क्या एक बार फिर टूटेगी कांग्रेस? पहले कई बार टूटकर खड़ी हो चुकी है पार्टी
आज़ादी के बाद कांग्रेस आज पहली बार सबसे कमजोर स्थिति में है। पार्टी केंद्र की सत्ता से लगातार दूसरी बार बाहर है और यह भी पहली बार हो रहा है कि पार्टी के पास एक स्थायी अध्यक्ष तक नहीं है। सवाल ये है कि अध्यक्ष कौन बने क्या वह गांधी परिवार से होगा या बाहर का इन सभी सवालों के बीच आज कांग्रेस कार्य समिति की बैठक हो रही है। इस बैठक से पूर्व कांग्रेस में एक चिट्ठी ने सियासी बवंडर खड़ा कर दिया है।
एक सवाल यह भी खड़ा हो रहा है कि क्या कांग्रेस पार्टी में फिर कोई विभाजन होने वाला है कांग्रेस में विभाजन का इतिहास जितना लम्बा है, कांग्रेस से निकलकर बाहर जाने वाले नेताओं का राजनीतिक सफर उतना ही छोटा है!
कांग्रेस में छिटपुट नेताओं के बाहर जाने-वापस आने की घटनाओं को छोड़ दें तो प्रमुख विभाजन इंदिरा गांधी के जमाने में ही हुए। 1966 में इंदिरा गांधी जब प्रधानमंत्री बनीं तो के. कामराज और मोरारजी देसाई से उनके मतभेद बढ़े जो पार्टी के विभाजन का कारण बने और 1969 में राष्ट्रपति के चुनाव के दौरान पार्टी दो फाड़ हो गयी थी।
सिंडिकेट और इंडीकेट
पार्टी के सिंडिकेट के उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी की जगह इंदिरा गांधी ने वी.वी. गिरि को वोट देने की वकालत कांग्रेसजनों से की। नतीजा यह हुआ कि के. कामराज, निजलिंगप्पा और मोरारजी देसाई गुट ने कांग्रेस (ओ) तथा इंदिरा गांधी ने कांग्रेस (आर) बना ली। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के 705 सदस्यों में से, 446 इंदिरा गांधी के साथ हो गए थे। उस दौर में कांग्रेस (संगठन) को अनौपचारिक रूप से सिंडिकेट और इंदिरा गांधी गुट को इंडीकेट कहा जाता था।
कांग्रेस (यू) और कांग्रेस (आई)
इंदिरा गांधी के ही कार्यकाल में एक और बड़ा विभाजन तब हुआ जब जब इंदिरा गांधी रायबरेली से चुनाव हार गयीं और केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बन गयी। वाई. बी. चव्हाण, ब्रह्मानंद रेड्डी, देवराज अर्स, देवकांत बरुआ, ए. के. एंटनी, शरद पवार, शरत चंद्र सिन्हा, प्रियरंजन दास मुंशी और के. पी. उन्नीकृष्णन जैसे दिग्गज नेताओं ने इंदिरा गांधी को चुनौती दी और कांग्रेस (यू) बना ली जबकि इंदिरा गांधी ने अपनी पार्टी का नाम कांग्रेस (आई) रख लिया।
1978 में हुए इस विभाजन का कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र और गोवा में अच्छा-ख़ासा असर हुआ था। लेकिन इंडियन नेशनल कांग्रेस (अर्स) में 1981 में बंटवारा हुआ और इस बार शरद पवार पार्टी से अलग हो गए और इंडियन नेशनल कांग्रेस सोशलिस्ट बनी।
बोफोर्स के मुद्दे पर विभाजन
1980 में जैसे ही इंदिरा गांधी वापस सत्ता में आयीं, विभाजित हुए अधिकांश नेता फिर पार्टी में शामिल हो गए। इसके बाद कांग्रेस में बड़ा विभाजन बोफोर्स के मुद्दे पर विश्वनाथ प्रताप सिंह के रूप में देखने को मिला। विभाजन में राजीव गांधी के चचेरे भाई अरुण नेहरू भी विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ खड़े हो गए। आरिफ़ मोहम्मद खान ने भी कांग्रेस छोड़ दी। इस बगावत में विपक्षी दलों का साथ पाकर विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बन गए।
बाद में विश्वनाथ प्रताप सिंह की पार्टी टूट कर अलग-अलग धड़ों में बिखर गयी लेकिन मंडल कमीशन के नाम पर उन्होंने राजनीति का जो बीज बोया उसने कई राज्यों में कांग्रेस के जनाधार को कुतर डाला। उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा आदि प्रदेशों में कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गयी और वापसी नहीं कर पायी।
इसके बाद कांग्रेस में एक विभाजन अर्जुन सिंह और नारायण दत्त तिवारी के रूप में हुआ। बाबरी मसजिद गिराए जाने के बाद नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह और नटवर सिंह ने मिलकर तिवारी कांग्रेस बनाई लेकिन कुछ सालों बाद कांग्रेस में लौट आए।
इस कड़ी में देखें तो कांग्रेस पार्टी में अंतिम विभाजन सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर शरद पवार, पी.ए. संगमा और तारिक़ अनवर के रूप में हुआ लेकिन उसका भी कोई ख़ास प्रभाव नहीं पड़ा। शरद पवार कांग्रेस में नहीं हैं जबकि तारिक़ अनवर की कांग्रेस में वापसी हो चुकी है।
इन विभाजनों के अलावा कांग्रेस पार्टी में नेताओं का आना-जाना आज़ादी के बाद जे. बी. कृपलानी के समय से ही चालू है। दर्जनों बार कद्दावर नेताओं ने पार्टी छोड़ी लेकिन फिर या तो उनका अस्तित्व समाप्त हो गया या फिर वे लौट कर कांग्रेस में आ गए या कांग्रेस के सहारे ही खड़े हैं।
ममता बनर्जी, जे. बी. पटनायक और जगन मोहन रेड्डी जैसे कुछ अपवाद छोड़ दें तो अधिकांश नेता कांग्रेस में लौट आये। लौटने वालों में जगजीवन राम, चरण सिंह, जी. के. मूपनार, पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, माधव राव सिंधिया, अर्जुन सिंह, नारायण दत्त तिवारी, पी. चिदंबरम जैसे बड़े नेता भी शामिल हैं।
शरद पवार, पी.ए. संगमा जैसे कद्दावर नेता भी कांग्रेस छोड़कर गए लेकिन वे भी आज कांग्रेस के सहारे ही राजनीति कर रहे हैं। लेकिन इंदिरा गांधी या राजीव गांधी तक कांग्रेस में जितने भी विभाजन हुए थे वे सफल नहीं हुए।
बहरहाल, 23 नेताओं द्वारा दस्तख़त किये गए इस पत्र में स्थायी अध्यक्ष चुने जाने की बात कही गयी है। साथ ही शक्ति के विकेंद्रीकरण, प्रदेश इकाइयों के सशक्तिकरण और केंद्रीय संसदीय बोर्ड का गठन जैसे सुधार लाकर संगठन में बड़ा बदलाव करने का आह्वान किया है।
वैसे, केंद्रीय संसदीय बोर्ड 1970 के दशक तक कांग्रेस में था लेकिन बाद में उसे खत्म कर दिया गया। कांग्रेस के जिन 23 नेताओं ने सियासी बवंडर खड़ा करने वाले पत्र पर हस्ताक्षर किये हैं उनमें राज्यसभा में विपक्ष के नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद, उप नेता आनंद शर्मा, पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा, पृथ्वी राज चव्हाण, राजिंदर कौर भट्टल, पूर्व मंत्री मुकुल वासनिक, कपिल सिब्बल, एम. वीरप्पा मोइली, शशि थरूर, सांसद मनीष तिवारी, पूर्व सांसद मिलिंद देवड़ा, जितिन प्रसाद, संदीप दीक्षित शामिल हैं। इस मुद्दे पर देखिए, वरिष्ठ पत्रकारों की चर्चा-
इस पत्र में पार्टी की प्रदेश इकाइयों के पूर्व प्रमुख राज बब्बर, अरविंदर सिंह लवली, कौल सिंह ठाकुर और वरिष्ठ नेताओं अखिलेश प्रसाद सिंह और कुलदीप शर्मा के भी दस्तख़त हैं। ऐसे में सवाल यह उठ रहा है कि क्या कांग्रेस में विभाजन होगा
किन बड़े नेताओं ने कराया विभाजन
आज़ादी के बाद कांग्रेस पार्टी 1951 में पहली बार टूटी जब जे. कृपलानी ने इससे अलग होकर किसान मजदूर प्रजा पार्टी बनाई और एन जी रंगा ने हैदराबाद स्टेट प्रजा पार्टी बनाई। इसी साल कांग्रेस से अलग होकर सौराष्ट्र खेदुत (किसान) संघ बनी। 1956 में कांग्रेस फिर टूटी जब सी. राजगोपालाचारी ने इंडियन नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी बनाई। इसके बाद 1959 में बिहार, राजस्थान, गुजरात और उड़ीसा में भी कांग्रेस पार्टी टूटी। यहां कांग्रेस से अलग होकर कांग्रेसी नेताओं ने स्वतंत्र पार्टी बनाई।
1964 में केएम जॉर्ज ने केरल-कांग्रेस बनाई और 1966 में उड़ीसा में हरकृष्णा महाताब ने उड़ीसा-जन-कांग्रेस बनाई। 1967 में चरण सिंह कांग्रेस पार्टी से अलग हुए और भारतीय क्रांति दल बनाया। वहीं, बंगाल में इसी साल अजय मुखर्जी ने बांग्ला-कांग्रेस का ऐलान कर दिया। अगले साल कांग्रेस मणिपुर में बीचों-बीच टूटी। 1969 में कांग्रेस पार्टी से बीजू पटनायक और मारी चेन्ना रेड्डी अलग हुए और उत्कल-कांग्रेस और तेलंगाना प्रजा समिति पार्टियां कांग्रेस के विरोध में खड़ी हो गईं। इसी साल बिहार में जगजीवन राम ने कांग्रेस से अलग होने का फैसला किया और उन्होंने जगजीवन-कांग्रेस पार्टी की स्थापना की।
1984 में असम में शरत चंद्र सिन्हा ने कांग्रेस से अलग होकर अपनी अलग पार्टी बना ली। 1986 में प्रणब दा ने विभाजन का झंडा बुलंद किया और राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस बनाई।
1988 में शिवाजी गणेशन ने तमिलनाडु में कांग्रेस को तोड़कर टीएमएम पार्टी बनाई। 1996 में तो कांग्रेस से टूटकर कई राज्यों में नई पार्टियों को जन्म हुआ।
1997 में बंगाल और तमिलनाडु में कांग्रेस फिर से टूटी। बंगाल में ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस बनाई वहीं तमिलनाडु में बी. रामामूर्ति ने मक्काल कांग्रेस की स्थापना की। 1998 में कांग्रेस पार्टी गोवा, अरुणाचल प्रदेश में टूट कर क्रमशः गोवा राजीव कांग्रेस, अरुणाचल कांग्रेस, ऑल इंडिया इंदिरा कांग्रेस (सेक्युलर) बनी।
अब विभाजन हुआ तो पड़ेगा भारी
इसी तरह 1999 में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनी और जम्मू-कश्मीर में मुफ्ती सईद ने कांग्रेस से अलग होकर पीडीपी बनाई। लेकिन इनमें से अधिकांश पार्टियों का कांग्रेस में विलय हो गया। एक सच यह है कि आंध्र पदेश, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में कांग्रेस को विभाजन का बड़ा खामियाजा उठाना पड़ा है। उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्यों में पार्टी बिना गठबंधन के चुनाव नहीं लड़ सकती और ऐसी स्थिति में कांग्रेस में अब कोई विभाजन होता है तो पार्टी भयंकर मुश्किलों से घिर जाएगी।