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क्या ईरान के हिजाब आंदोलन के प्रति उदासीन हैं भारत के बुद्धिजीवी? 

क्या ईरान के हिजाब आंदोलन के प्रति उदासीन हैं भारत के बुद्धिजीवी? 

ईरान में चल रहे हिजाब आंदोलन को क्या भारत के बुद्धिजीवियों का समर्थन नहीं मिल रहा है? क्या वाकई में ऐसा है?

दार्शनिक रमीम जहांबेगलू को भारत के बुद्धिजीवियों से निराश देखकर निराशा हुई। वे करन थापर से ईरान में औरतों के विद्रोह के विषय में बात कर रहे थे। वे दुखी थे कि ईरानी औरतों के मुक्ति संघर्ष के प्रति भारतीय बुद्धिजीवी एकजुटता नहीं दिखला रहे हैं। उनकी निराशा कितनी गहरी थी, यह उनकी देह भंगिमा से जाना जा सकता था।

हम जानते हैं कि ईरान की औरतों का आज़ादी का आंदोलन सिर्फ़ औरतों का विद्रोह नहीं है। इसमें पुरुष भी शामिल हैं। नैतिकता की रक्षा करनेवाली ईरानी पुलिस ‘गश्ते इरशाद’ की ज़बर्दस्ती के कारण मारी जानेवाली युवती मासा अमीनी कुर्द थी। 

इस तथ्य को उभार कर भी ईरानी हुकूमत ईरानियों को मासा के साथ हुए अन्याय के ख़िलाफ़ खड़े होने से नहीं रोक सकी। राष्ट्रीयता से ऊपर है अपनी जान, अपनी और अपनी आज़ादी का उसूल, सड़क पर मौजूद ईरानी जनता पूरी दुनिया को यही बतला रही है।

ईरानी अवाम अपने लिए तो लड़ रही है, अपने तरीक़े से जीने के हक़ के लिए। लेकिन इस आंदोलन में एकजुटता के तत्व हैं। मर्द चाहते तो इसे औरतों का मामला बतला कर किनारे खड़े तमाशा देखते रह सकते थे। या फिर इसे कुर्दों की साज़िश ठहराया जा सकता था। ऐसा हुआ नहीं। सबने एक दूसरे की आज़ादी के जज़्बे को महसूस किया और इस तरह यह एक साझा संघर्ष बन गया।

मिल रहा समर्थन

ईरानी जन की आज़ादी की जद्दोजहद में दुनिया ने उन्हें अकेले नहीं छोड़ा है। चारों तरफ़ से, यूरोप हो या अमरीका, उनके लिए आवाज़ें उठ रही हैं। मात्र बुद्धिजीवी नहीं, जनता के अलग-अलग तबके इस संघर्ष को विजयी देखना चाहते हैं। यह कहा जा सकता है कि ईरानी जनता का संघर्ष अगर इतना लंबा चल पा रहा है तो इसका एक कारण यह अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता भी है।

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क्या रमीम की बात सही है कि भारत के बुद्धिजीवी इस आंदोलन के प्रति उदासीन हैं? क्या भारत की नारीवादी औरतें और शेष जन ख़ामोश हैं? रमीम की निराशा सही नहीं है। ये सब बोल रहे हैं। लेकिन उनकी आवाज़ को दुनिया तक पहुँचाने वाला माध्यम न तो सुन रहा है और न औरों तक पहुँचाने में उसकी कोई रुचि है। रमीम कह रहे थे कि ईरान का विद्रोह वास्तव में नए सोशल मीडिया के कारण दुनिया से वाक़िफ़ नौजवानों का विद्रोह है। तो अगर वे इसी माध्यम को देखते तो अपनी धारणा पर पुनर्विचार कर सकते थे।

ईरान के इस विद्रोह का समर्थन एक दूसरी दिशा से भी हो रहा है। वे लोग जो ख़ुद भारत में व्यक्ति की अपनी जान, अपनी ज़िंदगी और अपनी आज़ादी को कुचल देना चाहते हैं, ईरान में हिजाब की होली जलते देख ताली बजा रहे हैं। कुछ टीवी ख़बर पढ़ने वाली अपने कार्यक्रम में ही अपने बाल काट रही हैं।

ईरानी जनता के इस संघर्ष के प्रति उनके उत्साह का प्रदर्शन वीभत्स है। वह इसलिए कि यह तबका भारत में किसी कमजोर तबके के अधिकार के संघर्ष में न सिर्फ़ उनका साथ नहीं देता, बल्कि उनके ख़िलाफ़ सरकार की हिंसा को जायज़ ठहराता है। इसलिए इनका समर्थन वास्तव में ईरानी संघर्ष के बुनियादी उसूल के ही ख़िलाफ़ है। वह व्यक्ति की स्वतंत्रता का उसूल है।

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क्या रमीम इन दृश्यों को नहीं देख रहे? उनकी निराशा को देखकर करन थापर ने भारत के बुद्धिजीवियों की उदासीनता का कारण खोजने की कोशिश की। शायद वे इसलिए संकोच में हैं क्योंकि वे भारत में मुसलमान औरतों के, जो ऐसा चाहती हैं, हिजाब पहनने के अधिकार के लिए आंदोलन कर रहे हैं। ईरान के हिजाब विरोधी अभियान ने उन्हें उलझन में डाल दिया है। इसीलिए वे चुप हों शायद! वे एक जगह हिजाब का समर्थन और दूसरी जगह उसका विरोध कैसे करें?

करन और रमीम, दोनों को ही मालूम होना चाहिए कि जो भारत में मुसलमान औरतों के हिजाब पहनने के अधिकार के साथ हैं, वे ईरान की औरतों के अपने ढंग से पोशाक पहनने के अधिकार के साथ भी हैं। उन्हें कोई उलझन नहीं है। यह औरत की इच्छा का सवाल है। जैसे भारत में एक हिंदुत्ववादी सरकार तय नहीं कर सकती कि मुसलमान औरत सार्वजनिक रूप से कैसी दिखलाई पड़े, वैसे ही ईरान में इस्लामी सरकार भी औरतों के सार्वजनिक रूप को तय नहीं कर सकती।

लेकिन उन लोगों को, जो भारत में मुसलमान औरतों के अपनी मर्ज़ी से हिजाब पहनने के दावे का मज़ाक़ उड़ा रहे हैं, वे ईरानी औरतों के आंदोलन का इस्तेमाल एक बार फिर हिंदुस्तानी मुसलमान औरतों को पिछड़ा हुआ साबित करने के लिए कर रहे हैं। इसके बारे में बहुत कम लोग साफ़ तरीक़े से बात कर पा रहे हैं।

एकजुटता का सवाल

इससे आगे लेकिन एकजुटता का प्रश्न है। रमीम तो बरसों से भारत में रह रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों से भारत के मुसलमान अपने अधिकारों के लिए जो संघर्ष कर रहे हैं, उसमें उन्हें दूसरे देशों से किसी एकजुटता का कोई प्रमाण नहीं मिला है। भारत की मुसलमान औरतों को कहीं बाहर से एकजुटता ने साहस नहीं दिया है। वे प्रायः अकेली लड़ाई लड़ रही हैं।

एकजुटता इतना सरल मसला भी नहीं रह गया है। जो विश्व जनमत मासा अमीनी की मौत से उद्वेलित हो उठा है, वह ग़ाज़ा पट्टी और पश्चिमी तट के इलाक़ों में फ़िलिस्तीनी शिशुओं, किशोरों और नौजवानों के रोज़ रोज़ मारे जाने पर उसकी भौं भी नहीं उठती। जिस यूरोप ने मध्य पूर्व के देशों के लोगों के मुँह पर दरवाज़ा बंद कर दिया था, वे जब यूक्रेन के शरणार्थियों के लिए बाँहें फैला कर खड़े दीखते हैं तो बाहर ठंड में ठिठुर रहे बाक़ी पनाहगुज़ीरों को कैसा लगता होगा?

वीगर मुसलमानों पर ख़ामोशी क्यों?

एकजुटता जब मानवीय मूल्य न हो बल्कि अपनी विचारधारा को सही साबित करने के लिए साधन मात्र हो तो वह खंडित हो जाती है। वह एक के लिए उपलब्ध होगी, दूसरे के लिए नहीं। वैसे ही जब वह रणनीतिक होगी तो दूषित और अविश्वसनीय बन जाएगी। जो इस्लामी एकजुटता का नारा लगाते हैं, वे चीन के वीगर मुसलमानों के दमन पर ख़ामोश क्यों रह जाते हैं?

यह भी सच है कि कुछ एकजुटताएँ आसान हैं और कुछ बहुत मुश्किल। जैसे ईरानी औरतों के इस संघर्ष के लिए एकजुटता दिखलाना पश्चिमी दुनिया के लिए और भारत के बहुत सारे लोगों के लिए आसान होगा, लेकिन फ़्रांस के मुसलमानों के प्रति एकजुटता व्यक्त करने के लिए खुद को तैयार करना कठिन होगा। एक जगह हाथ न बढ़ाने का कारण बतलाया जाता है आधुनिकता, धर्मनिरपेक्षता और प्रगतिशीलता के मूल्यों की रक्षा। वहाँ हम निजी निर्णय और चुनाव के अधिकार के दमन का अगर समर्थन नहीं करते तो विरोध भी नहीं करते।

रमीम भारतीय बुद्धिजीवियों से निराश हैं। लेकिन भारत में बुद्धिजीवी होना और उसका कर्तव्य निभाना सरल नहीं। रमीम खुद ईरान की जेल में रह चुके हैं। उन्हें मालूम होगा कि आनंद तेलतुंबडे, हैनी बाबू, गौतम नवलखा जैसे बुद्धिजीवी भारत की जेलों में हैं। उमर ख़ालिद, शरजील इमाम जैसे युवा बुद्धिजीवी भी। उनके लिए भारत में ही एकजुटता कितनी है?

एकजुटता पर संदेह! 

भारत में पिछले कुछ वर्षों से एकजुटता को संदेह से देखा जाने लगा है। आख़िर रिहाना भारतीय किसानों के लिए क्यों आवाज़ उठा रही हैं या क्यों मार्टिना नवरातिलोवा बोलती हैं? ज़रूर इसके पीछे कोई राज है। एकजुटता ऐसे दिमाग़ के लिए साज़िश है। क्यों कोई हिंदू किसी मुसलमान के अधिकार के लिए आवाज़ उठाता है? वह ज़रूर किसी साज़िशकर्ता गिरोह का हिस्सा होगा।

फिर भी, अगर हमारे लिए कहीं एकजुटता न हो तो इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि हम अपने आप को इस भावना से ख़ाली कर लें। यह लेन देन का मसला नहीं। हम दूसरे के प्रति बिना किसी प्रतिदान की अपेक्षा के एकजुटता दिखलाते हैं तो अपनी इंसानियत को ही प्रमाणित करते हैं। वह भी किसी की निगाह में नहीं। किसी और के लिए नहीं। अपने लिए।

एकजुटता के बिना विश्व की कल्पना कठिन है। अंग्रेजों के ख़िलाफ़ भारत के स्वाधीनता संग्राम में जो अंग्रेज मुखर थे, हम कितना उनके बारे में बात करते हैं? या उन यूरोपीय लोगों के बारे में हम कितना जानते हैं जिन्होंने भारत के संघर्ष को अपना माना?

एकजुटता का भाव मानवीय है, लेकिन वह सहज साध्य नहीं है। एकजुटता यत्नसाध्य है। अपने से बाहर गए बिना और कई बार अपने आप से लड़े बिना सच्ची एकजुटता का भाव पाना भी कठिन है।

रमीम जहांबेगलू एकजुटता की तलाश में हैं। एकजुटता का जल जिस नदी में था, वह भारत में अपना तट छोड़कर काफ़ी दूर बहने लगी है। फिर भी वह जल लाना तो होगा ही।

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