क्या अस्थिर होगी हेमंत सरकार?
वर्ष 2000 में झारखंड अलग राज्य बना था। लगभग डेढ़ दशक तक कई सरकारों के पतन और बार-बार राष्ट्रपति शासन लगने से अलग राज्य के औचित्य पर प्रश्नचिन्ह लगता रहा। लेकिन दिसंबर 2014 में बीजेपी की रघुवर सरकार बनने के बाद राजनीतिक अस्थिरता पर विराम लग गया। दिसंबर 2019 में फिर बड़ा राजनीतिक परिवर्तन हुआ। हेमंत सोरेन के नेतृत्व में बनी झामुमो-कांग्रेस सरकार के पास पर्याप्त बहुमत होने के कारण कोई प्रत्यक्ष संकट नहीं दिखता। लेकिन समय-समय पर कांग्रेस और झामुमो दोनों ही पार्टियों के विधायकों के बागी स्वर सुनने को मिले हैं।
आठ अप्रैल को झामुमो के वरिष्ठ विधायक लोबिन हेंब्रम ने संवाददाता सम्मेलन करके आदिवासी हितों की रक्षा के लिए आंदोलन का ऐलान किया है। गत दिनों झारखंड विधानसभा के बजट सत्र में वह सदन में धरने पर बैठकर सरकार के प्रति अपनी नाराज़गी जाहिर कर चुके हैं।
संथाल परगना इलाक़े की बोरियो विधानसभा सीट से विधायक लोबिन हेंब्रम ने 1932 के खतियान के आधार पर स्थानीय निवासी और नियोजन नीति बनाने की मांग पर आंदोलन छेड़ रखा है। इसे झामुमो के भीतर खींचतान के रूप में देखा जा रहा है। घाटशिला में 15 अप्रैल को आयोजित महाजुटान को लेकर भी काफी चर्चा है।
दूसरी ओर, शिबू सोरेन परिवार की बड़ी बहू और जामा से झामुमो विधायक सीता सोरेन ने झारखंड के राज्यपाल से मिलकर कथित तौर पर जनहित के सवालों पर चर्चा की है। इस मुलाक़ात के भी राजनीतिक अर्थ निकाले जा रहे हैं।
दूसरी ओर, कांग्रेस विधायकों की बेचैनी भी साफ़ दिख रही है। कांग्रेस के चार विधायकों- इरफान अंसारी, राजेश कच्छप, विक्सन कांगाड़ी और उमाशंकर अकेला ने बगावत का झंडा बुलंद किया है। उन्होंने वर्तमान चारों कांग्रेस मंत्रियों को बदलकर नए लोगों को मंत्री बनाने की मांग की है।
बीजेपी कैंप द्वारा समय समय पर झारखंड में सत्ता परिवर्तन का शिगूफा छोड़ना जारी है। इस कारण कई तरह की अटकलों को बल मिलता है।
झारखंड की 81 सदस्यों वाली विधानसभा में दिसंबर 2019 में झामुमो को 30 सीटें और कांग्रेस को 17 सीटें मिली थीं। हेमंत सोरेन मुख्यमंत्री बने और कांग्रेस कोटे से चार मंत्री बनाए गए। उस वक़्त झारखंड कांग्रेस के प्रभारी आरपीएन सिंह ने ढाई साल बाद मंत्रियों के कामकाज की समीक्षा करने का आश्वासन दिया था। लेकिन आरपीएन सिंह खुद कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में चले गए। इधर इरफान अंसारी तथा कई अन्य कांग्रेस विधायकों का बगावती तेवर हमेशा जारी रहा।
इस बीच, झारखंड के तेजतर्रार विधायक बंधु तिर्की की विधानसभा सदस्यता रद्द होने की घोषणा भी एक बड़ा राजनीतिक घटनाक्रम है। तिर्की ने बाबूलाल मरांडी की पार्टी झाविमो में रहकर चुनाव जीता था। लेकिन प्रदीप यादव के साथ वह कांग्रेस में शामिल हो गए थे। आय से लगभग सात लाख रुपये की अधिक संपत्ति रखने के आरोप में सजा सुनाए जाने के बाद झारखंड विधानसभा के स्पीकर ने उनकी सदस्यता ख़त्म करने को मंजूरी दे दी। तिर्की झारखंड में स्थानीयता आंदोलन का बड़ा चेहरा हैं।
अलग राज्य बनने के बाद से ही झारखंड को विकास के सवालों बनाम स्थानीय हितों को लेकर कई तरह के टकराव से गुजरना पड़ा। बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व में बनी पहली सरकार को डोमिसाइल और स्थानीयता के आंदोलन की आग में झुलसना पड़ा था। उसकी बाद बनी सरकारों और राष्ट्रपति शासन के दौरान भी लोकल और बाहरी के तनाव बढ़ते रहे। हर सरकार ने विकास के मोर्चे पर कुछ बड़ा करने की कोशिश की। लेकिन हर कोशिश को असमय ख़त्म होते देखा गया। फ़िलहाल हेमंत सोरेन सरकार के सामने आंतरिक संकट से निपटते हुए राज्य को विकास की दिशा में ले जाने की चुनौती है।