बीजेपी के सहयोगी दल भारत धर्म जन सेना (बीडीजेएस) ने केरल के प्रसिद्ध सबरीमला मंदिर में ग़ैर ब्राह्मण समुदाय से आने वाले किसी शख़्स को मुख्य पुजारी बनाने की मांग की है। बीजेपी बीडीजेएस की इस मांग का समर्थन करने से पहले संघ परिवार के संगठनों में इसे लेकर आम राय बनाने की कोशिश कर रही है।
सबरीमला मंदिर में मुख्य पुजारी का कामकाज त्रावणकोर देवास्वम बोर्ड (टीडीबी) के हाथ में है और अभी तक ब्राह्मण ही मुख्य पुजारी के रूप में नियुक्त होते रहे हैं जबकि इस बोर्ड के अधीन जो बाक़ी मंदिर हैं, उनमें गैर ब्राह्मण समुदाय से आने वाले लोगों को पुजारी बनाया गया है। ऐसे पुजारियों में दलित समुदाय के लोग भी शामिल हैं। यह बोर्ड राज्य सरकार के अधीन आता है।
टीडीबी की ओर से सबरीमला मंदिर में मुख्य पुजारी के पद पर नियुक्ति के लिए विज्ञापन जारी किया गया था। लेकिन कुछ ग़ैर ब्राह्मण पुजारी इस मामले में केरल हाई कोर्ट चले गए थे और ग़ैर ब्राह्मण पुजारियों को मुख्य पुजारी नियुक्त करने की मांग की थी। इस बारे में बोर्ड के अध्यक्ष एन. वासु कहते हैं कि अदालत का जो भी फ़ैसला होगा, हम उसे मानेंगे।
अदालत ने इस मामले में बोर्ड से अपना विचार रखने के लिए कहा था। मामले में जल्द ही अगली सुनवाई हो सकती है।
बीडीजेएस की पुरानी मांग
बीडीजेएस की यह मांग बहुत पुरानी है। इसके प्रदेश अध्यक्ष तुषार वेल्लापल्ली ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ से कहते हैं कि केरल के बहुत सारे मंदिरों में ब्राह्मण पुजारी नहीं हैं और हिंदू समुदाय के अलग-अलग वर्गों के लोग पूजा-पाठ का काम करते हैं। अब सबरीमला मंदिर में भी पुजारी के पद को हिंदू समुदाय के सभी वर्गों के लिए खोल दिया जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला
वेल्लापल्ली ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के 2002 के फ़ैसले का हवाला दिया जिसमें अदालत ने कहा था कि इस बात का कोई औचित्य नहीं है कि केवल एक ब्राह्मण को ही किसी मंदिर में पूजा-पाठ करने की अनुमति है। उन्होंने उम्मीद जताई कि राज्य सरकार भी इस मामले में ग़ैर-ब्राह्मण पुजारियों को सबरीमला में पूजा कराने की अनुमति देगी।
बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष के. सुरेंद्रन कहते हैं कि पार्टी इस विचार के ख़िलाफ़ नहीं है लेकिन अलग-अलग संगठनों के बीच आम सहमति बनाने की कोशिश की जा रही है।
नहीं थी इजाजत
लगभग सौ साल पहले दलितों और पिछड़ों को मंदिरों के आसपास जाने की इजाजत नहीं थी। लेकिन 1924 में हुए वाइकोम सत्याग्रह के कई साल बाद 1936 में दलितों, पिछड़ों को मंदिरों में जाने का मौक़ा मिला।
साल, 2018 में त्रावणकोर देवास्वम बोर्ड (टीडीबी) ने एक बड़ा फ़ैसला लेते हुए दलित समुदाय से आने वाले 5 लोगों को अपने अधीन आने वाले मंदिरों में पुजारी बनाया था। सामाजिक अन्याय और भेदभाव को दूर करने के लिए इससे पहले भी सुधार किए गए थे, जब 1970 में ओबीसी समुदाय के 10 लोगों को पुजारी नियुक्त किया गया था। लेकिन तब ब्राह्मण समुदाय की ओर से इसका जोरदार विरोध किया गया था।
बाद में सुप्रीम कोर्ट के दख़ल के बाद 1993 में ओबीसी समुदाय के पुजारियों को मंदिरों में पूजा-पाठ करने की इजाजत मिल सकी थी।
जारी है भेदभाव
मंदिरों में पूजा-पाठ तो दूर, प्रवेश को लेकर भी दलित और पिछड़े समुदाय के लोगों को बहुत भेदभाव, उत्पीड़न का आज भी सामना करना पड़ता है। उत्तर भारत के मंदिरों में ये भेदभाव और उत्पीड़न बहुत ज़्यादा है, इसलिए यहां मंदिरों को चलाने वाले बोर्ड और पुजारियों को दक्षिण भारत से सीख लेनी चाहिए।
केरल ने इस दिशा में बेहतर काम किया है और अब सबरीमला के मंदिर में मुख्य पुजारी के पद पर ग़ैर ब्राह्मण और दलित समुदाय के लोगों को नियुक्त करने के काम में वहां के लोग आगे आ रहे हैं।
पेरियार का आंदोलन
मंदिरों और सामाजिक जीवन में होने वाले भेदभाव के ख़िलाफ़ ही पेरियार ईवी रामास्वामी ने स्वाभिमान आंदोलन चलाया था। उन्होंने ब्राह्मणवाद की सत्ता पर चोट की थी। पेरियार ने तर्कवाद का सिद्धांत दिया, स्वाभिमान, महिलाओं के अधिकार और जाति के उन्मूलन की बात की और तमिलनाडु से शुरू हुआ ये आंदोलन आज देश भर में फैल चुका है।