बिहार: क्या जीतन राम मांझी की एनडीए में एंट्री चिराग पासवान का रिप्लेसमेंट है?

07:26 am Sep 03, 2020 | उमेश कुमार राय - सत्य हिन्दी

साल 2015 में जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) से अलग होकर अपनी अलग राजनीतिक पार्टी हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (सेक्युलर) बनाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी तमाम अटकलों पर विराम लगाते हुए दोबारा एनडीए का हिस्सा होने जा रहे हैं। 3 सितंबर को वे आधिकारिक रूप से एनडीए में शामिल हो जाएंगे। 

जीतनराम मांझी वर्ष 2018 तक एनडीए के साथ थे, लेकिन सियासी वजहों से उन्होंने इससे नाता तोड़ लिया था और आरजेडी के नेतृत्व वाले महागठबंधन में शामिल हो गए थे। लेकिन, पिछले महीने मांझी ने महागठबंधन से भी नाता तोड़ लिया। 

तब से ही अटकलें तेज थीं कि मांझी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के साथ मिलकर बिहार का विधानसभा चुनाव लड़ेंगे। पिछले कुछ महीनों में एआईएमआईएम और हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा के नेताओं के बीच कई दौर की बैठकें भी हुई थीं। आखिरकार, उन्होंने एनडीए का हिस्सा बनने का विकल्प चुना।

जीतन राम मांझी ने 2019 का लोकसभा चुनाव महागठबंधन के साथ मिलकर लड़ा था, लेकिन न तो वे खुद एक सीट जीत पाए न और उनकी पार्टी। इसके बावजूद एनडीए में उनका इस्तकबाल किए जाने के कई मायने निकाले जा रहे हैं।

एलजेपी को न्यूट्रलाइज करने की कवायद

लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के सांसद व पार्टी के मुखिया चिराग पासवान और पार्टी के कुछ नेताओं के हालिया वक्तव्यों को देखें, तो साफ तौर पर पता चलता है कि इस विधानसभा चुनाव में पार्टी सीट बंटवारे में अपनी दावेदारी मजबूत रखना चाहती है।

पिछले दिनों चिराग पासवान ने अपने कार्यकर्ताओं से कहा था कि वे सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी करें। पार्टी सूत्रों का कहना है कि इस बार एलजेपी कम से कम 36 सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती है, मगर बीजेपी और जेडीयू 21 सीट ही देने को तैयार हैं। वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव में एलजेपी ने एनडीए में रहते हुए 42 सीटों पर चुनाव लड़ा था जिनमें से वह सिर्फ 2 सीटों पर ही जीत दर्ज कर पाई थी।

मांझी की एनडीए में वापसी के पीछे नीतीश का ही हाथ है।

नीतीश से है खुन्नस

इससे पहले चिराग पासवान कई मुद्दों पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की कड़ी आलोचना कर चुके हैं, चाहे वो पुल का टूटना हो, कोविड-19 का मामला हो या विधानसभा चुनाव को स्थगित करने की मांग हो। इससे साफ जाहिर होता है कि चिराग की खुन्नस बीजेपी से नहीं बल्कि जेडीयू के मुखिया नीतीश कुमार से है।

जिला अध्यक्ष पर कार्रवाई

जून के आख़िरी हफ्ते में एलजेपी के ही एक नेता राघवेंद्र भारती ने खुले तौर पर कह दिया था कि एनडीए गठबंधन अटूट है, जिसके बाद उन पर कार्रवाई करते हुए उन्हें जिला अध्यक्ष के पद से हटा दिया गया था। बाद में भारती ने इस रिपोर्टर से कहा था कि दरअसल उन्होंने बीजेपी के साथ एलजेपी का गठबंधन अटूट होने की बात कही थी और ऐसा उन्होंने इसलिए कहा था क्योंकि वीडियो कांफ्रेंसिंग में खुद चिराग पासवान ने ये बात कही थी। 

भारती ने इस रिपोर्टर से यह भी कहा था, “एलजेपी को बीजेपी के साथ गठबंधन से कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन जेडीयू के साथ वह अनकंफर्टेबल है। अगर एनडीए गठबंधन अटूट होता, तो यही कहने पर मुझे पार्टी के जिला अध्यक्ष पद से क्यों हटाया जाता”

माना जा रहा है कि चिराग पासवान खुद को बिहार के सीएम के उम्मीदवार के तौर पर देखना चाहते हैं और इस राह में नीतीश कुमार रुकावट हैं क्योंकि जब तक नीतीश सक्रिय राजनीति में हैं, तब तक किसी और नेता को एनडीए का मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं बनाया जा सकता।

पिछले दिनों बीजेपी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने वर्चुअल रैली में भी साफ कर दिया था कि एनडीए बिहार विधानसभा का चुनाव नीतीश कुमार के चेहरे पर लड़ेगा।

एलजेपी को तवज्जो नहीं 

इससे जाहिर है कि एलजेपी एनडीए में तीसरे दर्जे की पार्टी की हैसियत रखती है और एलजेपी को ये गंवारा नहीं है। यही वजह है कि वह कभी अधिक सीटों की मांग कर, तो कभी अपनी ही सरकार की आलोचना कर अपना गुस्सा जाहिर कर रही है, लेकिन एलजेपी को न तो बीजेपी तवज्जो दे रही है और न ही जेडीयू।

जानकार मानते हैं कि जेडीयू और बीजेपी किसी तरह की राजनीतिक ब्लैकमेलिंग नहीं चाहती हैं, इसलिए वह एक वैकल्पिक दलित चेहरा तलाश रही हैं, जिसके जरिए एलजेपी को रिप्लेस किया जा सके। मांझी की एनडीए में एंट्री से ये तलाश पूरी होती दिख रही है। 

एलजेपी की होगी विदाई

मांझी की एनडीए में एंट्री से एनडीए की हार-जीत में बहुत अंतर भले नहीं पड़ेगा, लेकिन इससे एलजेपी कुछ हद तक कमजोर ज़रूर होगी क्योंकि वह एनडीए में एकमात्र दलित चेहरा होने को लेकर अब जेडीयू को ब्लैकमेल नहीं कर पाएगी। अगर एलजेपी अब भी अपनी जिद पर अड़ी रहती है, तो एनडीए से उसकी विदाई हो सकती है और उसकी जगह मांझी को मिल सकती है।

चिराग पासवान का अगला क़दम क्या होगा

मांझी की एंट्री से ग़ुस्सा 

‘सत्य हिन्दी’ ने एलजेपी के प्रधान महासचिव शहनवाज अहमद कैफी से कई बार संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने फोन काट दिया। पार्टी के एक नेता ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर कहा, “जीतन राम मांझी के एनडीए में शामिल होने को लेकर 6 सितंबर को दिल्ली में पार्टी की संसदीय समिति की बैठक बुलाई गई है। इस बैठक में इस पर चर्चा होगी और इसके बाद ही पार्टी कोई फ़ैसला लेगी।” उन्होंने ये स्वीकार किया कि एनडीए में मांझी की एंट्री से पार्टी में ग़ुस्सा है।

बिहार में दलित वोट बैंक

जीतन राम मांझी अनुसूचित जाति की बिरादरी से आते हैं। चिराग पासवान भी इसी बिरादरी का हिस्सा हैं। बिहार में महादलित व अनुसूचित जातियों की आबादी करीब 15 प्रतिशत है। इनमें पासवान यानी दुसाध बिरादरी 5 प्रतिशत और मुसहर 1.8 प्रतिशत हैं। वहीं, ओबीसी आबादी करीब 50% प्रतिशत है। 

बिहार की सियासत में एक वक्त था जब दलित और ओबीसी का एकमुश्त वोट किसी एक पार्टी को जाता था, लेकिन हाल के वर्षों में इस वोट बैंक में बिखराव आया है। इसे पिछले लोकसभा चुनाव के परिणाम से भी समझा जा सकता है।

वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में विकासशील इंसान पार्टी के मुकेश सहनी, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) के उपेंद्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी जैसे दलित व पिछड़े चेहरों के बावजूद महागठबंधन को महज एक सीट मिली थी और वह मुसलिम बहुल सीमांचल की सीट किशनगंज थी।

बड़ी ताक़त नहीं हैं मांझी 

मांझी की पार्टी को 2019 के लोकसभा चुनाव में एक प्रतिशत के आसपास वोट मिले थे। इससे पहले वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव में भी उनकी पार्टी का प्रदर्शन संतोषजनक नहीं था। उनकी पार्टी 21 सीटों पर चुनाव लड़ी थी लेकिन एक ही सीट जीत पाई थी। मांझी खुद दो सीट से चुनाव लड़े थे और एक ही जगह से जीत पाए थे। तब हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा को कुल 2.5 प्रतिशत वोट मिले थे। मांझी मुसहर बिरादरी से आते हैं और इस बिरादरी की निर्णायक आबादी सिर्फ गया ज़िले में सिमटी हुई है।

बहरहाल, ये मान लेना कि किसी एक दलित चेहरे पर पूरा दलित समाज वोट डालेगा, सही नहीं है। दूसरी बात ये है कि बीजेपी और जेडीयू खुद भी दलित व पिछड़े समुदायों के वोट के लिए युद्ध स्तर पर काम कर रही हैं, इसलिए भी दलित व पिछड़े वर्ग का वोट बैंक चुनाव में बिखरने के आसार हैं।

3 साल तक महागठबंधन का हिस्सा रहे जीतनराम मांझी दोबारा एनडीए में शामिल हो रहे हैं, तो इसके पीछ कोई वैचारिक मतभेद नहीं बल्कि निजी सियासी महत्वाकांक्षा है। इसकी पुष्टि खुद पार्टी के प्रवक्ता के बयान करते हैं।

हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा के प्रवक्ता दानिश रिजवान कहते हैं, “हम महागठबंधन का हिस्सा थे, लेकिन महागठबंधन में केवल तेजस्वी यादव और उनके परिवार की ही चलती है। वे हमारी इच्छाओं पर बिल्कुल ध्यान नहीं देते थे। हमारे नेता के पास आत्मसम्मान की रक्षा के लिए महागठबंधन से बाहर निकलने के सिवाय और कोई उपाय नहीं था।”

मांझी की सियासी महत्वाकांक्षा 

दरअसल, मांझी के दिल में भी फिर से सीएम का बनने का ख्वाब पल रहा है, इसलिए महागठबंधन को अलविदा कहने के पीछे उनकी ये उम्मीद भी है कि शायद एनडीए में उन्हें वरीयता मिल जाए। इस साल जुलाई में अपने कार्यकर्ताओं को वर्चुअल रैली के जरिए संबोधित करते हुए मांझी ने कहा था कि वे विधानसभा चुनाव की तैयारियां जोर-शोर से शुरू करें, ताकि एक बार फिर महादलित समाज का नेता मुख्यमंत्री बन सके।

महागठबंधन को कितना नुक़सान होगा

महागठबंधन में कई चेहरे हैं, जो दलित-पिछड़े समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं, इसलिए फिलवक्त तो मांझी के जाने से कोई बड़ा नुक़सान नहीं होता दिख रहा है। आरजेडी खुद भी दलित व पिछड़ा वोट बैंक साधने की कोशिश में लगी हुई है। हाल के समय में दलित व पिछड़ों से जुड़े आरक्षण समेत दूसरे मुद्दों को तेजस्वी यादव ने जोरशोर से उठाया है।

आरजेडी की प्रतिक्रिया

आरजेडी के राष्ट्रीय प्रवक्ता डॉ. नवल किशोर ने ‘सत्य हिन्दी’ से बातचीत में कहा कि जीतन राम मांझी के महागठबंधन से अलग होने से महागठबंधन को बहुत फर्क नहीं पड़ने वाला क्योंकि वह अपनी मर्जी से अलग हुए हैं। 

उन्होंने कहा, “राजनीति में विचारों की लड़ाई होती है। हम लोग शुरू से ही बीजेपी की विभाजनकारी और ग़रीब विरोधी नीतियों से लड़ रहे हैं और इसी लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए महागठबंधन बनाया गया है। मांझी भी जब महागठबंधन का हिस्सा थे, तो वह बीजेपी और जेडीयू की आलोचना करते थे, लेकिन अब दोबारा उन्हीं के साथ हाथ मिला लिया है। इससे उनकी छवि पर असर पड़ा है।”