एमपी: उपचुनाव से तय होगा ‘ऑपरेशन कमल’ का भविष्य!
वैसे तो संसद या विधानमंडल के किसी भी सदन की किसी भी खाली सीट के लिए उपचुनाव होना एक सामान्य प्रक्रिया है, लेकिन मध्य प्रदेश की 28 सीटों के लिए के लिए हुए उपचुनाव देश के संसदीय लोकतंत्र की एक अभूतपूर्व और ऐतिहासिक घटना है। इसलिए कि इससे पहले किसी राज्य में विधानसभा की इतनी सीटों के लिए कभी एक साथ उपचुनाव नहीं हुए।
आमतौर पर किसी राज्य में विधानसभा सीटों के लिए होने वाले उपचुनाव के नतीजे उसी राज्य की राजनीति के लिए महत्व रखते हैं, मगर मध्य प्रदेश में 28 विधानसभा सीटों के लिए एक साथ हुए उपचुनाव के नतीजे इसका अपवाद होंगे। ये नतीजे चाहे जैसे भी रहें, देश की राजनीति में ऐतिहासिक और दूरगामी महत्व वाले होंगे।
बीजेपी को मुश्किल नहीं होगी
यह सही है कि इन उपचुनावों के नतीजों से राज्य की आठ महीने पुरानी बीजेपी सरकार को बहुमत हासिल करना है, जिसमें उसे कोई मुश्किल नहीं आती दिखती। क्योंकि 230 सदस्यीय राज्य की विधानसभा में उसे अपना बहुमत कायम करने के लिए महज नौ सीटें जीतनी हैं। हालांकि बहुजन समाज पार्टी के दो, समाजवादी पार्टी के एक और चार निर्दलीय विधायकों का समर्थन भी उसे पहले से ही हासिल है, इसलिए अगर वह नौ सीटों के बजाय दो-तीन सीटें भी जीत लेती है तो भी उसकी सरकार बची रहेगी।
राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ दावा कर रहे हैं कि उपचुनाव के बाद कांग्रेस की सरकार बनेगी। लेकिन उनका यह दावा निराधार लगता है, क्योंकि कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए सभी 28 सीटें जीतनी होंगी, जो कि एक बेहद मुश्किल लक्ष्य है।
अगर उन्हें यह लक्ष्य हासिल भी हो जाता है तो भी बीजेपी के लिए अपनी सरकार बचाए रखना ज्यादा मुश्किल नहीं होगा, क्योंकि कांग्रेस में अभी भी कुछ विधायक ऐसे हैं, जो बीजेपी से सौदेबाजी कर कांग्रेस और विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे सकते हैं।
आगामी नतीजों के क्या मायने होंगे
लेकिन मध्य प्रदेश उपचुनाव के आगामी नतीजों को महज सत्तापक्ष और विपक्ष के संख्याबल के नजरिए से ही नहीं देखा जाना चाहिए। उपचुनाव के आने वाले नतीजों को इस नजरिए से देखना भी उचित नहीं होगा कि शिवराज सिंह चौहान भविष्य में कितने समय तक मुख्यमंत्री रह पाएंगे या प्रदेश कांग्रेस की कमान कमलनाथ के हाथों में रहेगी या नहीं।
इन नतीजों को इस नजरिए से भी देखना महत्वपूर्ण नहीं है कि इनका उन ज्योतिरादित्य सिंधिया की हैसियत पर क्या असर होगा, जिनके कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल होने की वजह से कांग्रेस की सरकार गिरी, बीजेपी की सरकार बनी और उपचुनाव की नौबत आई।
उपचुनाव लड़ रहे बीजेपी के 28 उम्मीदवारों में ऐसे कई पूर्व विधायक हैं, जो सिंधिया के समर्थन में कांग्रेस से बगावत कर बीजेपी में शामिल हुए हैं। अगर इनमें से ज्यादातर उम्मीदवार नहीं जीते तो सिंधिया की हैसियत बीजेपी में कमजोर होगी।
सिंधिया ने वसूली मनचाही कीमत
सिंधिया ने कांग्रेस से बगावत कर बीजेपी की सरकार बनवाने में किए योगदान की अभी तक मनचाही कीमत वसूल की है। सबसे पहले उन्होंने खुद के लिए राज्यसभा की सदस्यता हासिल की। फिर दो किस्तों में अपने समर्थक 11 पूर्व विधायकों को राज्य सरकार में मंत्री बनवाया। उन मंत्रियों को मनचाहे विभाग दिलवाने में भी वे सफल रहे। बाकी जो समर्थक मंत्री नहीं बन पाए उन्हें निगमों और बोर्डों का अध्यक्ष बनवा कर मंत्री का दर्ज़ा दिलवाया।
हारे तो मुश्किल होगी राह
यही नहीं, वे अपने साथ कांग्रेस छोड़कर आए सभी पूर्व विधायकों को उपचुनाव में बीजेपी का टिकट दिलवाने में भी कामयाब रहे। लेकिन अब अगर उनके ज्यादातर समर्थक हार जाते हैं तो वे बीजेपी में मोल-भाव करने की स्थिति में नहीं रह जाएंगे। वे अगर कांग्रेस में भी लौटना चाहेंगे तो वापसी की राह आसान नहीं होगी। अगर किसी तरह लौट भी गए तो वहां उनकी पहले जैसी हैसियत नहीं रहेगी।
‘ऑपरेशन कमल’ का कहर
असल में इन नतीजों को बहुचर्चित ‘ऑपरेशन कमल’ के भविष्य के नजरिए से देखना महत्वपूर्ण होगा। अब तक बीजेपी ने अपने 'ऑपरेशन कमल’ के तहत कई राज्यों में विपक्षी दलों के विधायकों और सांसदों के इस्तीफ़े कराए हैं और फिर उन्हें अपनी पार्टी से चुनाव लड़ा कर विधायक या सांसद बनाया है।
इसी रणनीति के सहारे उसने कर्नाटक, गोवा, मणिपुर अरुणाचल प्रदेश आदि राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें गिराकर या उन्हें सरकार बनाने से रोक कर अपनी सरकारें बनाई हैं और राज्यसभा में भी अपनी ताक़त में जबरदस्त इजाफा कर लिया है।
मध्य प्रदेश में भी उसने इसी ‘ऑपरेशन कमल’ के जरिए अपनी सरकार बनाई, लेकिन इस ऑपरेशन की असल परीक्षा उपचुनाव के नतीजों के रूप में होनी है। अगर कांग्रेस से इस्तीफ़ा देकर बीजेपी में आए ज्यादातर पूर्व विधायक उपचुनाव जीत जाते हैं तो यह इस ऑपरेशन की कामयाबी होगी। इस कामयाबी से दूसरे राज्यों में इसे आजमाने का रास्ता खुलेगा।
महाराष्ट्र, राजस्थान, झारखंड, हरियाणा आदि राज्यों में बीजेपी इस फार्मूले को आजमाने का इरादा रखती है। खबर है कि हरियाणा में कांग्रेस के विधायकों को मध्य प्रदेश की तर्ज पर विधानसभा से इस्तीफ़ा देकर बीजेपी में शामिल होने और उपचुनाव लड़ने का प्रस्ताव मिल चुका है।
झारखंड में भी कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा के कई विधायकों के सामने यह प्रस्ताव लंबित है। हालांकि राजस्थान और महाराष्ट्र में बीजेपी एक बार तो इस सिलसिले में कोशिश कर चुकी है लेकिन उसमें उसे कामयाबी नहीं मिल सकी। लेकिन अगर मध्य प्रदेश में उपचुनाव के ज्यादातर नतीजे उसके पक्ष में रहे तो महाराष्ट्र और राजस्थान में दोबारा कोशिश करने का रास्ता खुल जाएगा।
तमाम दूसरी पार्टियों के विधायकों की नज़र भी मध्य प्रदेश में हुए उपचुनाव के नतीजों पर है। लेकिन अगर कांग्रेस के बाग़ी पूर्व विधायक चुनाव नहीं जीत पाते हैं तो ऐसी स्थिति में 'ऑपरेशन कमल’ पर ब्रेक लग जाएगा।
फिर कोई विधायक अपनी विधानसभा की सदस्यता को ख़तरे में डालने का जोखिम मोल नहीं लेगा, खासकर ऐसे राज्यों में जहां विधान परिषद नहीं है। गौरतलब है कि महाराष्ट्र में विधान परिषद है। वहां, अगर बीजेपी ऑपरेशन कमल के जरिए अपनी सरकार बना लेती है तो वह विधानसभा चुनाव हारने वाले को राज्य विधानमंडल के उच्च सदन यानी विधान परिषद में भेज सकती है। लेकिन मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा और झारखंड में यह सुविधा यानी विधान परिषद नहीं है।
मध्य प्रदेश में अगर ज्योतिरादित्य सिंधिया के ज्यादातर समर्थक हार जाते हैं और इससे सिंधिया की हैसियत कमजोर होती है तो फिर कांग्रेस के उन नेताओं को भी सोचना होगा जो सिंधिया का रास्ता अपनाने का इरादा रखते हैं।
पिछले दिनों राजस्थान में सचिन पायलट ने सिंधिया की तर्ज पर कांग्रेस से बाहर कदम रखने की कोशिश की थी, लेकिन पर्याप्त संख्या में विधायकों का समर्थन न जुटा पाने की वजह से उन्हें अपने कदम पीछे खींचने पड़े थे। लेकिन यूपीए सरकार में मंत्री रहे जितिन प्रसाद और मिलिंद देवडा जैसे युवा नेता कई दिनों से कांग्रेस से बाहर निकलने के लिए कसमसा रहे हैं।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि मध्य प्रदेश के चुनाव नतीजों से तय हो जाएगा कि देश में विधायकों की ख़रीद-फरोख़्त के जरिए सरकारें गिराने-बनाने का खेल आगे भी जारी रहेगा या उस पर ब्रेक लगेगा।