झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता हेमंत सोरेन ने झारखंड के 11वें मुख्यमंत्री के रूप में कार्यभार ऐसे समय संभाला है जब राज्य बेहद नाज़ुक स्थिति में है। इतिहास के दोराहे पर खड़े राज्य का हर पाँचवाँ युवक बेरोज़गार है, खाद्यान्न की कमी है, राज्य सरकार पर 85 हज़ार करोड़ रुपए का कर्ज़ है और ख़ज़ाना खाली है।
इसके ऊपर मुसीबत यह है कि चुनाव के पहले जो लोकलुभावन वायदे किए गए हैं, उन्हें पूरा करने में हज़ारों करोड़ रुपए खर्च़ हो सकते हैं। और यह सब ऐसे समय हो रहा है, जब देश की अर्थव्यवस्था धीमी हो चुकी है और तेज़ी से मंदी की ओर बढ़ रही है।
हेमंत सोरेन को काँटों का ताज़ मिला है, यह तो साफ़ है। अब सवाल यह उठता है कि वे अपने पड़ोसी राज्य बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार के पहले कार्यकाल से शिक्षा लेते हुए गुड गवर्नेंस पर ध्यान देकर स्थिति संभालने की कोशिश करते हैं या बिहार के ही पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव की तरह पहचान की राजनीति के सहारे दिन काटते हैं।
कर्ज़ का बोझ
रघुबर दास ने 2014 में जब सत्ता संभाली थी, झारखंड सरकार पर 39 हज़ार करोड़ रुपए से ज़्यादा का कर्ज़ था। जब उन्होंने गद्दी छोड़ी, सरकार पर कर्ज़ बढ़ कर 85 हज़ार करोड़ रुपए हो चुका था। यानी रघुबर दास सरकार ने लगभग 46 हज़ार करोड़ रुपए का कर्ज़ 5 साल में लिया, चुकाया एक पैसा नहीं। यह झारखंड में किसी मुख्यमंत्री के द्वारा लिया गया सबसे ज़्यादा कर्ज़ है।ख़ज़ाना खाली
सोरेन सरकार की मुख्य दिक्क़त कर्ज चुकाने की नहीं है, वह तो बाद की बात है, पहला संकट तो यह है कि ख़जाना खाली है। सरकारी कर्मचारियों के वेतन भुगतान के लिए पैसे नहीं हैं और इसके लिए राज्य सरकार को ओवरड्राफ़्ट लेना होगा।बेरोज़गारी
नेशनल सर्वे सैंपल ऑफ़िस (एनएसएसओ) ने इस साल मई में बेरोज़गारी के जो आँकड़े दिए थे, उसके अनुसार झारखंड में बेरोज़गारी दर 7.7 प्रतिशत है, जो पूरे देश में 5वीं सबसे ऊंची दर है। शिक्षित युवाओं में यह और ज़्यादा है। राज्य में 46 प्रतिशत पोस्ट ग्रैजुएट और 49 प्रतिशत ग्रैजुएट बेरोज़गार हैं।
शिक्षित युवाओं में हर पाँचवाँ युवक बेरोज़गार है। सरकार ने 2018-19 के दौरान एक लाख युवकों को रोज़गार से जुड़े तरह-तरह के प्रशिक्षण दिए, पर उनमें से 80 प्रतिशत लोगों को नौकरी नहीं मिली है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक़, झारखंड में लगभग 4 लाख लोग बेरोज़गार हैं।
ख़स्ताहाल उद्योग-धंधे
लेकिन बेरोज़गारी इस दौर में रोज़गार के मौके बनाना राज्य सरकार के लिए बेहद मुश्किल भरा काम है। इसकी वजह यह है कि राज्य का जो बड़ा उद्योग इस्पात है, वह ख़स्ताहाल है। जमशेदपुर स्थित टाटा स्टील के संयंत्र को उत्पादन कम करना पड़ा है, क्योंकि घरेलू और अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में इस्पात की माँग कम हो गई है। इसे इससे भी समझ सकते हैं कि टाटा स्टील ने अपनी यूरोपीय ईकाई बंद कर दी है। जमशेदपुर संयंत्र में लोगों पर छंटनी की तलवार लटक रही है।जमशेदपुर के पास ही आदित्यपुर वह जगह है, जहां छोटी-बड़ी पचासों इकाइयाँ हैं, जो मोटर और इस्पात उद्योग से जुड़े कल-पुर्जे बनाते हैं। इसमें हज़ारों लोगों को रोजग़ार मिला हुआ है, पर इस सेक्टर पर भी मंदी की मार है। इसे हम ऐसे समझ सकते हैं कि कल-पुर्जे बनाने वाली इकाइयों में पूरे देश में एक लाख लोगों की नौकरी जा चुकी है। ऐसे में झारखंड में नई नौकरियों के मौके नहीं बनने जा रहे हैं।
चौपट खदान
खनिज पदार्थ के लिए पूरे देश में मशहूर झारखंड में खदानों की स्थिति बहुत बेहतर नहीं है, क्योंकि ज़्यादातर खदानों से अयस्क ही निकलते हैं, जिनकी ज़रूरत इस्पात उद्योग को है। पर इस्पात उद्योग में तो मंदी है।झरिया और धनबाद के आसपास के इलाक़े कोयला के अकूत भंडार के लिए मशहूर हैं। पर कोयला उद्योग भी बुरी हाल में है। इसकी वजह यह है कि यह कोयला मोटे तौर पर अधिक राख और कम ऊर्जा वाला है, जिस वजह से ताप बिजलीघर वाले इसे ख़रीदने से कतराते हैं। वे इसके बदले ऑस्ट्रेलिया जैसी जगहों से कम राख, अधिक ऊर्जा वाला कोयला आयात करते हैं। सरकारी कंपनी कोल इंडिया फटेहाल है।
राँची स्थिति सरकारी कंपनियाँ मेकॉन, बीएचईएल बुरी हाल में है। पतरातू स्थित राज्य सरकार का ताप बिजलीघर एनटीपीसी ले चुका है। घाटशिला स्थित हिन्दुस्तान कॉपर लिमिटेड लगभग बंद हो चुका है।
अभ्रक उद्योग पहले ही पूरी तरह ख़त्म हो चुका है। इसलिए खदान के क्षेत्र में नौकरियों की बहुत संभावनाएँ नहीं हैं।
भारत की आर्थिक स्थिति इतनी बुरी पहले से ही है कि विदेश से कोई नई परियोजना झारखंड में आए, इसकी संभावना ही कम है। जिस देश में जीडीपी वृद्धि 4.5 प्रतिशत हो, अर्थव्यवस्था मंदी की ओर बढ़ रही हो और सरकार की प्राथमिकता अर्थव्यवस्था सुधारना बिल्कुल न हो, वहाँ अरबों रुपये का निवेश क्यों करेगा?
कम खाद्यान्न
झारखंड में खाद्यान्न उत्पादन ज़रूरत से कम है। राज्य को सालाना 50 लाख टन खाद्यान्न की ज़रूरत है, पर यहां उत्पादन 40 लाख टन के आसपास ही होता है। शेष यह बिहार से लेता है। बिहार से तो यह अब भी ले ही सकता है, पर इसके लिए पैसे चाहिए, जो सरकार के पास नहीं हैं।नक्सलवाद
झारखंड के 13 ज़िले नक्सलवाद से प्रभावित हैं। खूंटी, गुमला, लातेहार, रांची, गिरिडीह, पलामू, गढ़वा, सिमडेगा, दुमका, लोहरदगा, बोकारो और चतरा में कई जगहों पर नक्सलवादी आन्दोलन चल रहे हैं। हेमंत सोरेन ने पहले भी कहा है कि उनकी पार्टी सरकार में आई तो इस समस्या से निपटेगी।
यह आन्दोलन सरकार बदलने से ख़त्म नहीं होगा। राज्य सरकार इसके ख़िलाफ़ बड़ा अभियान छेड़ कर इसे नियंत्रित कर सकती है, पर उसके लिए जो पैसे चाहिए, वह सरकार के पास नहीं होंगे।
लोकलुभावन वायदेइसके अलावा राजनीतिक दलों ने जो वायदे किए हैं, उन्हें पूरा करना अलग सिरदर्द है। किसानों के कर्ज माफ़ करने का वायदा किया गया था, पर इसके लिए 6,000 करोड़ रुपए की ज़रूरत होगी। इसी तरह सरकार ने स्कूलों के पैराटीचर्स को स्थायी करने का आश्वासन दिया था। इस पर सालाना 75 करोड़ रुपए का अतिरिक्त खर्च आएगा।
अर्थव्यवस्था को सुधारने की एक बड़ी दिक्क़त यह है कि पूरे देश की आर्थिक स्थिति ख़राब है और उसका असर झारखंड पर भी है। झारखंड में भी एक बड़ा मध्यवर्ग उभरा है, पर उसकी आमदनी कम हुई है और उसका खपत कम हुआ है।
यह लोहा-इस्पात, खनिज, ऑटो, इंजीनियरिंग और कोयला जैसे सेक्टर में उत्पादक राज्य है, इसे जीएसटी के तौर पर अच्छा पैसा मिल सकता है। पर इसे केंद्रीय जीएसटी से हिस्सा नहीं मिला है। केंद्र सरकार का जीएसटी लक्ष्य से कम है। राजस्व बढ़ाने के उपाय कम हैं। हेमंत सोरेन के सामने चुनौती यह होगी कि वे किसी भी तरह राजस्व उगाही बढ़ाएँ, लोकलुभावन वायदों को अभी रोक कर रखें और चुस्त प्रशासन दें। वे किसी तरह कहीं से निवेश लाएँ और किसी सूरत में खनिज उत्पादन बढ़ाएं।