नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ विरोध लगातार बढ़ता ही जा रहा है। विपक्षी दलों की अधिकांश राज्य सरकारें इस क़ानून को अपने राज्यों में लागू करने से साफ़ मना कर चुकी हैं। अब केरल की सरकार ने इस क़ानून के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया है। सोमवार को ही इस क़ानून के विरोध को और तेज़ करने के लिए कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी राजनीतिक दलों की बैठक हुई थी। इसमें 20 राजनीतिक दल उपस्थित रहे थे। इस बैठक में देश के आर्थिक हालात को लेकर भी चिंता जताई गई थी।
केरल देश में पहला ऐसा राज्य है जिसकी सरकार ने इस क़ानून की वैधता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। राज्य के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने सुप्रीम कोर्ट में मुक़दमा दायर कर इस विधेयक को असंवैधानिक घोषित करने के लिए निर्देश देने की माँग की है। केरल की विधानसभा में दिसंबर, 2018 में इस क़ानून के ख़िलाफ़ प्रस्ताव भी पास हो चुका है। प्रस्ताव में केंद्र की सरकार से कहा गया था कि इस क़ानून के ख़िलाफ़ हो रहे प्रदर्शनों को देखते हुए इसे रद्द कर दिया जाए।
‘संघ के एजेंडे को लागू कर रही बीजेपी’
मुख्यमंत्री विजयन ने आरोप लगाया है कि बीजेपी सरकार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एजेंडे को लागू कर रही है और इस क़ानून के द्वारा देश को सांप्रदायिक आधार पर बांटना चाहती है। अवैध रूप से देश में रह रहे लोगों को बंदीगृह में भेजे जाने को लेकर जब विवाद हुआ था तो मुख्यमंत्री ने कहा था कि वह केरल में किसी भी बंदीगृह को नहीं बनने देंगे। उन्होंने कहा था, ‘ग्रीक, रोमन, अरब सहित कई देशों के लोग केरल आए और ईसाई और मुसलमान भी बहुत पहले केरल में आए थे। हमारी परंपरा समावेशी है और हमें इसे बनाये रखने की ज़रूरत है।’ राज्यसभा में जब यह विधेयक पास हुआ था तब भी विजयन ने बीजेपी सरकार पर हमला बोला था और कहा था कि उनकी सरकार इसे अपने राज्य में लागू नहीं करेगी।
मुख्यमंत्री पी. विजयन का कहना है कि नागरिकता संशोधन क़ानून पूरी तरह समानता के बुनियादी अधिकार का उल्लंघन करता है।
‘प्रस्ताव की क़ानूनी वैधता नहीं’
लेकिन केरल के राज्यपाल आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने कहा है कि केरल विधानसभा में पास किये गये प्रस्ताव की कोई क़ानूनी या संवैधानिक वैधता नहीं है क्योंकि नागरिकता देना केंद्र का विषय है।
केरल में इस क़ानून के विरोध में सत्तारुढ़ मार्क्सवादी पार्टी के साथ ही विपक्षी कांग्रेस ने भी वोट दिया। लेकिन सवाल यह है कि अगर दूसरे राज्यों की विधानसभाएं भी इस तरह क़ानून के विरोध में प्रस्ताव पास कर दें या इस क़ानून के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट पहुंच जाएं तो निश्चित रूप से यह संघीय ढांचे के लिये बहुत बड़ा ख़तरा होगा।