राजनीति के कमज़ोर विद्यार्थी हैं अरविंद केजरीवाल!

06:36 pm Feb 27, 2019 | प्रीति सिंह - सत्य हिन्दी

केजरीवाल ने आज दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाये जाने के लिये प्रस्तावित अपने आमरण अनशन को वायुसेना द्वारा जैश के पाकिस्तान स्थित ठिकानों पर हवाई हमले की रोशनी में वापस ले लिया ! कल शाम तक उनका इस बाबत साक्षात्कार ज्यादातर राष्ट्रीय चैनलों की शोभा बढ़ा रहा था।

ख़ुद में ही उलझ गए हैं केजरीवाल

केजरीवाल अपनी और अपने दल की राजनैतिक भूमिका की तलाश में खुद उलझ कर रह गये हैं। लोकसभा चुनावों के लिए दिल्ली में वह कांग्रेस से समझौता करना चाहते थे । 2014 में सातों सीटों पर मतों के बंटवारे के चलते उनकी पार्टी और कांग्रेस सारी सीटें हार गयी थीं। दरअसल उनके पास यह तर्क ही नहीं बन पा रहा है कि कोई उन्हें लोकसभा चुनाव में क्यों वोट दे भरमाने के लिये उन्होंने पूर्ण राज्य की लड़ाई छेड़ दी थी, पर उस पर सर्जिकल स्ट्राइक 2 हो गई ।

मुस्लिम और दलित समाज का एक बड़ा हिस्सा दिल्ली में कम से कम इस बार भी लोकसभा के लिेए कांग्रेस को चुन सकता है, भले ही विधानसभा के लिेेए उसकी पसंद केजरीवाल ही क्यों न हों। केजरीवाल के पास यह फ़ीडबैक था इसलिये उन्होंने कांग्रेस पर डोरे डाले थे, पर कांग्रेस उन्हें ऑक्सीजन देने को तैयार न हुई।

बिना किसी नीति और अस्पष्ट नीयत के चलते केजरीवाल अपनी पार्टी के राष्ट्रीय कैनवस पर फैलने की हर संभावना स्वयं समाप्त कर चुके हैं।हरियाणा को लेकर उनके राज्यसभा चुनाव में किये गये 'गुप्ता प्रयोग' से भी किसी जादू के कहीं कोई संकेत नहीं हैं। हाँ यह ज़रूर हुआ है कि उनकी बची खुची आभा भी ख़त्म हो गई है।

बीच में टिकने वाले लुप्त हो गए

वह बहुत तेज़ और चालाक व्यक्ति हैं, उनके पास बहुत होशियारी और अदम्य मेहनत  से तराशा हुआ व्यक्तित्व है। 'आमफ़हम' होने का कुशल और व्यक्तिनिष्ठ अभिनय उनके व्यक्तित्व को बड़ी ताक़त देता है पर राजनीति में क़ायम रहने के लिये नीति, नीयत और निरंतरता के अलावा पूँजी के रोल को समझने की ज़रूरत अवश्यंभावी है। राजनीति के रंग कई हो सकते हैं पर स्थाई रूप दो ही हैं। या तो आप पूँजी के दलाल हो सकते हैं या उसके मुख़ालिफ़। बीच में टिकने की कोशिश वाले हर प्रयोग को हमने लोहिया, जयप्रकाश, वी. पी. सिंह आदि की तरह समय के साथ लुप्त होते ही पाया है। केजरीवाल भी उसी गति की ओर हैं। हो सकता है कि एकाध चुनाव तक और वे दिल्ली राज्य की क्षेत्रीय पार्टी के रूप में मौजूद मिलें। पंजाब से वे ख़ारिज हो चुके हैं और किसी अन्य राज्य में वे वजूद रख नहीं पा रहे।

सिकुड़ रही राजनीति

देश में अनवरत चलने वाली राजनीतिक लड़ाई सामाजिक न्याय की है। केजरीवाल के क़दमों से लगता है कि तमाम दूसरे दलों की तरह ही वे इसकी ताक़त को ईमानदारी से समझना नहीं चाहते। अतीत में वह आरक्षण विरोधी थे ही। पिछड़े और दलित समाज को 'लॉलीपाप' देकर उल्लू बनाये रखने के दिन गये, यह पाठ पूरे राजनीतिक स्पेक्ट्रम को पढ़ना है और केजरीवाल भी इस विषय के कमज़ोर विद्यार्थियों में से ही हैं। जबकि अनुमान के विपरीत राहुल गांधी को यह ज्यादा साफ़ समझ आ गया है। अगर राहुल गांधी आम चुनाव में इस दिशा पर कुछ साफ़ और सही मुद्दा लाये तो केजरीवाल और सिकुड़ जायेंगे।

वास्तविकता समझना नहीं चाहते!

केजरीवाल सरकार की परफ़ॉर्मेंस बहुत ही अच्छी है। उनके तमाम आउट ऑफ बॉक्स प्रयोग लोकप्रिय हैं , शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्रों में उनकी टीम का काम किसी भी दूसरे राज्य से बहुत बेहतर है। औसतन उनकी सरकार को कोई बेईमान भी नहीं कहता पर यह सब सुपर स्ट्रक्चरल परिवर्तन है जिसकी सीमित भूमिका है और कोई भी राजनीतिक सर्जिकल स्ट्राइक इसके जन समर्थन को हवा में उड़ा सकती है जैसे आज हुआ।लेकिन केजरीवाल ने अपने ख़ुद के लिये ऐसा कोकून तैयार कर लिया है कि न कोई उन्हें कड़वे सच समझा सकता है न ख़ुद वे सच की कड़वाहट बर्दाश्त कर सकते हैं। एक अभिनव प्रयोग की तिल तिल होती समाप्ति दु:ख देती है पर क्या किया जा सकता है