लोकसभा चुनाव में भाजपा के लिए आसान नहीं होगी बिहार में जीत
लोकसभा चुनाव 2024 को अब करीब 6 माह ही बचे हैं। ऐसे में सभी राजनैतिक दल अभी से इसकी तैयारियां कर रहे हैं। भाजपा के लिए जो राज्य आगामी लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा मुश्किल पैदा कर सकता है उसमें बिहार प्रमुख राज्य है। बिहार में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव ने जो राजनैतिक चाल चली है उससे भाजपा को आगामी लोकसभा चुनाव में बड़ा नुकसान हो सकता है।
बिहार में भाजपा की ताकत नीतीश कुमार के एनडीए से अलग होने के बाद काफी कम हुई है। वहीं नीतीश कुमार की जदयू और लालू प्रसाद की राजद, कांग्रेस और अन्य वामदलों का महागठबंधन फिलहाल बिहार में सबसे मजबूत राजनैतिक गुट है। वोट बैंक के लिहाज से देखें तो भी इसकी स्थिति भाजपा के मुकाबले मजबूत है।
बिहार में पिछले चुनावों के अनुभव बताते हैं कि राजद और भाजपा में से जदयू जिसके साथ भी हो जाता है वह गठबंधन बिहार में सबसे ज्यादा सीटें जीतने में कामयाब रहता है। 2014 के लोकसभा चुनाव में ये तीनों दल अलग-अलग लड़े तो इसका फायदा भाजपा को हुआ और भाजपा ने 30 सीटों पर चुनाव लड़ा और 22 सीटें जीती थी।
अन्य सीटों पर उसके साथ गठबंधन के सहयोगी रामविलास पासवान की लोजपा और उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा थी इन तीनों दलों को मिलाकर एनडीए गठबंधन ने तब 31 सीटे जीती थी। यह वह दौड़ था जब देश भर में मोदी लहर थी और देश भर में भाजपा की प्रचंड जीत हुई थी।
इसके बाद 2019 का चुनाव भाजपा, लोजपा और जदयू ने साथ मिलकर लड़ा था। इस चुनाव में एनडीए गठबंधन को बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से 39 मिली थी। सिर्फ एक सीट पर कांग्रेस जीती थी। तब जीत का .यह हाल था कि भाजपा 17 सीटों पर लड़ी और सभी 17 सीटें जीतने में कामयाब रही थी। राजद का तो लोकसभा में खाता भी नहीं खुला था।
इस बार क्यों मुश्किल है भाजपा के लिए इतिहास दोहराना ?
बिहार में पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा की सबसे बड़ी सहयोगी जदयू थी। जदयू और भाजपा के अलग होने से दोनों के वोटों का समीकरण भी बदल गया है। वर्तमान में भाजपा और जदयू दोनों की कोशिश राज्य में दलित, पिछड़ा और अति पिछड़ा वोट बैंक को अब अपनी ओर लाना है। भाजपा पिछले कुछ समय से लगातार इन्हें जोड़ने के लिए जातीय सम्मेलनों का आयोजन कर रही है।इनके बीच अपना जनाधार बढ़ाने के लिए जमीन पर काम कर रही है। भाजपा संगठन में भी इन्हें महत्वपूर्ण पदों पर जगह दे कर इन्हें जोड़ रही है। भाजपा जहां एक ओर हिंदुत्व की राजनीति करती है वहीं दूसरी ओर वह जातीय समीकरणों को भी अपने पक्ष में कर के चुनाव जीतने की कोशिश कर रही है।
इसका मुकाबला करने के लिए ही नीतीश कुमार ने जाति गणना करवाई थी। 2 अक्टूबर 2023 को जाति गणना के आंकड़े जारी किये थे। इसके बाद 7 नवंबर को उन्होंने कैबिनेट से आरक्षण का दायरा भी बढ़ाया। इसी कड़ी में पिछले 26 नवंबर को पटना में भीम संसद का आयोजन किया गया था।
नीतीश कुमार के इन कामों से भाजपा सकते में है। भाजपा कहीं न कहीं इस बात से परेशान है कि नीतीश के ये काम उसके लिए लोकसभा चुनाव में उसकी परेशानियों को बढ़ाएंगे। जाति गणना का न तो वह खुल कर विरोध कर पाई और न ही समर्थन। आरक्षण बढ़ाने के फैसले पर भी उसकी यही स्थिति रही है।
ऐसा कर के नीतीश भाजपा के आधार वोट में से दलित और अति पिछड़े के वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश कर रहे हैं। भीम संसद का आयोजन पटना में करने के पीछे भी यही कारण था।
भाजपा जहां राजद के आधार वोट बैंक यादवों और नीतीश के आधार वोट बैंक कुशवाहा में सेंध लगाने के लिए कई वर्षों से प्रयास कर रही थी उसके जवाब में अब नीतीश दलित और अति पिछड़ो की बड़ी आबादी को जदयू से जोड़ने में कामयाब होते दिख रहे हैं।
इसके साथ ही नीतीश और लालू के साथ आने से महागठबंधन के पास मुस्लिम वोटों के बंटवारे का कोई संकट नहीं है। राज्य के मुस्लिमों का एकमुश्त वोट महागठबंधन 17.70 प्रतिशत, यादवों की कुल आबादी 14.26 प्रतिशत का सर्वाधिक हिस्सा, कुशवाहा 4.21 प्रतिशत और कुर्मी 2.87 प्रतिशत का सर्वाधिक हिस्सा महागठबंधन के साथ है।
दलित और पिछड़े- अति पिछ़ड़े समुदाय की अन्य जातियों का भी बड़ा वोट प्रतिशत महागठबंधन के साथ है। सवर्णों का कुछ प्रतिशत भी महागठबंधन को मिलता रहा है। इस तरह से जो समीकरण बनता है वह बिहार में महागठबंधन को काफी मजबूत करता दिख रहा है।
यही कारण है कि राजनैतिक विश्लेषक मान रहे हैं कि बिहार में महागठबंधन के सामने आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा के लिए जीत की राह आसान नहीं होगी। कई राजनैतिक विश्लेषक मान कर चल रहे हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा और एनडीए को बिहार से निराशा मिल सकती है। नीतीश ने अपनी सोशल इंजीनियरिंग से भाजपा के हिंदुत्व की राजनीति का भी तोड़ खोज लिया है।