क्या ‘जय फ़िलिस्तीन’ कहने पर संसद की सदस्यता जा सकती है? पत्रकार ने पूछा।ढेर सारे लोगों ने माँग करना शुरू कर दिया कि असदुद्दीन ओवैसी की सदस्यता रद्द कर दी जाए क्योंकि उन्होंने सांसद के रूप में पद ग्रहण करते वक्त शपथ लेने के बाद फ़िलिस्तीन की जय का नारा लगाया। जो लोग इज़राइल की मोहब्बत में पागल हो गए हैं उन्होंने कहा कि आख़िर कोई सांसद एक शत्रु देश की जय का नारा कैसे लगा सकता है। इन लोगों ने ओवैसी साहब के घर पर हमला किया। दिल्ली पुलिस ने उन्हें अपना राष्ट्रवादी रोष प्रदर्शन करने दिया। जिन लोगों ने यह हमला किया था वे दुबारा आए लेकिन पुलिस ने उनकी निशानदेही न की, उन पर किसी कार्रवाई की बात तो दूर।
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पिछले कुछ बरसों ने दिल्ली पुलिस ने एक क़ायदा बना रखा है:अगर राष्ट्रवादी हिंसा हो रही हो तो वह उसे हिंसा नहीं मानती।
दिल्ली पुलिस तो बार बार लोगों के इस आरोप को सच साबित करती जान पड़ती है कि वह भाजपा के दंडात्मक विभाग की तरह काम करती है। लेकिन ओवैसी साहब के घर पर हमले की घटना पर किसी राजनीतिक दल ने कुछ नहीं कहा, अगले दिन संसद में इसका कोई उल्लेख भी नहीं हुआ, इससे हिंसा के प्रति भारत की सामूहिक सहनशीलता के स्तर का पता चलता है। या यह कहना अधिक ठीक होगा कि मुसलमान के ख़िलाफ़ हिंसा के प्रति ग़ैर मुसलमानों में बेपरवाही बढ़ती जा रही है। वह एक आम मुसलमान के साथ हो या सांसद के साथ, इससे फ़र्क नहीं पड़ता।
कुछ लोग ओवैसी साहब पर हमले को नाटक मानते हैं। उनके पक्ष में या उन पर हिंसा के खिलाफ बोलने से राजनीतिक नुक़सान का ख़तरा भी है, इसलिए कोई धर्मनिरपेक्ष दल या नेता कुछ नहीं बोलता। लेकिन यह कितना ख़तरनाक है, मात्र इससे मालूम होता है कि पिछली संसद में एक मुसलमान सांसद को गाली गलौज के बाद भी संसद चलती ही रही थी।
जो ओवैसी साहब पर हमला कर रहे हैं वे जानना भी नहीं चाहते कि भारत ने स्वतंत्र देश के रूप में अब तक फ़िलिस्तीन की अपनी मान्यता वापस नहीं ली है। भारत की आज की सरकार अवश्य ही फ़िलिस्तीन को नेस्तनाबूद करने वाले इज़राइल की हर तरीक़े से मदद कर रहा है लेकिन अब तक उसे यह हिम्मत नहीं है कि फ़िलिस्तीन राज्य के अधिकार के प्रति भारत के पारंपरिक समर्थन से वह पीछे हट जाए।
जय फ़िलिस्तीन ही नहीं इस बार सांसदों ने शपथ ग्रहण के बाद अलग से अपनी प्रतिबद्धताओं की घोषणा करना आवश्यक समझा। कुछ ने संविधान की जय के नारे लगाए, कुछ ने अल्पसंख्यकों और पीड़ितों के प्रति अपनी एकजुटता ज़ाहिर की। ऐसा करनेवाले भाजपा के विरोधी दलों के सांसद थे। लोक सभा अध्यक्ष ने संविधान की जय को अनावश्यक बतलाया क्योंकि शपथ तो संविधान की ही ली जा रही थी।अगले दिन विपक्षी दलों के सांसदों ने उनका स्वागत ‘जय संविधान’ के नारे से किया।
सत्ताधारी दल की तरफ़ से हिंदू राष्ट्र का नारा लगाया गया, हेडगेवार की जय का भी। लोक सभा अध्यक्ष को इस पर कोई एतराज न था।
यह असाधारण स्थिति है। संसद की शुरुआत ही तनातनी और जैसे युद्ध की रेखा खींचने के साथ हो रही है। प्रधानमंत्री ने सर्वसम्मति से देश चलाने की बात की थी लेकिन संसद के संचालन के तरीक़े से साफ़ कर दिया गया है कि भले ही पूर्ण बहुमत न हो, सरकार पुरानी ढिठाई के साथ काम करती रहेगी।
जनादेश अगर कुछ है तो यह कि विपक्ष की अनदेखी नहीं की जा सकती। लेकिन मोदी नीत भाजपा ने साफ़ कर दिया है कि वह विपक्ष को लोक सभा में उपाध्यक्ष का पद देने में कोई रुचि नहीं रखता। इसका मतलब यही है कि भाजपा संपूर्ण प्रभुत्व के रास्ते पर ही चल रही है।
ओम बिड़ला ने पहले दिन से ही यह दिखला दिया है कि विपक्ष के लोगों को बोलने नहीं दिया जाएगा। सरकार के लिए असुविधाजनक सवालों को नज़रअंदाज़ करने का या उनपर बिलकुल खामोशी रखने का रवैया बरकरार रहेगा। ऐसा करके भाजपा अपने समर्थकों को बतलाना चाहती है कि वह कमजोर नहीं पड़ी है और वे विषय महत्त्वपूर्ण नहीं हैं या हैं ही नहीं जिनके बारे में विपक्ष बार बार बोल रहा है।
भाजपा हमेशा अपने मतदाताओं से ही बात करती रहती है। उन्हें यक़ीन दिलाना ज़रूरी है कि सबकुछ ठीक है और विपक्ष अनावश्यक शोर मचा रहा है। जैसा अब तक दीख रहा है मीडिया सरकार के प्रचारक और समर्थक की अपनी पुरानी भूमिका को छोड़ने का ख़तरा नहीं उठाना चाहता।
जिस विषय पर सरकार चुप रहती है, वह विषय फिर होता ही नहीं। जैसे मणिपुर की हिंसा का सरकार ने कोई ज़िक्र नहीं किया, राष्ट्रपति के अभिभाषण में मणिपुर का नाम नहीं लिया गया। ऐसा करके भाजपा सरकार बतलाना चाहती है कि मणिपुर विचारणीय ही नहीं है। मुसलमानों और ईसाइयों पर हिंसा या बस्तर में आदिवासियों के ख़िलाफ़ हिंसा को लेकर सरकार की चुप्पी के पीछे भी यही है: वह इस लायक़ नहीं कि सरकार उसे ज़बान पर भी लाए।
क्या भाजपा के मतदाता इतने गए गुजरे हैं कि वे भी मान लें कि ये समस्याएँ हैं ही नहीं? क्या उन्होंने जिसे वोट दिया है उससे वे कभी सवाल नहीं करेंगे? क्या निरंतर झूठ और धोखाधड़ी ने उनको इस कदर कुंद कर दिया है कि वे सवाल करने के लायक़ नहीं रहे? या क्या उन्हें भी उस सबको स्वीकार करते झेंप होती है जो साफ़ साफ़ दीख रहा है क्योंकि उन्होंने इनके लिए जिम्मेदार भाजपा को वोट दिया है? क्या वे राष्ट्रवाद के मारे हुए हैं?
(अपूर्वानंद देश के जाने-माने चिन्तक और स्तंभकार है और दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं)