राम जन्मभूमि-बाबरी मसजिद विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला थोड़ी देर में आ जाएगा। दरअसल 2010 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इस मामले पर एक फ़ैसला दिया था, जिसके ख़िलाफ़ सभी पक्षों ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी। सुप्रीम कोर्ट का आज का फ़ैसला इलाहाबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले पर विचार होगा।
इलाहाबाद हाई कोर्ट के तीन सदस्यों के खंडपीठ ने यह फ़ैसला दिया था। इस खंडपीठ में जस्टिस सिबगत उल्लाह ख़ान, जस्टिस सुधीर अग्रवाल और जस्टिस धरम वीर शर्मा थे। तीन पक्षकार थे, भगवान रामलल्ला विराजमान, निर्मोही अखाड़ा और उत्तर प्रदेश सुन्नी केंद्रीय वक़्फ़ बोर्ड। अदालत ने अयोध्या की विवादित 2.77 एकड़ ज़मीन को तीनों में बाँट दिया था। अदालत ने इस मामले से जुड़े 8 मुद्दों पर विचार किया था और 30 प्रश्नों के उत्तर ढूंढे थे।
आज का सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला इन 8 मुद्दों पर अदालत के फ़ैसले पर विचार करेगा। इसलिए यह जानना ज़रूरी है कि ये मुद्दे कौन हैं।
क्या राम लला विराजमान की ओर से किया गया दावा अभी भी वैध है?
हालाँकि क़ानूनन किसी मामले में दावा 6 साल के अंदर ही होना चाहिए, उसके बाद उस पर दावा वैध नहीं माना जाता है। इस मामले में तीनों जज इस पर राजी थे कि राम लला विराजमान का दावा समय के साथ ख़त्म नहीं हुआ, यह अभी भी वैध है।क्या 1885 में दायर मामले में ज़मीन का मालिकाना हक़ तय हो गया?
महंत रघुबर दास ने राम चबूतरा पर मंदिर बनाने की अनुमति माँगते हुए 1885 में एक मामला दर्ज किया था। मुहम्मद असगर नामक व्यक्ति ने दावा किया कि वह बाबरी मसजिद के मुतवल्ली हैं और उन्होंने इस मामले का विरोध किया। यह मुक़दमा खारिज कर दिया गया। अदालत ने कहा कि वहाँ मंदिर बनाने की अनुमति देने से दो समुदायों के बीच दंगे हो सकते हैं।इलाहाबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले में जस्टिस ख़ान ने कहा कि यह फ़ैसला स्थिति जस का तस बनाए रखने के लिए था, लिहाज़ा मुसलिम पक्ष पर बाध्यकारी नहीं है। जस्टिस शर्मा ने कहा था कि महंत और मुतवल्ली यह दावा नहीं कर सकते थे कि वे सभी पक्षों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए यह सभी पक्षों पर बाध्यकारी नहीं हो सकता।
ढाँचा कब बना, किसने बनाया और किसके कब्जे में है?
हिन्दू पक्ष ने कहा कि ज़मीन हमेशा ही उसके कब्जे में रहा है, उसे सिर्फ़ 1949 में हटाया गया जब फ़ैज़ाबाद के ज़िला मजिस्ट्रेट ने परिसर को कब्जे में ले कर ताला लगा दिया था। मुसलमानों का कहना था कि बाबर के सेनापति मीर बक़ी ने 1528 में मसजिद बनवाई थी और तब से उनके कब्जे में थी।जस्टिस ख़ान और जस्टिस अगरवाल ने कहा कि किसी भी पक्ष के दावे को सही ठहराने के लिए पक्का सबूत नहीं है। जस्टिस ख़ान ने यूरोपियन भूगोलविद जोसेफ़ टाइफ़नथेलर की उस बात पर भरोसा किया कि वह ढाँचा 1786 के पहले बनाया गया था। लेकिन उन्होंने कहा कि इसका कोई सबूत नहीं है कि यह 1528 में बन गया था। जस्टिस शर्मा ने कहा कि ढाँचा बाबर के सेनापति मीर बक़ी ने बनवाया था, पर यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि वह 1528 में ही हुआ था।
क्या किसी प्राचीन हिन्दू मंदिर की जगह पर मसजिद बनी थी?
इस पर तीनों जजों की राय अलग-अलग थी। जस्टिस ख़ान ने कहा कि मसजिद किसी मंदिर को तोड़ कर नहीं बनाई गई थी, लेकिन वह पहले से पड़े किसी मंदिर के मलबे पर बनी थी और निर्माण में उस मलबे के हिस्से का इस्तेमाल हुआ था। उन्होंने कहा कि राम चबूतरा और सीता रसोई 1855 के पहले से है और हिन्दू वहाँ पूजा करते थे।जस्टिस अगरवाल का मानना था कि उस इमारत का इस्तेमाल अकेले मुसलिम समुदाय नहीं करता था, 1856-57 के बाद बाहरी आंगन का इस्तेमाल सिर्फ़ हिन्दू करते थे, अंदर के आंगन का इस्तेमाल दोनों समुदाय के लोग करते थे।
लेकिन जस्टिस शर्मा ने साफ़ कहा कि मसजिद तो हिन्दू मंदिर के अवशेष पर ही बना था। उन्होंने पुरातत्व विभाग की बात का हवाला दिया कि 6 दिसंबर 1992 को ढाँचा ढहाए जाने के बाद जो 265 शिलालेख मिले थे, वे देवनागरी में थे और वे 11 व 12वीं सदी के थे।
मूर्तियाँ 22-23 दिसंबर, 1949 की रात को रखी गई थीं या पहले से थीं?
जस्टिस ख़ान और जस्टिस शर्मा इस पर सहमत थे कि उसी रात को मसजिद के अंदर प्रतिमाएँ रखी गई थीं, जबकि जस्टिस अगरवाल का मानना था कि यह साबित नहीं किया जा सकता है कि उसी तारीख को ऐसा किया गया था।क्या बाहरी आंगन में राम चबूतरा, भंडार और सीता रसोई थी, क्या ये 1992 को ध्वस्त कर दिए गए थे?
इन तीनों जजों ने 1885 और 1950 के नक्शों के आधार पर कहा था कि ये चीजें बाहरी आंगन में थीं। वे इस पर भी सहमत थे कि 6 दिसंबर, 1992 को ये चीजें ध्वस्त कर दी गईं।ज़मीन पर कब्जा और टाइटल किसके पास है?
जस्टिस अगरवाल का मानना था कि अंदरूनी आंगन किसी पक्ष के पास विशेष रूप से नहीं था। बाहरी आंगन में हिन्दू कम से कम एक सदी से पूजा करते आ रहे थे।जस्टिस शर्मा ने कहा कि राजस्व वक़्फ़ के रिकॉर्ड के मुताबिक यह साबित नहीं होता है कि यह हिस्सा सिर्फ़ मुसलमानों के कब्जे में था। उन्होंने कहा कि मसजिद के खंभों पर हिन्दू देवी-देवताओं की आकृतियाँ उकेरी हुई थीं, जिससे साबित होता है कि यह सिर्फ़ मुसलमानों के कब्जे में नहीं था। यह हिस्सा सबके लिए था, इसलिए मुसलमान यह दावा नहीं कर सकते कि यह उन्हीं का था।
जस्टिस ख़ान ने कहा कि मुसलिम पक्ष यह साबित नहीं कर सका कि यह ज़मीन बाबर की थी, जिसके आदेश पर मसजिद बनाई गई थी। हिन्दू यह साबित नहीं कर सके कि जिस जगह मसजिद थी, वहाँ पहले कोई मंदिर था और उस मंदिर को तोड़ कर मसजिद बनाई गई थी।
क्या बाबरी मसजिद वैध मसजिद थी?
जस्टिस अगरवाल का कहना था कि कम से कम 250 साल से और 1950 में विवाद उठने के 200 साल पहले से ही उस जगह को मसजिद कह कर बुलाया जाता था। हिन्दू पक्ष जब कभी इससे जुड़ा कोई मुद्दा उठाता था तो वह मसजिद ही कहता था।जस्टिस शर्मा ने कहा कि मसजिद किसी मंदिर को तोड़ कर ही बनाई गई थी। उन्होंने कहा कि पुरातत्व महत्व की 265 चीजों के मिलने से साबित होता है कि वे किसी पुराने हिन्दू मंदिर के अवशेष थे और मसजिद बनाने में उनका इस्तेमाल हुआ था।
जस्टिस ख़ान का कहना था कि यह नहीं कहा जा सकता है कि किसी दूसरी की ज़मीन पर बनी होने की वजह से यह मसजिद नहीं थी। उन्होंने कहा कि किसी मंदिर के अवशेषों से मसजिद बनाना उचित नहीं है, पर इसी आधार पर क़ानूनन किसी मसजिद को मसजिद मानने से इनकार नहीं किया जा सकता है।