होने का मौक़ा
एक दिलचस्प टिप्पणी है, ‘भारत अपना निर्णय खुद करेगा’। यह जॉर्ज बर्नार्ड शॉ के एक इंटरव्यू पर आधारित है। वे शॉ को उद्धृत करते हैं,
'जब आपका अपना राज हो जाएगा तो आपको सार्वजनिक भाषण करना जुर्म करार देना चाहिए।..'
प्रेमचंद इसका समर्थन करते हैं,
'इससे तो भारत के वाक् धुरंधरों को बड़ी निराशा होगी। संसार में इस सार्वजनिक भाषण ने जितना उपद्रव किया है उतना शायद और किसी बात ने न किया होगा। यह इसी सार्वजनिक भाषण का नतीजा है कि आज केवल वाक् चातुरी पर अधिकार और नेतृत्व का आधार है। जो वाणी कुशल है, वह चाहे कितना ही स्वार्थी और दंभी हो, पर राष्ट्र का नेता बन जाता है।'
...
‘तावान’ प्रेमचंद की अपने किस्म की अकेली कहानी कही जा सकती है। प्रेमचंद के पाठक भी इसकी बहुत याद नहीं करते। अब तो यह शब्द भी हिंदीवालों के लिए अजनबी हो चला है। कहानी की शुरुआत से ही आप अनुमान कर सकते हैं कि यह विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के आंदोलन की पृष्ठभूमि की कहानी है।
'छकौड़ीलाल ने दुकान खोली और कपड़े के थानों को निकाल-निकाल रखने लगा कि एक महिला, दो स्वयंसेवकों के साथ उसकी दुकान छेकने आ पहुँची। छकौड़ी के प्राण निकल गये।'
गांधी के आन्दोलन के सिर्फ दो पक्ष माने जाते रहे हैं, जनता और सरकार। लेकिन खुद कांग्रेस या आंदोलनकारी अपने आप में एक सत्ता में बदल गए थे और उनका और जनता का रिश्ता इतना सरल न रह गया था। छकौड़ीलाल की दुकान बड़ी नहीं है, यह तो इस वाक्य से ही स्पष्ट है। दो स्वयंसेवकों के साथ दुकान खोलते समय आ धमकी महिला की ताक़त उसके लिए सरकार की ताकत से कम नहीं।
'महिला ने तिरस्कार करके कहा - क्यों लाला तुमने सील तोड़ डाली न अच्छी बात है, देखें तुम कैसे एक गिरह कपड़ा भी बेच लेते हो! भले आदमी, तुम्हें शर्म नहीं आती कि देश में यह संग्राम छिड़ा हुआ है और तुम विलायती कपड़ा बेच रहे हो, डूब मरना चाहिए। औरतें तक घरों से निकल पड़ी हैं, फिर भी तुम्हें लज्जा नहीं आती! तुम जैसे कायर देश में न होते तो उसकी यह अधोगति न होती!'
आंदोलन और आदमी
आंदोलनकारी महिला के मन में छकौड़ी मनुष्य नहीं है। वह गृहस्थ नहीं है। आंदोलन सफल होना चाहिए, किसी भी कीमत पर। इस दुकान से एक घर चलता है, वह बर्बाद हो जाएगा, इसकी परवाह राष्ट्र के निर्माताओं को कहाँ। घर तुच्छ स्वार्थ का प्रतीक ठहरा! राष्ट्र की महान् आयोजना के सामने उसकी क्या बिसात!
'छकौड़ी ने वास्तव में कल काँग्रेस की सील तोड़ डाली थी। यह तिरस्कार सुनकर उसने सिर नीचा कर लिया। उसके पास कोई सफाई न थी; कोई जवाब न था। उसकी दुकान बहुत छोटी थी। लेहने पर कपड़े लाकर बेचा करता था। यही जीविका थी, इसी पर वृद्धा माता, रोगिणी स्त्री और पाँच बेटे-बेटियों का निर्वाह होता था। जब स्वराज्य-संग्राम छिड़ा और सभी बजाज विलायती कपड़ों पर मुहरें लगवाने लगे, तो उसने भी मुहर लगवा ली। दस-पाँच थान स्वदेशी कपड़ों के उधार लाकर दुकान पर रख लिये; पर कपड़ों का मेल न था; इसलिए बिक्री कम होती थी। कोई भूला-भटका गाहक आ जाता, तो रुपया-आठ आने की बिक्री हो जाती। दिन भर दुकान में तपस्या-सी करके पहर रात को घर लौट जाता था। गृहस्थी का खर्च इस बिक्री में क्या चलता। कुछ दिन कर्ज-वर्ज लेकर काम चलाया, फिर गहने बेचने की नौबत आयी। यहाँ तक कि अब घरों में कोई ऐसी चीज़ न बची, जिससे दो-चार महीने पेट का भूत सिर से टल जाता। उधार स्त्री का रोग असाध्य होता जाता था। बिना किसी कुशल डाक्टर को दिखाये काम न चल सकता था।'
छकौड़ी का राष्ट्र प्रेम किसी से घट कर न था। उसने खुद अपनी दुकान पर कांग्रेस की सील लगवाई थी। लेकिन उस कांग्रेस के लिए वह सिर्फ एक गिनती का आँकड़ा था। इस एक अंश में विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के आंदोलन के अर्थशास्त्र और उसके साधारण व्यवसाइयों के जीवन पर प्रभाव का अत्यंत कुशलता से बिना कुछ अतिरिक्त कहे वर्णन कर दिया गया है।
छकौड़ी अपनी स्त्री की परवाह करे या राष्ट्रीय ध्येय की इस आन्दोलन ने जितनी त्याग की लहर उठाई उतना ही लोगों में अपराध बोध भी गहरा किया:
'इसी चिंता में डूब-उतरा रहा था कि विलायती कपड़े का एक गाहक मिल गया, जो एकमुश्त दस रुपये का माल लेना चाहता था। इस प्रलोभन को वह न रोक सका।
स्त्री ने सुना, तो कानों पर हाथ रखकर बोली - मैं मुहर तोड़ने को कभी न कहूँगी। डाक्टर तो कुछ अमृत पिला न देगा। तुम नक्कू क्यों बनो। बचना होगा बच जाऊँगी, मरना होगा मर जाऊँगी, बेआबरुई तो न होगी। मैं जीकर ही घर का क्या उपकार कर रही हूँ। और सबको दिक कर रही हूँ। देश को स्वराज्य मिले लोग सुखी हों, बला से मैं मर जाऊँगी! हजारों आदमी जेल जा रहे हैं, कितने घर तबाह हो गये, तो क्या सबसे ज़्यादा प्यारी मेरी ही जान है
पर छकौड़ी इतना पक्का न था। अपना बस चलते वह स्त्री को भाग्य के भरोसे न छोड़ सकता था। उसने चुपके से मुहर तोड़ डाली और लागत के दामों दस रुपये के कपड़े बेच लिये।
अब डाक्टर को कैसे ले जाय। स्त्री से क्या परदा रखता। उसने जाकर साफ-साफ सारा वृत्तांत कह सुनाया और डाक्टर को बुलाने चला।
स्त्री ने उसका हाथ पकड़कर कहा - मुझे डाक्टर की ज़रूरत नहीं। अगर तुमने ज़िद की, तो मैं दवा की तरफ आँख भी न उठाऊँगी।
छकौड़ी और उसकी माँ ने रोगिणी को बहुत समझाया, पर वह डाक्टर को बुलाने पर राजी न हुई। छकौड़ी ने दसों रुपये उठाकर घर-कुइयाँ में फेंक दिये और बिना कुछ खाये-पीये, किस्मत को रोता-झींकता दुकान पर चला आया। उसी वक्त पिकेट करने वाले आ पहुँचे और उसे फटकारना शुरू कर दिया। पड़ोस के दुकानदार ने काँग्रेस कमेटी में जाकर चुगली खाई थी।'
आंदोलन की नैतिकता
छकौड़ी की स्त्री की राष्ट्रीयता की भावना अतिरेक पर है। ये आन्दोलन क्या लोगों को बदल रहे थे उन्हें और नैतिक बना रहे थे इस अंश का अंतिम वाक्य फिर से पढ़िए।
'पड़ोस के दुकानदार ने काँग्रेस कमेटी में जाकर चुगली खाई थी।'
कांग्रेस कमेटी अपने आप में एक समानांतर सरकार हो चली थी और अंग्रेज़ी सरकार की तरह उसने भी अपनी दंड प्रणाली विकसित कर ली थी। वह जितना प्रेम पर नहीं, उतना भय पर टिकी थी। भय के साथ पड़ोसी के प्रति ईर्ष्या।
अगर विनय इस आन्दोलन का आधार था, तो वह विनय सिर्फ अंग्रेजों के लिए न होनी थी। लेकिन यहाँ तो इसके उलट हो रहा है,
'छकौड़ी ने महिला के लिए अंदर से लोहे की एक टूटी, बेरंग कुरसी निकाली और लपककर उनके लिए पान लाया। जब वह पान खाकर कुरसी पर बैठीं, तो उसने अपने अपराध के लिए क्षमा माँगी! बोला बहनजी, बेशक मुझसे यह अपराध हुआ है; लेकिन मैंने मजबूर होकर मुहर तोड़ी। अबकी मुझे मुआफी दीजिए। फिर ऐसी खता न होगी।
देशसेविका ने थानेदारों के रोब के साथ कहा - यों अपराध क्षमा नहीं हो सकता। तुम्हें इसका तावान देना पड़ेगा। तुमने काँग्रेस के साथ विश्वासघात किया है और इसका तुम्हें दंड मिलेगा। आज ही बायकाट-कमेटी में यह मामला पेश होगा।'
लोहे की टूटी बेरंग कुरसी, अपराध, मुआफी, खता, देशसेविका, थानेदारों का रोब, विश्वासघात, दंड, मामला, पेश और तावान! राष्ट्र बन रहा है। वे सारे शब्द यहाँ हैं जिनका आगे चलकर राज्य अपनी ताकत के साथ निर्बल नागरिक के खिलाफ इस्तेमाल करेगा।
ताक़त राष्ट्र्सेविका के पास है। राष्ट्र सेवा और मनुष्य के प्रति सहानुभूति का आपस में मेल नहीं। यह हृदय की वही शून्यता है, जिससे टैगोर आशंकित थे।
छकौड़ी बहुत ही विनीत, बहुत ही सहिष्णु था; लेकिन चिंताग्नि में तपकर उसका हृदय उस दशा को पहुँच गया था, जब एक चोट भी चिनगारियाँ पैदा करती है। तिनककर बोला - तावान तो मैं न दे सकता हूँ, न दूँगा। हाँ, दुकान भले ही बंद कर दूँ। और दुकान भी क्यों बंद करूँ, अपना माल है, जिस जगह चाहूँ, बेच सकता हूँ। अभी जाकर थाने में रपट लिखा दूँ, तो बायकाट कमेटी को भागने की राह न मिले। जितना ही दबता हूँ; उतना ही आप लोग दबाती हैं।'
इस विनीत, सहिष्णु मामूली व्यापारी की सत्याग्रह-शक्ति के सामने क्या बिसात
'महिला ने सत्याग्रह-शक्ति के प्रदर्शन का अवसर पाकर कहा - हाँ, ज़रूर पुलिस में रपट करो। मैं तो चाहती हूँ, तुम रपट करो। तुम उन लोगों को यह धमकी दे रहे हो, जो तुम्हारे ही लिए अपने प्राणों का बलिदान कर रहे हैं। तुम इतने स्वार्थांध हो कि अपने स्वार्थ के लिए देश का अनहित करते तुम्हें लज्जा नहीं आती उस पर मुझे पुलिस की धमकी देते हो! बायकाट-कमेटी जाय या रहे; पर तुम्हें तावान देना पड़ेगा; अन्यथा दुकान बंद करनी पड़ेगी।'
यह निश्चय ही अहिंसक संवाद नहीं है। देशसेविका को इस दुकानदार की लाचारी का अंदाज है। क्या महात्माजी को पता है कि उनका अहिंसक आंदोलन उन्हीं के देशवासियों की गर्दन दबाकर कामयाब किया जा रहा है
यह कहते-कहते महिला का चेहरा गर्व से तेजवान हो गया। कई आदमी जमा हो गये और सब-के-सब छकौड़ी को बुरा-भला कहने लगे। छकौड़ी को भी मालूम हो गया कि पुलिस की धमकी देकर उसने बहुत बड़ा अविवेक किया है। लज्जा और अपमान से उसकी गरदन झुक गयी और मुँह जरा-सा निकल आया। फिर उसने गरदन नहीं उठाई।'
‘गर्व से तेजवान’ का व्यंग्य प्रच्छन्न नहीं। छकौड़ी आखिर अपनी आजीविका ही तो चला रहा है! देशसेवा के सामने उसका क्या मोल
'सारा दिन गुजर गया और धेले की बिक्री न हुई। आखिर हारकर उसने दुकान बंद कर दी और घर चला आया।
दूसरे दिन प्रात:काल बायकाट-कमेटी ने एक स्वयंसेवक द्वारा उसे सूचना दे दी कि कमेटी ने उसे 101/- का दंड दिया है।'
छकौड़ी पर दुहरी मार पड़ी है। दुकान पर मुहर के चलते आमदनी बंद है , ऊपर से दंड का भार! वह फिर ‘बेईमानी’करता है:
छकौड़ी इतना जानता था कि काँग्रेस की शक्ति के सामने वह सर्वथा अशक्त है। उसकी जबान से जो धमकी निकल गयी, उस पर उसे घोर पश्चात्ताप हुआ; लेकिन तीर कमान से निकल चुका था। दुकान खोलना व्यर्थ था। वह जानता था, उसकी धेले की भी बिक्री न होगी। 101/- देना उसके बूते से बाहर की बात थी! दो-तीन दिन चुपचाप बैठा रहा। एक दिन रात को दुकान खोलकर सारी गाँठें घर उठा लाया और चुपके-चुपके बेचने लगा। पैसे की चीज़ धेले में लुटा रहा था और वह भी उधार! जीने के लिए कुछ आधार तो चाहिए!'
अहिंसा का आवरण
उसकी यह तरकीब काम नहीं करती। कारण वही है। लोगों के भीतर सहानुभूति और मनुष्यता का अभाव। तो क्या यह अहिंसक आंदोलन जनता में उदात्त भाव पैदा कर पाया या उनके भीतर की हिंसा को उसने सुंदर आवरण पहना दिया'मगर उसकी यह चाल भी काँग्रेस से छिपी न रही। चौथे ही दिन गोइंदों ने काँग्रेस को खबर पहुँचा दी। उसी दिन तीसरे पहर छकौड़ी के घर की पिकेटिंग शुरू हो गयी। अबकी सिर्फ पिकेटिंग शुरू न थी, स्यापा भी था। पाँच-छ: स्वयंसेविकाएँ और इतने ही स्वयंसेवक द्वार पर स्यापा करने लगे।'
गोइंदे यानी जासूस, गोपनीय खबर : यह सब राज्य को चाहिए अपना अनुशासन बनाए रखने के लिए। स्वयंसेवकों के स्यापे में किसी शारीरिक बल का प्रयोग नहीं किया जा रहा, लेकिन क्या यह अहिंसक भी है क्या यह सामूहिकता मानवीय है अंग्रेज़ी हुकूमत का विरोध करते करते कांग्रेस किसका विरोध करने लगी है
'छकौड़ी आँगन में सिर झुकाये खड़ा था। कुछ अक्ल काम न करती थी, इस विपत्ति को कैसे टाले। रोगिणी स्त्री सायबान में लेटी हुई थी, वृद्धा माता उसके सिरहाने बैठी पंखा झल रही थी और बच्चे बाहर स्यापे का आनंद उठा रहे थे।
स्त्री ने कहा- इन सबसे पूछते नहीं, खायें क्या
छकौड़ी बोला - किससे पूछूँ, जब कोई सुने भी!
'जाकर काँग्रेसवालों से कहो, हमारे लिए कुछ इंतजाम कर दें, हम अभी कपड़े को जला देंगे। ज़्यादा नहीं, 25/- महीना दे दें।'
'वहाँ भी कोई न सुनेगा।'
'तुम जाओगे भी, या यहीं से क़ानून बघारने लगे'
'क्या जाऊँ, उलटे और लोग हँसी उड़ायेंगे। यहाँ तो जिसने दुकान खोली, उसे दुनिया लखपती ही समझने लगती है।'
‘तो खड़े-खड़े ये गालियाँ सुनते रहोगे'
'तुम्हारे कहने से चला जाऊँ; मगर वहाँ ठिठोली के सिवा और कुछ न होगा।'
'हाँ, मेरे कहने से जाओ। जब कोई न सुनेगा, तो हम भी कोई और राह निकालेंगे।'
छकौड़ी ने मुँह लटकाये कुरता पहना और इस तरह काँग्रेस-दफ़्तर चला, जैसे कोई मरणासन्न रोगी को देखने के लिए वैद्य को बुलाने जाता है।'
क्या कांग्रेस में वैद्य का कोई गुण है क्या वह इस पीड़ित परिवार की चिकित्सा करने की इच्छा भी रखती है
'काँग्रेस-कमेटी के प्रधान ने परिचय के बाद पूछा - तुम्हारे ही ऊपर तो बायकाट-कमेटी ने 101/- का तावान लगाया है '
'जी हाँ!'
'तो रुपया कब दोगे '
'मुझमें तावान देने की सामर्थ्य नहीं है। आपसे मैं सत्य कहता हूँ, मेरे घर में दो दिन से चूल्हा नहीं जला। घर की जो जमा-जथा थी, वह सब बेचकर खा गया। अब आपने तावान लगा दिया, दुकान बंद करनी पड़ी। घर पर कुछ माल बेचने लगा। वहाँ स्यापा बैठ गया। अगर आपकी यही इच्छा हो कि हम सब दाने बगैर मर जायँ, तो मार डालिये, और मुझे कुछ नहीं कहना है।'
यहाँ कोई पुछवैय्या नहीं है। इन सबकी आत्मा मनुष्यता से शून्य है। टैगोर गांधी को कोई गलत चेतावनी न दे रहे थे!
'छकौड़ी जो बात कहने घर से चला था, वह उसके मुँह से न निकली। उसने देख लिया कि यहाँ कोई उस पर विचार करने वाला नहीं है।
प्रधान जी ने गम्भीर भाव से कहा -
तावान तो देना ही पड़ेगा। अगर तुम्हें छोड़ दूँ, तो इसी तरह और लोग भी करेंगे। फिर विलायती कपड़े की रोकथाम कैसे होगी
‘मैं आपसे जो कह रहा हूँ, उस पर आपको विश्वास नहीं आता'
'मैं जानता हूँ, तुम मालदार आदमी हो।'
'मेरे घर की तलाशी ले लीजिए।'
'मैं इन चकमों में नहीं आता।' '
सांगठनिक सत्ता को चुनौती
यह है आंदोलनकारी और उस जनता के बीच का संवाद जिसकी वह नेता सेवा करने का दम भरता है। छकौड़ी इस अपमान को और बर्दाश्त नहीं कर पाता:
'छकौड़ी ने उद्दंड होकर कहा - तो यह कहिए कि आप देश-सेवा नहीं कर रहे हैं, ग़रीबों का ख़ून चूस रहे हैं! पुलिसवाले क़ानूनी पहलू से लेते हैं, आप गैरकानूनी पहलू से लेते हैं। नतीजा एक है। आप भी अपमान करते हैं, वह भी अपमान करते हैं। मैं कसम खा रहा हूँ कि मेरे घर में खाने के लिए दाना नहीं है, मेरी स्त्री खाट पर पड़ी-पड़ी मर रही है। फिर भी आपको विश्वास नहीं आता। आप मुझे काँग्रेस का काम करने के लिए नौकर रख लीजिए। 25/- महीने दीजिएगा। इससे ज़्यादा अपनी ग़रीबी का और क्या प्रमाण दूँ। अगर मेरा काम संतोष के लायक़ न हो, तो एक महीने के बाद मुझे निकाल दीजिएगा। यह समझ लीजिए कि जब मैं आपकी ग़ुलामी करने को तैयार हुआ हूँ, तो इसीलिए कि मुझे दूसरा कोई आधार नहीं है। हम व्यापारी लोग; अपना बस चलते, किसी की चाकरी नहीं करते। जमाना बिगड़ा हुआ है, नहीं 101/- के लिए इतना हाथ-पाँव न जोड़ता।'
'आप भी अपमान करते हैं, वह भी अपमान करते हैं।' इस एक वाक्य में व्यक्ति और सत्ता या राज्य के बीच के रिश्ते की कहानी है। अंग्रेजों से आज़ादी क्यों चाहिए स्वाभिमान के लिए। वह किसका स्व है किसका मान है क्या कांग्रेस में समस्त जन के मान का विसर्जन हो गया है
आगे के संवाद की किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं:
'प्रधान जी हँसकर बोले - यह तो तुमने नयी चाल चली!
'चाल नहीं चल रहा हूँ, अपनी विपत्ति-कथा कह रहा हूँ।'
'काँग्रेस के पास इतने रुपये नहीं हैं कि वह मोटों को खिलाती फिरे।'
‘अब भी आप मुझे मोटा कहे जायेंगे'
‘तुम मोटे हो ही!'
‘मुझ पर जरा भी दया न कीजिएगा’ '
यह संवाद झारखण्ड या छत्तीसगढ़ की जनताना सरकार और किसी आदिवासी के बीच का भी हो सकता है। प्रधानजी एक छोटे व्यापारी की व्यथा को चाल कह रहे हैं, उसे अपमानपूर्वक ‘मोटा’कह रहे हैं। अगर यह सब अहिंसक है तो हिंसा क्या है
'प्रधान ज़्यादा गहराई से बोले -
छकौड़ीलालजी, मुझे पहले तो इसका विश्वास नहीं आता कि आपकी हालत इतनी ख़राब है और अगर विश्वास आ भी जाय, तो भी मैं कुछ कर नहीं सकता। इतने महान् आंदोलन में कितने ही घर तबाह हुए और होंगे। हम लोग सभी तबाह हो रहे हैं। आप समझते हैं; हमारे सिर कितनी बड़ी ज़िम्मेदारी है। आपका तावान मुआफ कर दिया जाय, तो कल ही आपके बीसियों भाई अपनी मुहरें तोड़ डालेंगे और हम उन्हें किसी तरह कायल न कर सकेंगे। आप ग़रीब हैं, लेकिन आपके सभी भाई तो ग़रीब नहीं हैं। तब तो सभी अपनी ग़रीबी के प्रमाण देने लगेंगे। मैं किस-किस की तलाशी लेता फिरूँगा। इसलिए जाइए, किसी तरह रुपये का प्रबंध कीजिए और दुकान खोलकर कारबार कीजिए। ईश्वर चाहेगा, तो वह दिन भी आयेगा जब आपका नुक़सान पूरा होगा।'
राज्य टैक्स माफ़ करे तो उसका राजपाट कैसे चले, ज़मींदार लगान छोड़ दे तो उसका कारोबार कैसे चले और कांग्रेस अगर यह दंड माफ़ कर दे तो अहिंसक आन्दोलन का रुआब क्योंकर कायम रहे
इसलिए प्रधानजी 'ज्यादा गहराई' से बोलते हैं। यह गहनता साधारण बुद्धि के बस की बात नहीं।
'छकौड़ी घर पहुँचा तो अँधेरा हो गया था। अभी तक उसके द्वार पर स्यापा हो रहा था। घर में जाकर स्त्री से बोला आखिर वही हुआ, जो मैं कहता था। प्रधानजी को मेरी बातों पर विश्वास ही नहीं आया।
स्त्री का मुरझाया हुआ बदन उत्तेजित हो उठा। उठ खड़ी हुई और बोली
- अच्छी बात है, हम उन्हें विश्वास दिला देंगे। मैं अब काँग्रेस दफ़्तर के सामने ही मरूँगी। मेरे बच्चे उसी दफ़्तर के सामने विकल हो-होकर तड़पेंगे। काँग्रेस हमारे साथ सत्याग्रह करती है, तो हम भी उसके साथ सत्याग्रह करके दिखा दें। मैं इसी मरी हुई दशा में भी काँग्रेस को तोड़़ डालूँगी। जो अभी इतने निर्दयी हैं, वह कुछ अधिकार हो जाने पर न्याय करेंगे एक इक्का बुला लो, खाट की ज़रूरत नहीं। वहीं सड़क किनारे मेरी जान निकलेगी। जनता ही के बल पर तो वह कूद रहे हैं। मैं दिखा दूँगी, जनता तुम्हारे साथ नहीं, मेरे साथ है।'
कांग्रेस के साथ सत्याग्रह यह पुनः एक व्यक्ति की सांगठनिक सत्ता को चुनौती है। लेकिन कांग्रेस की भाषा त्याग की ठहरी। वह पार्टी जो कुछ कर रही है, वह स्वराज के लिए, ये पति-पत्नी तो क्षुद्र स्वार्थ के लिए मरे जा रहे हैं!
'इस अग्निकुंड के सामने छकौड़ी की गर्मी शांत हो गयी। काँग्रेस के साथ इस रूप में सत्याग्रह करने की कल्पना ही से वह काँप उठा। सारे शहर में हलचल पड़ जायेगी। हजारों आदमी आकर यह दशा देखेंगे। सम्भव है, कोई हंगामा ही हो जाय। यह सभी बातें इतनी भयंकर थीं कि छकौड़ी का मन कातर हो गया। उसने स्त्री को शांत करने की चेष्टा करते हुए कहा, इस तरह चलना उचित नहीं है अंबे! मैं एक बार प्रधान जी से फिर मिलूँगा। अब रात हुई, स्यापा भी बंद हो जायगा। कल देखी जायेगी। अभी तो तुमने पथ्य भी नहीं लिया। प्रधानजी बेचारे बड़े असमंजस में पड़े हुए हैं। कहते हैं, अगर आपके साथ रियायत करूँ, तो फिर कोई शासन ही न रह जायगा। मोटे-मोटे आदमी भी मुहरें तोड़ डालेंगे और जब कुछ कहा, जायगा, तो आपकी नजीर पेश कर देंगे।'
रियायत से नज़ीर पैदा होती है और शासन समाप्त हो जाता है। ध्यान रहे यह अंग्रेज़ी शासन से लड़ रही कांग्रेस के प्रधानजी की ज़ुबान है।
अंबा एक क्षण अनिश्चित दशा में खड़ी छकौड़ी का मुँह देखती रही, फिर धीरे से खाट पर बैठ गयी। उसकी उत्तेजना गहरे विचार में लीन हो गयी। काँग्रेस की और अपनी ज़िम्मेदारी का खयाल आ गया। प्रधान जी के कथन में कितना सत्य था; यह उससे छिपा न रहा।
आंदोलन की भावशून्यता
यह तर्क वितर्क क्या प्रेमचंद खुद कर रहे हैं क्या वे प्रधान और कांग्रेस की निष्ठुरता का तर्क खोज रहे हैं उसका परिणाम इस परिवार के लिए सम्पूर्ण विनाश है।
'उसने छकौड़ी से कहा - तुमने आकर यह बात न कही थी।
छकौड़ी बोला - उस वक्त मुझे इसकी याद न थी।
'यह प्रधान जी ने कहा है, या तुम अपनी तरफ से मिला रहे हो'
‘नहीं, उन्होंने खुद कहा, मैं अपनी तरफ से क्यों मिलाता'
‘बात तो उन्होंने ठीक ही कही!’
‘हम तो मिट जायेंगे!’
‘हम तो यों ही मिटे हुए हैं!’
‘रुपये कहाँ से आवेंगे। भोजन के लिए तो ठिकाना ही नहीं, दंड कहाँ से दें’
‘और कुछ नहीं है; घर तो है। इसे रेहन रख दो। और अब विलायती कपड़े भूलकर भी न बेचना। सड़ जायें, कोई परवाह नहीं। तुमने सील तोड़कर यह आफत सिर ली। मेरी दवा-दारू की चिंता न करो। ईश्वर की जो इच्छा होगी, वह होगा। बाल-बच्चे भूखों मरते हैं, मरने दो। देश में करोड़ों आदमी ऐसे हैं, जिनकी दशा हमारी दशा से भी ख़राब है। हम न रहेंगे, देश तो सुखी होगा।’
छकौड़ी जानता था, अंबा जो कहती है, वह करके रहती है, कोई उज्र नहीं सुनती। वह सिर झुकाये, अंबा पर झुँझलाता हुआ घर से निकलकर महाजन के घर की ओर चला।'
प्रेमचंद के जाने कितने पात्र महाजन के शिकार हुए हैं। कभी श्राद्ध के लिए, कभी विवाह, कभी गोहत्या का दंड भुगतने के कारण। यह परिवार एक अहिंसक आंदोलन की भावशून्यता की बलि चढ़ने जा रहा है :
'हम न रहेंगे, देश तो सुखी रहेगा'किसका देश है यह कैसा देश है जो व्यक्तियों की बलि लेकर सुखी रहेगा