ब्रिटिश सरकार ने भारत में अपने शासन काल के दौरान जिन-जिन किताबों पर प्रतिबंध लगाया, उनमें 1909 में बाबू नवाब राय बनारसी का उर्दू में लिखा पाँच कहानियों का संग्रह 'सोज़-ए-वतन' (वतन का दुख-दर्द) भी था। नवाब राय के इस कहानी संग्रह की चर्चा हिंदी साहित्य में बहुत ही कम हुई है जिसका मुख्य कारण यह है कि इस किताब पर प्रतिबंध लगने के थोड़े ही समय बाद लेखक नवाब राय की मृत्यु हो गई।
लेकिन यह वास्तविक मृत्यु नहीं थी क्योंकि नवाब राय नाम से कोई व्यक्ति था ही नहीं। नवाब राय दरअसल सरकारी मुलाज़िम धनपत राय श्रीवास्तव का छद्मनाम था जिसका इस्तेमाल वे देशभक्तिपूर्ण कहानियाँ लिखने के लिए करते थे। यह वही धनपत राय हैं जो आगे चलकर मुंशी प्रेमचंद के नाम से विख्यात हुए।
नवाब राय की इन कहानियों में ग़ुलामी की ज़ंजीरें तोड़ देने का संदेश था। लाज़िमी है कि गोरे शासकों को इसमें विद्रोह की गंध आई। संग्रह जब्त कर लिया गया और प्रतियाँ जला दी गईं। अंग्रेजी सरकार के ज़िला कलेक्टर ने धनपत राय के दोनों हाथ काट डालने तक की धमकी दे डाली। ऐसे में उन्होंने नवाब राय के नाम को त्यागना ही बेहतर समझा और मुंशी प्रेमचंद के नाम से अपनी नई साहित्यिक पहचान बनाई। मुंशी प्रेमचंद के पुत्र अमृत राय ने अपनी पुस्तक 'क़लम का सिपाही' में पिता धनपत राय श्रीवास्तव के नवाब राय से प्रेमचंद बनने का दिलचस्प विवरण दिया है।
31 जुलाई 1880 को बनारस के पास लमही नामक गाँव में जन्मे मुंशी प्रेमचंद की आज 144 वीं जयंती है। उनका नाम धनपत राय था। उनके पूर्वज चित्रगुप्तवंशी कायस्थ परिवार से थे जिनके पास आठ से नौ बीघा ज़मीन थी। उनके दादा गुरु सहाय राय गाँव की ज़मीन के रेकॉर्ड रखने वाले पटवारी थे और उनके पिता अजायब लाल डाकघर में क्लर्क। उनकी माँ का नाम आनंदी देवी था। प्रेमचंद की मशहूर कहानी 'बड़े घर की बेटी' के आनंदी वाले चरित्र के लिए प्रेरणा शायद उनकी माँ ही थीं।
धनपत राय पिता अजायब लाल और माता आनंदी देवी की चौथी संतान थे; पहली तीनों लड़कियाँ थीं जिनमें से दो शैशवावस्था में ही मर गईं। तीसरी बेटी का नाम सुग्गी था। उनके चाचा महाबीर ज़मींदार थे जो उन्हें प्यार से 'नवाब' कहकर पुकारते थे। यही नाम धनपत राय ने अपनी कहानियों के लेखक के तौर पर अपनाया ताकि सरकारी नौकरी में रहते हुए किसी भी तरह के क़ानूनी झंझट से बचा जा सके।
धनपत राय श्रीवास्तव ने 1907 में 'नवाब राय बनारसी' के उपनाम से 'सोज़-ए-वतन' नाम से पाँच कहानियों का अपना पहला संग्रह प्रकाशित किया। इस संग्रह में 'दुनिया का सबसे अनमोल रतन', ‘शेख मख़मूर’, ‘यही मेरा वतन है’, 'सिला-ए-मातम’ और 'इश्क़-ए-दुनिया और हब्बे वतन' (दुनिया के लिए प्यार और देशभक्ति) नामक कहानियाँ शामिल थीं। संग्रह की प्रत्येक कहानी ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने का आह्वान करती थी। 'सोज़-ए-वतन' की भूमिका से यह स्पष्ट था कि मुंशी प्रेमचंद ने ये कहानियाँ ‘वर्तमान परिदृश्य’ पर टिप्पणी करने के इरादे से लिखी थीं क्योंकि वे उस समय की सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों को लेकर काफ़ी चिंतित थे।
इनमें एक कहानी 'दुनिया का सबसे अनमोल रत्न' 1907 में मुंशी दयानारायण निगम द्वारा संपादित उर्दू मासिक 'ज़माना' पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। यह पत्रिका कानपुर से निकलती थी। इस कहानी का संदेश था कि देश की आज़ादी के लिए ख़र्च की गई ख़ून की आख़िरी बूँद ही दुनिया का सबसे क़ीमती रत्न होगी। यह कहानी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से प्रभावित थी।
एक दिन जब धनपत राय, जो उस समय सरकारी कर्मचारी थे और स्कूलों के सब-डिप्टी इंस्पेक्टर के रूप में काम कर रहे थे, अपने तंबू में बैठे थे, तो उन्हें ज़िला मजिस्ट्रेट से एक समन मिला जिसमें उन्हें जल्द-से-जल्द पेश होने के लिए कहा गया था।
सर्दियों की रात होने के बावजूद, प्रेमचंद ने तुरंत यात्रा की व्यवस्था की और उस स्थान पर पहुँच गए जहाँ अधिकारी डेरा डाले हुए थे। अपने आगमन पर उन्होंने अधिकारी की मेज़ पर 'सोज़-ए-वतन' की एक प्रति देखी और समझ गए कि मामला क्या है। अधिकारी ने उनसे पूछा कि क्या ये कहानियाँ उन्होंने लिखी हैं। उसने यह पूछना ज़रूरी समझा क्योंकि उस समय यह आम जानकारी नहीं थी कि धनपत राय नवाब राय के उपनाम से कहानियाँ लिखते हैं। वास्तव में सरकार को यह पता लगाने में थोड़ा समय लगा कि इन कहानियों का असली लेखक कौन था क्योंकि नवाब राय नाम का कोई व्यक्ति अस्तित्व में था ही नहीं। जब धनपत राय ने स्वीकार किया कि वे कहानियाँ उनके द्वारा ही लिखी गई थीं तो अधिकारी ने उनसे कहा कि ये कहानियाँ 'राजद्रोहात्मक' हैं। अधिकारी ने टिप्पणी की, 'आप भाग्यशाली हैं कि यह ब्रिटिश शासन है। अगर यह मुग़ल शासन होता तो आपके दोनों हाथ काट दिए जाते। आपकी कहानियाँ एकतरफ़ा हैं और आपने ब्रिटिश सरकार की अवमानना की है।' यह तय हुआ कि धनपत राय को अपनी किताब की सभी प्रतियाँ सौंपनी होंगी और बिना पूर्वानुमति के वे भविष्य में कुछ नहीं लिखेंगे।
ज़िला कलेक्टर ने धनपत राय के घर पर छापा मारने का आदेश दिया जहाँ से 'सोज़-ए-वतन' की लगभग पाँच सौ प्रतियाँ बरामद की गईं और उन्हें जला दिया गया। इस किताब की एक हज़ार प्रतियाँ छपी थीं जिनमें से लगभग 300 पहले ही बिक चुकी थीं। संयोग से कुछ प्रतियाँ 'ज़माना' के कार्यालय में रह गई थीं जिसकी जानकारी प्रशासन को नहीं थी। उन्हें गुप्त रूप से बेच दिया गया। उल्लेखनीय बात यह है कि सरकार की सख़्ती का धनपत राय पर ज़्यादा असर नहीं पड़ा। उनका मानना था कि वे लिखकर अपना काम करते हैं और सरकार प्रतिबंध लगाकर अपना काम करती है।
13 मई 1910 को लिखे एक पत्र में धनपत राय ने अपने प्रकाशक-संपादक मुंशी दयानारायण निगम को लिखा, ''मेरे लिए लेखन कोई छह महीने में एक बार होने वाली घटना नहीं है। यह मेरी दिनचर्या का हिस्सा है। अगर हर महीने कलेक्टर के पास कोई लेख पहुँचता है तो वे सोच सकते हैं कि मैं अपने आधिकारिक कर्तव्यों की उपेक्षा कर रहा हूँ। तब मुझे अतिरिक्त काम दिया जाएगा। इसलिए फ़िलहाल नवाब राय मर रहे हैं। कोई और उनका उत्तराधिकारी होगा।”
मुंशी दयानारायण निगम ने नवाब राय के उत्तराधिकारी के तौर पर 'प्रेमचंद' का नाम सुझाया। धनपत राय को यह नाम पसंद आया और उन्होंने 'नवाब राय' के नाम से लिखना बंद कर दिया और 'प्रेमचंद' बन गए।
इस तरह नवाब राय की मृत्यु हो गई और प्रेमचंद का जन्म हुआ। इस उपनाम से उनकी पहली कहानी अक्टूबर-नवंबर 1910 में ‘बड़े घर की बेटी’ शीर्षक से प्रकाशित हुई।
मई 1937 की 'हंस' पत्रिका में प्रकाशित एक बातचीत में प्रेमचंद ने इस पूरे घटनाक्रम पर रोचक टिप्पणी की है। कथाकार सुदर्शन ने जब इस बातचीत के दौरान पूछा कि आपने नवाब राय का नाम क्यों छोड़ दिया तो प्रेमचंद ने टिप्पणी की, ''नवाब वह होता है जिसके पास कोई मुल्क भी हो। हमारे पास मुल्क कहाँ!’’
सुदर्शन ने कहा, ''बे-मुल्क नवाब भी होते हैं।''
''यह कहानी का नाम हो जाए तो बुरा नहीं मगर अपने लिए यह नाम दंभपूर्ण है। चार पैसे पास नहीं और नाम नवाब राय। इस नवाबी से प्रेम भला जिसमें ठंढक भी है, संतोष भी है।''