‘रामसेतु’ पर मोदी सरकार की ओर से राज्यसभा में दिये गये बयान से साफ़ है कि बीजेपी ने इस मुद्दे पर मनमोहन सरकार को बदनाम करने और राजनीतिक लाभ लेने के लिए लोगों की भावनाएँ भड़काई थी। इससे देश को बड़ी आर्थिक क़ीमत चुकानी पड़ी जो सेतुसमुद्रम परियोजना के समय पर पूरे होने से लाभ के रूप में संभावित था।
22 दिसंबर को राज्यसभा में केंद्रीय मंत्री जीतेंद्र सिंह ने ‘रामसेतु’ से जुड़े एक सवाल के जवाब में कहा कि " स्पेस तकनीक के ज़रिए हम चूना पत्थर के बने नन्हे द्वीप और कुछ टुकड़े खोज पाए हैं। हालांकि हम पुख्ता तौर पर ये नहीं कह सकते कि ये टुकड़े सेतु का हिस्सा रहे होंगे लेकिन इनमें कुछ तरह की निरंतरता दिखती है।"
यूपीए-1 के समय मनमोहन सरकार ने भी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की रिपोर्ट के आधार पर सुप्रीम कोर्ट मे ऐसा ही हलफ़नामा दिया था यह पुल एक प्राकृतिक संरचना मात्र है और इसके मानव निर्मित होने का कोई साक्ष्य नहीं है।
मनमोहन सरकार के इस हलफ़नामे को लेकर बीजेपी ने पूरे देश में हंगामा किया था और कांग्रेस को हिंदू विरोधी सिद्ध करने का अभियान चलाया था। उसका दावा था कि जिसे ऐडम ब्रिज कहा जा रहा है वह और कुछ नहीं भगवान राम की सेना का बनाया वही पुल है जो उन्होंन लंका विजय के समय समुद्र पार करने के लिए बनाया था।
दरअसल, 2005 में मनमोहन सरकार ने सेतु समुद्रम परियोजना को हरी झंडी दी थी जिसके तहत मननार की खाड़ी और पाक जलडमरूमध्य को जोड़ा जाना था। इससे श्रीलंका की परिक्रमा के लिए 400 समुद्री मील का सफ़र करने वाले जहाजों को नया मार्ग मिल जाता। ईंधन के साथ 36 घंटे का समय भी बचता। इस महात्वाकांक्षी परियोजना से बंगाल की खाड़ी और अरब सागर के बीच सीधी आवाजाही संभव हो पाती।
इससे व्यापार और वाणिज्य के क्षेत्र में तो लाभ होता ही, भारतीय नौसेना की शक्ति में भी इज़ाफ़ा होता। नये नौसैनिक अड्डे का विकास भी संभव था। यानी सामरिक दृष्टि से भी भारत के लिए यह महत्वपूर्ण परियोजना थी।
वैसे यह कोई नई परियोजना नहीं थी। इसका प्रस्ताव 1860 में ब्रिटिश कमांडर एडी टेलर ने रखा था। भारत और श्रीलंका के बीच से गुज़रने वाले इस परियोजना का प्रस्ताव 1860 में भारत में कार्यरत ब्रितानी कमांडर एडी टेलर ने रखा था।
यानी 135 साल बाद इस पर अमल होने जा रहा था जिसके तहत उथले समुद्र को 12 मीटर गहरा और 300 मीटर चौड़ा करना था जिसमें जहाजों के आने और जाने, दोनों का मार्ग था। दक्षिण भारतीय राज्य इसे लेकर सतौर पर उत्साहित थे जिन्हें इसमें तेज़ आर्थिक तरक्की का अवसर नज़र आ रहा था। यूरोप और मध्यपूर्व के बीच अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक मार्ग पर तमिलनाडु का तूतीकोरिन बंदरगाह अग्रणी बन सकता था।
लेकिन बीजेपी ने इसे एक अवसर के रूप में लिया। मनमोहन सरकार को हिंदू विरोधी बताने के लिए उसने देश भर में मोर्चा निकाला। आरोप लगाया कि यह पुल भगवान राम ने बनाया था और मनमोहन सरकार उनसे जुड़ा एक स्मारक तोड़ना चाहती है। इसे राष्ट्रीय विरासत घोषित करने की माँग लेकर बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी सुप्रीम कोर्ट चले गये, जिसने 2007 में परियोजना पर रोक लगा दी थी।
मोदी सरकार के ताज़ा हलफ़नामे से यह स्पष्ट हो गया है कि राजनीतिक लाभ के लिए बीजेपी ने देश के दीर्घकालिक हितों को चोट पहुँचाई। यह भी ग़ौर करने की बात है अपनी बात सही साबित करने के लिए बड़े पैमाने पर झूठ का सहारा लिया गया। आरएसएस से जुड़ संगठनों की ओरे अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के नाम का भी इस्तेमाल किया गया। नासा के उपग्रहों की कुछ तस्वीरें यह कहते हुए प्रसारित की गयीं कि नासा ने मानव निर्मित पुल की बात को स्वीकार किया है और इस पुल को 1 करोड़ 70 लाख साल पुराना बताया है।
2007 में नासा के प्रवक्ता माइकल ब्राउकुस ने ऐसे दावों का ग़लत क़रार दिया था। उन्हे कहा था कि तस्वीरों के आधार पर किसी संरचना के निर्माण से संबंधित तथ्य नहीं पता किये जा सकते। लेकिन बीजेपी शोर मचाकर झूठ को सच बताने की कला में सिद्धहस्त है और उसने इस मामले में भी यही किया।
इस बात में कोई शक़ नहीं कि रामकथा भारतीय जनमानस में रची बसी है। रामकथा करोड़ों लोगों को आदर्श जीवन जीने की प्रेरणा देती है। रामनाम ज़िंदगी की जंग में तिनके का सहारा की तरह है। लोगों के लिए राम आस्था का आधार हैं जिन्हें किसी ऐतिहासिक प्रमाण की आवश्यकता नहीं है।
मन में बसे राम को इतिहास की कसौटियों पर कसने का इरादा ही हास्यास्पद है। मसलन जब आरएसएस से जुड़े संगठन रामसेतु को एक करोड़ 70 लाख साल पुराना बता रहे थे तो यह सवाल तो उठेगा ही कि कृषि का आविष्कार ही बमुश्किल दस हज़ार साल पहले हुआ और कांसे से लेकर लोहे तक के इस्तेमाल की कहानी पाँच-छह हज़ार साल से अधिक पुरानी नहीं है। रामायण में जिस तरह के समाज, परिवेश, अस्त्र-शस्त्र की बात है वह इसी दौर की बात है। बेहतर है कि पुराण और इतिहास का घालमेल न किया जाए।