जॉनसन-जेसीबी और नफरत फैलाने वाली राजनीति
ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन भारत की अपनी आधिकारिक यात्रा पर हैं। उन्होंने अपनी यात्रा की शुरुआत साबरमती आश्रम, गुजरात से की। साबरमती वह जगह है जहां से महात्मा गाँधी ने ‘नमक सत्याग्रह’ के लिए दांडी मार्च शुरू किया था। प्रधानमंत्री जॉनसन इसके बाद ब्रिटिश हेवी मशीन कंपनी, जेसीबी पर चढ़कर एक फोटो खिंचवाते हैं और वह फोटो पूरे देश में फैल जाती है। जेसीबी पर खड़े होकर फोटो खिंचवाने के दो परिप्रेक्ष्य हैं, पहला ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन और जेसीबी कंपनी के बीच संबंधों का और दूसरा है वर्तमान भारतीय परिप्रेक्ष्य जिसमें जॉनसन ‘शायद’ अनजाने में भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करते नजर आते हैं। जेसीबी अर्थात जोसेफ सिरिल बैमफोर्ड एग्ज़केवेटर्स लिमिटेड। यह एक ब्रिटिश कंपनी है जिसकी स्थापना 1945 में हुई थी। यह कंपनी अक्सर अपने कॉर्पोरेट एथिक्स को लेकर निचले पायदानों को छूती रही है। समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार जेसीबी समूह ने 2001 से 2013 के बीच 577 मिलियन यूरो, जेसीबी रिसर्च नाम की कंपनी को दिए। यह एक अनलिमिटेड कंपनी है जिसके मात्र दो शेयर हैं और दोनों ही शेयर कंपनी के चेयरमैन एंथनी बेनफोर्ड के पास हैं। जेसीबी रिसर्च की मार्केट वैल्यू मात्र 27 हजार पाउंड बताई गई जबकि इस कंपनी ने 2010 के ब्रिटिश चुनाव में कंजरवेटिव पार्टी को 2 मिलियन पाउंड दान किए थे।
कंजर्वेटिव पार्टी को टोरी पार्टी के नाम से भी जानते हैं। भारत जितने वर्ष भी ब्रिटिश गुलामी में रहा उसमें से ज्यादातर समय यह कंजर्वेटिव पार्टी/टोरी पार्टी ही ब्रिटेन की सत्ता पर काबिज रही। और अब वर्तमान प्रधानमंत्री जॉनसन भी कंजर्वेटिव पार्टी के ही नेता हैं। जॉनसन ब्रिटिश पीएम बनने से पहले लंबे समय तक लंदन के मेयर भी रहे हैं। साथ ही वो उस प्रथम पंक्ति के नेता हैं जो ब्रिटेन को यूरोपियन यूनियन से अलग करना चाहते थे अर्थात वो ब्रेग्जिट के पक्षधर थे। इसके लिए कंजर्वेटिव पार्टी ने आधिकारिक अभियान ‘वोट लीव’ चलाया जिसका उद्देश्य लोगों को ब्रेग्जिट के पक्ष में जागरूक करना था। ‘वोट लीव’ अभियान के लिए जेसीबी कंपनी के चेयरमैन एंथनी बेनफोर्ड ने एक लाख यूरो दान में दिए। जेसीबी कंपनी क्यों इस बात की पक्षधर थी कि ब्रिटेन को यूरोपियन यूनियन से अलग हो जाना चाहिए इसे समझने के लिए दिसंबर 2000 के उस 40 मिलियन यूरो के जुर्माने को जानना चाहिए जो यूरोपियन यूनियन ने जेसीबी पर एंटी-ट्रस्ट कानूनों के उल्लंघन पर लगाया था। यह कानून विभिन्न उद्योगों में स्वस्थ्य प्रतियोगिता को सुनिश्चित करता है जिसका जेसीबी ने उल्लंघन किया था।
जॉनसन-जेसीबी-राजनीति को समझने में यह तथ्य भी मदद कर सकता है कि जॉनसन की कंजरवेटिव पार्टी को जेसीबी ने 2007- 2017 के बीच 7 मिलियन पाउंड से भी अधिक का दान किया है। और ऐसा नहीं है कि पीएम जॉनसन ने अपना ‘फर्ज’ न पूरा किया हो। पीएम जॉनसन की नेतृत्व वाली ब्रिटिश सरकार ने JCB को 2020 में कोविड काल में 600 मिलियन पाउंड की ‘आकस्मिक वित्तीय सहायता’ तब प्रदान की जबकि कंपनी ने पिछले वर्ष ही 447 मिलियन पाउंड का रिकॉर्ड मुनाफा कमाया था।
जॉनसन-जेसीबी एपिसोड समझने के बाद अब यह समझना जरूरी है कि जेसीबी के ऊपर खड़े होकर पीएम जॉनसन भारतीय परिप्रेक्ष्य में क्या कहना चाहते हैं। क्या यह मान लेना चाहिए कि पीएम जॉनसन को उन खबरों के बारे में न कुछ पता है और न ही उन्हे उनकी सहयोगी एजेंसियों ने कुछ बताया है जो भारत में जेसीबी को लेकर चल रही हैं? मध्यप्रदेश का खरगोन, और दिल्ली का जहांगीरपुरी इलाका लगातार ब्रिटेन समेत तमाम वैश्विक मीडिया में छाया हुआ है। द गार्जियन, रायटर्स जैसी ब्रिटिश न्यूज प्लेटफॉर्म लगातार भारत में एक समूह के खिलाफ चल रहे ‘जेसीबी अभियान’ को रिपोर्ट कर रहे हैं। इसके बावजूद अगर पीएम जॉनसन को यह नहीं पता तो इसे झूठ ही माना जाना चाहिए। वैसे झूठ पर उनकी ‘पीएचडी’ सर्वव्यापक है। उदाहरण के लिए- कोविड की पहली लहर के दौरान उनके 10, डाउनिंग स्ट्रीट आवास पर पार्टी चल रही थी जिसमें कोविड प्रोटोकॉल की धज्जियां उड़ाई गईं लेकिन पीएम ने हाउस ऑफ कॉमन्स में इस मामले में झूठ का सहारा लेना ज्यादा उचित समझा लेकिन कुछ दिनों बाद उस पार्टी का एक वीडियो पब्लिक डोमेन में आ गया जिसमें कोविड प्रोटोकॉल का नामोनिशान तक नहीं था।
ब्रेग्जिट को लेकर उनका दीवानापन झूठ के सारे पैमाने तोड़ चुका था। एक रैली के दौरान उन्होंने कहा- कि ब्रिटेन हर हफ्ते 350 मिलियन यूरो यूरोपियन यूनियन को देता है इतना पैसा अगर नैशनल हेल्थ सर्विस को मिल जाए तो स्वास्थ्य सेवाओं की तस्वीर बदल जाएगी। उनका यह दावा ब्रिटेन की स्टेटिस्टिक्स एजेंसी ने ही झुठला दिया।
पीएम जॉनसन ने तो महारानी एलिजाबेथ तक को नहीं छोड़ा। ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली में संसद का सत्र आहूत करना और सत्रावसान करने का अधिकार महारानी के पास है। महारानी अपना यह अधिकार पीएम की सलाह पर लेती हैं। लेकिन पीएम जॉनसन ने झूठ आधार बताकर महारानी से सत्रावसान करवा लिया। बाद में इस सत्रावसान को ब्रिटेन की सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध करार दे दिया। भारत में चल रही इस्लाम विरोधी लहर और नेतृत्व की ‘स्ट्रेटेजिक खामोशी’ देश को सैकड़ों वर्ष पीछे धकेलने को तैयार है। ‘जॉनसन-जेसीबी’ भी इसमें एक अप्रत्यक्ष अनजान सहयोगी की तरह ही कार्य कर रहे हैं। जहां कर्नाटक में वर्तमान हिजाब विवाद विधानसभा चुनावों को ‘निपटाने’ का टूल बनकर आया वहीं ब्रिटेन में बढ़ रही अल्पसंख्यक हिन्दू आबादी को आकर्षित करने के लिए जॉनसन अपना इस्लामोफोबिया समय समय पर प्रदर्शित करते रहे हैं। 2018 में उन्होंने ‘द डेली टेलीग्राफ’ के लिए लिखते हुए बुर्का/हिजाब पहने हुए महिला की तुलना ‘लेटर बॉक्स’ से करने में गुरेज नहीं किया। हिजाब पहने हुए महिला अचानक से अगर यूनिवर्सिटी में लेक्चर के दौरान खड़ी हो जाए तो वो उन्हे ‘बैंक में डकैती करने वाला’ लगने लगता है। जॉनसन द्वारा लिखा गया एकमात्र उपन्यास, ‘द सेवन्टी टू- वर्जिन्स’ भी इस्लामी आतंकवाद की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है।
एक विकसित और जिम्मेदार देश होने के नाते पीएम जॉनसन को ‘जॉनसन-जेसीबी’ बनने से बचना चाहिए था। उन्हे यह समझना चाहिए था कि भारत देश की 50% से अधिक आबादी आज भी इस जेसीबी संस्कृति के खिलाफ है। वो एक अप्रत्यक्ष ट्रम्प बनकर आए थे जिन्होंने प्रत्यक्ष रूप से देश की राजनीति में एक खास समुदाय के खिलाफ चल रहे प्रोपेगेंडा में अपना ‘फोटो-समर्थन’ दे दिया। लेकिन ऐसा नहीं है कि जॉनसन-जेसीबी सिर्फ भारत की राजनीति में दखल कर रहे हैं।
पीएम जॉनसन की प्रिय कंपनी, जेसीबी, उन कंपनियों में शामिल है जिन्होंने पूर्वी यरुशलम व गोलन हाइट्स (फिलिस्तीनी सीमा) में इस्राइली बस्तियों को बनाने में अपना सहयोग प्रदान किया था। जबकि संयुक्त राष्ट्र इन्हे अंतरराष्ट्रीय कानूनों के अनुसार अवैध मानता है। वास्तव में जॉनसन उस संकुचित माइन्डसेट का एक हिस्सा हैं जो किसी न किसी रूप में सत्ता प्राप्ति के तात्कालिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए भविष्य के विश्व को ‘कम रहने योग्य’ बनाने में अपना सहयोग कर रहे हैं।
जॉनसन के देश में संस्थाओं के पास इतना सामर्थ्य है कि पीएम पर जुर्माना लगा सकती हैं, पीएम के झूठे दावों का सांख्यिकी विभाग तत्काल जवाब दे सकता है और सर्वोच्च न्यायालय ‘सर्वोच्च’ न होने के बावजूद सत्रावसान को अवैध ठहरा सकता है। संस्थाएं जीवित और सशक्त रहेंगी तो राष्ट्र सुरक्षित बने रहेंगे फिर कोई फ़र्क नहीं पड़ता की सत्ता किसके हाथ में हैं। परंतु भारत के साथ ऐसा नहीं है। यहाँ जांच एजेंसियों और नौकरशाही से लेकर न्यायपालिका तक अशक्त नजर आ रहे हैं। खुलेआम घृणा की भांग खाकर नरसिंहानंद जैसे लोग भारत को तोड़ने की साजिश में लगे हैं लेकिन किसी को बस अपने ही भाषण की लत लग चुकी है। कभी टीवी से तो कभी लाल किले से।
मुसलमानों के खिलाफ जब घृणा का माहौल बनाया जाता है तब बाबर से लेकर औरंगजेब तक को याद किया जाता है। जबकि पीएम जॉनसन के स्वागत में पूरा भारत एक हो जाता है। यदि आज के सामाजिक संबंधों का निर्धारण इतिहास से ही करना है तो फिर पूरे मुग़ल काल का सामना ब्रिटिश काल से कराना होगा। मुग़ल भारत में आए, भारत में रहे और यहीं उनके कब्रिस्तान हैं। यहीं उनका धन है और यहीं उनके द्वारा बनाई गई और स्वीकार की गई संस्कृतियाँ हैं। मुग़ल काल में भारत दुनिया की जीडीपी में 24% हिस्सा रखता था लेकिन जब अंग्रेज देश का शोषण करके गए तब यह हिस्सा मात्र 4% रह गया।
मुग़ल यहीं कमाते यहीं खाते थे। यहीं बाजार बनता था यहीं के लोग लाभान्वित होते थे। उस समय के दस्तकार, कृषक, मजदूर सभी निम्न वर्गों की हालत अंग्रेजों के काल से कहीं बेहतर थी क्योंकि अंग्रेजों ने भारत के अरबों रुपयों को ब्रिटेन में जाकर खर्च किया। अगर नहीं समझ आया है तो इसे ऐसे समझें कि अंग्रेजों का शासन ऐसा था मानों महमूद गजनवी आए और 250 सालों तक न जाए, बस लूटता रहे। भारत में मुसलमानों की जनसंख्या का हो-हल्ला मचाने वाले जॉनसन-जेसीबी के देश की हालत जान लें। जहां 1961 में ब्रिटेन में हिंदू की आबादी मात्र 30 हजार थी वहीं 2017 में यह बढ़कर 10 लाख से भी अधिक हो गई। अर्थात 1961 के मुकाबले हिंदुओं की जनसंख्या 30 गुना बढ़ गई। जबकि भारत में 1951 के 3.5 करोड़ के मुकाबले 2011 में मुसलमानों की जनसंख्या मात्र 5 गुना ही बढ़ी।2019 के सामान्य चुनावों के दौरान बोरिस जॉनसन अपने झूठ के चरम पर थे। वो लगातार कह रहे थे कि 2030 तक 40 अस्पतालों का निर्माण किया जाएगा। और इसके लिए उनके मंत्री ने 3.7 बिलियन पाउंड के बजट का दावा किया। लेकिन ब्रिटेन की राष्ट्रीय स्वास्थ्य एजेंसी, NHS ने इस दावे की तब पोल खोल दी जब उसने कहा कि 40 अस्पतालों को बनाने में तो 20 बिलियन पाउंड का खर्च होगा।
नागरिक होने के नाते सभी भारतीयों को राजनीतिक प्रोपेगेंडा से बचना चाहिए। क्योंकि भारतीयों के पास नेशनल हेल्थ सर्विस जैसी शक्तिशाली और स्वतंत्र संस्थाएं नहीं हैं। अगर होतीं तो; जब 15 लाख रुपये सभी के अकाउंट में भेजने का दावा किया जा रहा था तब ही उसकी पोल खोल दी जाती। भारत में नागरिक झूठ पीने को बाध्य थे, यह तो समझ में आता है लेकिन अब भारतीयों को ‘घृणा’ पीने की आदत भी डलवायी जा रही है, ये बात समझ में नहीं आती।