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एमएसपी पर ख़रीद का क़ानूनी हक़ दे पाएगी मोदी सरकार?

एमएसपी पर ख़रीद का क़ानूनी हक़ दे पाएगी मोदी सरकार?

किसानों के लिए बनाये गए तीन क़ानून आज मोदी सरकार के गले की हड्डी बन गए हैं।

किसानों के लिए बनाये गए तीन क़ानून आज मोदी सरकार के गले की हड्डी बन गए हैं। सत्ता के गुरूर में किसी भी बड़े क़ानून को बनाने के सर्वमान्य तरीकों को ठेंगे पर रखा गया, नतीजतन किसान भड़क गए। जो आंदोलन पहले मात्र पंजाब और हरियाणा के किसानों तक सीमित था, राष्ट्रीय स्वरुप ले रहा है क्योंकि आंदोलनकारियों ने स्थिति को देखते हुए मांग की धारा मोड़ दी है। 

किसानों की अब मूल मांग है- एमएसपी को क़ानूनी अधिकार बनाना और वह भी सी-2 (कॉम्प्रिहेंसिव कास्ट- जिसमें ज़मीन का किराया या अगर मालिक खुद खेती करता है तो जमीन की कीमत पर ब्याज) फ़ॉर्मूले के तहत जिसमें गेहूं की लागत करीब 1600 रुपये आती है और इसपर 50 फीसदी जोड़ने पर एमएसपी 2400 रुपये प्रति कुंतल होता है। 

किसान गलत नहीं हैं क्योंकि स्वामीनाथन समिति ने “वेटेड एवरेज” का 50 फीसदी अधिक शब्द का इस्तेमाल किया था जिसका सीधा मतलब है कुल लागत। फिलहाल मोदी सरकार ए-२ (पारिवारिक श्रम) फ़ॉर्मूले के तहत लागत की गणना कर रही है जिसका मतलब है खेती में लगे इनपुट की कीमत और परिवार का श्रम। 

भारत में चूंकि प्रति किसान औसत जमीन मात्र 1.06 हेक्टेयर है (बिहार में मात्र 0.40 हेक्टेयर और पंजाब में 3.64 हेक्टेयर) लिहाज़ा अधिकांश किसान परिवार चलाने के लिए दूसरे की जमीन लेकर किराये पर खेती करते हैं जो उनकी लागत में शामिल हो जाता है। 

अब नयी मांग के मद्देनज़र देश के हर किसान को लगता है कि वह गेहूं बोये या बाजरा या चना अथवा अन्य 23 फसलों में से कोई एक, वह सीधे सरकार के पास जाकर कहेगा “लो यह पांच कुंतल बाजरा है और एमएसपी के रेट से दाम दो”। या तो सरकार इसे ख़रीदेगी या निजी व्यापारी।

अर्थशास्त्र में तीन आर्थिक क्षेत्र माने गए हैं- प्राथमिक यानी कृषि एवं संदर्भित क्षेत्र, द्वितीयक यानी उद्योग एवं विनिर्माण और तृतीयक यानी सेवा क्षेत्र। लेकिन इनमें पहले दोनों में होने वाले उत्पादन की प्रक्रिया में जमीन-आसमान का अंतर है जिसे पूरी दुनिया ने या तो समझा नहीं या जान-बूझ कर अनजान बनी रही। नतीजतन, हमने कृषि में उत्पादन को भी औद्योगिक उत्पादन वाले नजरिये से देखना शुरू किया। 

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किसानों की आत्महत्या

खेती अलाभकर बनती गयी और भारत में पिछले 30 वर्षों से हर 37 मिनट में एक किसान आत्महत्या करता रहा। नीति-निर्माता भी परम्परागत तरीके से सोचते रहे और विकास ठहरता रहा। जरा सोचें। एक फ़ोन-निर्माता को पता चले कि कोरोना-जनित संकट से बढ़ी बेरोजगारी के कारण उसके उत्पाद की खपत कम होगी तो अगले कुछ घंटों में वह कारखाने को उत्पादन कम करने का आदेश देगा और भावी घाटा कम कर लेगा। 

किसान की मुश्किल

ऑनलाइन क्लासेज की वजह से स्मार्ट फ़ोन की बिक्री बढ़ने के आसार हों तो कुछ ही घंटों में एक्स्ट्रा माल और ओवरटाइम के जरिये उत्पादन बढ़ा देगा। उत्पादन उसके हाथ में रहता है। लेकिन  फसल बोने के पहले पता नहीं चलता है कि अगले चार से पांच माह मौसम कैसा रहेगा, देश में और कितने क्षेत्र में यही फसल बोयी गयी या निर्यात बाज़ार में उठान कैसा होगा। 

एक बार फसल बोने के बाद किसान के हाथ से उत्पादन प्रक्रिया इंद्र भगवान के हाथ में चली जाती है क्योंकि भारत में आज भी दो-तिहाई खेती असिंचित है। ओला, पाला, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, कीट-पतंग, रोग से अगर फसल बच भी गयी तो अति-उत्पादन से भाव जमीन पर होंगे।

किसान को नुक़सान 

बिहार में धान 1100 रुपये कुंतल में बिका जबकि एमएसपी 1868 रुपये है और मक्का 800 रुपये जबकि एमएसपी 1800 रुपये है। टमाटर, आलू या प्याज के भाव इतने गिर जाते हैं कि ढुलाई का खर्च नहीं निकलता लिहाज़ा इन्हें सड़कों पर फेंका जाता है। दाम बढ़ा तो फायदा आढ़तिया की जेब में। 

किसान आंदोलन पर देखिए वीडियो- 

ध्यान रहे कि विकास चाहे जैसा हो लेकिन अनाज, फल-सब्जियां मानव-अस्तित्व की मूल-भूत जरूरत हैं और चूंकि कृषि उत्पादन की प्रकृति अलग है लिहाज़ा अमेरिका, डेनमार्क या भारत सभी में सरकारी मदद अपरिहार्य है। गेहूं होगा तो पिज्जा भी बनेगा और ब्रेड भी। लिहाज़ा अगर आज केंद्र और राज्य की सरकारें कुल मिलाकर किसानों को 3.25 लाख करोड़ रुपये की कुल सब्सिडी (खाद, बीज, एमएसपी, बिजली व अन्य सभी मदों में) देती हैं तो कोई अहसान नहीं करतीं। 

इसके ठीक विपरीत उद्योगों को विभिन्न मदों में कुल छूट दस लाख करोड़ रुपये से अधिक की देती हैं जबकि आज भी 62 प्रतिशत लोग और आधे कामगार (48 करोड़) खेती से ही जुड़े हैं। 

सन 1970 में गेहूं का समर्थन मूल्य 76 रुपये प्रति कुंतल था जो आज 1975 रुपये यानी 26 गुना है। इसी काल-खंड में केन्द्रीय कर्मचारियों की आय में 130 गुना और अध्यापकों की आय में 320 से 380 गुना की बढ़ोतरी हुई है। खाली “अन्नदाता” कहने से काम नहीं चलेगा।

एमएसपी से जुड़े हैं क़ानून

सरकार कहती है कि तीनों कृषि क़ानून एमएसपी की बात ही नहीं करते। लेकिन किसानों को शक इस बात से हुआ कि मंडियों में, जहाँ से एमएसपी पर अनाज ख़रीदा जाता है, टैक्स जारी रहेगा लेकिन निजी व्यापारी किसानों से सीधी ख़रीद करेंगे और इस टैक्स से मुक्त होंगे। फिर कोई किसान या व्यापारी 8-10 फीसदी टैक्स देने मंडी क्यों जाएगा? 

लिहाज़ा मंडियां ख़त्म हो जाएंगी और किसान की एमएसपी पर सरकारी ख़रीद धीरे-धीरे ख़त्म हो जाएगी। यानी ये क़ानून अप्रत्यक्ष रूप से एमएसपी से जुड़े हैं और सरकार का नया दावा अतार्किक है। 

किसान आंदोलन जो तीनों क़ानून ख़त्म होने की मांग से शुरू हुआ था, अब मूल रूप से एमएसपी पर ख़रीद को क़ानूनी अधिकार बनाने में तब्दील हो गया है और यहीं पर सरकार की समस्या भी शुरू होती है।

देश में करीब 6.5 लाख करोड़ का 292 मिलियन टन अनाज पैदा हुआ है। सरकार ने करीब 2.17 लाख करोड़ का 91 मिलियन टन अनाज (मूल्य के हिसाब से 31 फीसदी) ख़रीदा है जबकि लोक-वितरण प्रणाली में इसके आधे अनाज की ज़रूरत पड़ती है। क्या बाकी 45 मिलियन टन अनाज सरकार व्यापारियों/अनाज-आधारित उद्योगों को बेचेगी? फिर क्या सरकार का काम अनाज बेचना हो जाएगा? 

और तब क्या इसके रखरखाव पर आने वाला खर्च जो पिछले दो दशकों में तीन गुना बढ़ गया है, गैर-उत्पादक उपक्रम नहीं माना जाएगा। उदाहरण के लिए गेहूं किसान से अगर 1925 रुपये लिया गया तो इस पर रख-रखाव का खर्च लगभग इतना ही आयेगा। क्या व्यापारी यह खर्च देगा और 38 रुपये किलो गेहूं ख़रीदेगा? 

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महंगाई बढ़ने का डर

किसानों की मांग है स्वामीनाथन समिति की “वेटेड एवरेज कॉस्ट” को सरकार सही रूप से समझे और सी-2 फार्मूले से (न कि वर्तमान ए-2 एफएल फ़ॉर्मूले से) गणना करके उसका 150 प्रतिशत मूल्य दे। यानी गेहूं का एमएसपी करीब 2350-2400 रुपये। क्या उद्योग या शहरी समाज यह रेट देने को तैयार होगा। 

क्या इससे खुदरा महंगाई आसमान पर नहीं पहुंचेगी? क्या इतनी अधिक सब्सिडी देने से वित्तीय घाटा नहीं बढ़ेगा? सरकार के ये सभी भय निर्मूल हो सकते हैं अगर वह पीडीएस सिस्टम में भ्रष्टाचार पर लगाम लगाये जो इसी के आंकलन के अनुसार बिहार, पंजाब सहित उत्तर भारत के राज्यों में 50 से 75 फीसदी है। 

प्रधानमंत्री ने किसानों को किसान सम्मान निधि के अंतर्गत 6000 रुपये वार्षिक की तीन किस्तों में से 2000 रुपये की एक क़िस्त हाल ही में जारी की। इसे ऐसा बताया जा रहा है कि यह किसानों का भाग्य बदल देगी जबकि इसमें प्रति किसान परिवार मात्र 17 रुपये रोज ही मिल रहे हैं।

समस्या का समाधान नहीं 

प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में किसानों से तीन बातें कहीं। ये हैं- “इन क़ानूनों के बाद आप जहाँ चाहें, जिसे चाहें अपनी उपज बेच सकते हैं; जहाँ सही दाम मिले, आप वहाँ बेच सकते हैं; आप अपनी उपज को एमएसपी पर बेचना चाहते हैं, बेच सकते हैं, आप मंडी में बेचना चाहते हैं बेच सकते हैं, आप निर्यात करना चाहते हैं, व्यापारी को बेचना चाहते हैं, बेच सकते हैं।” पर शायद यह किसानों के सवाल का जवाब नहीं है, न ही किसानों की शंका का समाधान। 

अगर व्यापारी उस टैक्स से मुक्त होगा जो मंडी में बेचने पर लगता है, तो मंडियां ख़त्म हो जायेंगी और एमएसपी व्यवस्था स्वतः ध्वस्त हो जायेगी। इसके अलावा जहाँ तक “जहाँ सही दाम मिले” का सवाल है, एमएसपी पर ख़रीद की बाध्यता नहीं होगी, तो व्यापारी “सही” दाम क्यों देगा? वह तो अति-उत्पादन की स्थिति में पैसे और बारगेनिंग की ताकत से किसानों का शोषण करेगा। 

जिस देश में 86.4 प्रतिशत किसान लघु व सीमान्त हों, यानी दो हेक्टेयर से कम जोत वाला किसान हो, जिसकी पारिवारिक आय छः हज़ार रुपये महीने से कम हो, उससे प्रधानमंत्री का यह कहना कि आप चाहें तो निर्यात कर सकते हैं, एक मजाक ही कहा जा सकता है।

क्या देश के मुखिया को नहीं मालूम कि बिहार में मंडी व्यवस्था न होने के कारण मक्के का एमएसपी 1800 होने के बावजूद किसान इस साल 800-1100 रुपये बेचने को मजबूर हुआ और धान का एमएसपी 1868 रुपये होने के बाद भी 1100 रुपये बेचा गया। कपास गुजरात में किस स्थिति में किसानों को बेचना पड़ता है यह कृषि से जुड़े सभी लोग जानते हैं। 

लिहाज़ा प्रधानमंत्री अगर अपने उद्बोधन में यह आश्वासन देते कि किसान की उपज मंडी में एमएसपी पर ख़रीदने को सरकार या व्यापारी बाध्य होंगे, आप की उपज चाहे निर्यातक ख़रीदे या व्यापारी, एमएसपी से नीचे के भाव पर नहीं ख़रीद सकेगा” तो शायद यह एक माह से चल रहा ये आंदोलन आज ही ख़त्म हो जाता। वार्ता के नाम सरकार द्वारा शब्दों के जाल में फंसाने का आरोप लगातार किसान लगा रहे हैं लेकिन प्रधानमंत्री द्वारा भी उन्हीं शब्दों का प्रयोग शायद किसानों को निराश करेगा। 

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