लोकसभा चुनाव 2019 के लिए झारखण्ड की 14 सीटों पर मतदान चौथे चरण में होना है। लेकिन चुनाव में उतरने से पहले राजनितिक पैंतरेबाज़ी ने मैदान में उतरे प्रत्याशियों की नींद हराम कर रखी हैं। कुर्सी की चाहत में कौन, किसे, कब और कहाँ से अपना बना ले, कहा नहीं जा सकता। झारखंड में जितने उत्साह से महागठबंधन की नींव रखी गई थी, वह कमज़ोर पड़ती दिख रही है। या फिर यूँ कहें कि महागठबंधन की गाँठ दिन-ब-दिन ढीली होती नज़र आ रही है।
इसकी वजह है दलों के बीच तालमेल की कमी। चतरा, गोड्डा, हज़ारीबाग, खूंटी और सिंहभूम में महागठबंधन के नेताओं की आपसी लड़ाई जगज़ाहिर है। बाकी की सीटों पर भी सार्वजनिक मंच पर झारखंड मुक्ति मोर्चा के विधायक की ग़ैरमौजूदगी भी कई तरह के कयासों को जन्म दे रही है। दबी जुबां से पार्टी कार्यकर्ता और विधायक कह रहे हैं कि कांग्रेस, झारखंड मुक्ति मोर्चा को निगल जायेगी। यही स्थिति राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी की पार्टी झाविमो और राजद की भी है। एक-दूसरे के सहयोग से मजबूती की बजाय इन्हें अपनी-अपनी जमीन खोने का ही डर है। वैसे भी झारखण्ड पहले से ही जोड़तोड़ की राजनीति के लिए बदनाम रहा है।
मोदी का डैमेज कंट्रोल
यह हालात सिर्फ विपक्ष के गठबंधन तक ही सीमित नहीं है, बल्कि सत्तारूढ़ दल भी उम्मीदवार चयन को लेकर इस परेशानी से घिरा हुआ है। इस कारण दोनों ही गठबंधनों के नेता डैमेज कंट्रोल में लगे हैं। पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रांची में हुआ रोड शो भी इसी डैमेज कंट्रोल के लिए प्रदेश के नेताओं की राय पर हुआ था। रांची में पार्टी प्रत्याशी को फ़ायदा मिल सके, इसलिए इस सीट पर बीजेपी ने उम्र का हवाला देते हुए एक खास जाति के क़द्दावर नेता और निवर्तमान सांसद का टिकट काट दिया। मुख्यमंत्री के बेहद नजदीकी संजय सेठ पर पार्टी ने भरोसा जताया। लेकिन टिकट से वंचित निवर्तमान सांसद ने निर्दलीय ही नामांकन कर राजधानी की सीट बीजेपी प्रत्यशी के लिए चुनौती भरा बना दी है।
चतरा में निर्दलीय की चतुराई
कुछ यही हाल चतरा लोकसभा सीट का भी है। स्थानीय कार्यकर्ताओं की नाराज़गी के बावजूद पार्टी ने दुबारा सुनील सिंह पर ही भरोसा जताया, जिसका परिणाम है कि बीजेपी के एक स्थानीय नेता ही निर्दलीय चुनावी दंगल में ताल ठोक रहे हैं। कोडरमा सीट से राजद की प्रदेश अध्यक्ष और लालू यादव की बेहद भरोसेमंद अन्नपूर्णा देवी का मैदान में आना भी काफी चर्चा में रहा। टिकट मिलने से पहले अन्नपूर्णा पानी पी-पी कर बीजेपी को कोसती थी। लेकिन राजनीति के खेल में अन्नपूर्णा का मामला ऐसा सेट हुआ की वर्तमान सांसद को दरकिनार कर बीजेपी ने अन्नपूर्णा को मैदान में उतार दिया।
जोड़-तोड़ से चुनावी वैतरणी पार करने के लिए मैदान में उतरे बाकी सीटों पर भी कार्यकर्तों में कोई ख़ास उत्साह नहीं दिख रहा है। हालाँकि ख़बरों के मुताबिक़, पार्टी हाईकमान ने स्थानीय विधायकों को साफ़ कर दिया है कि उनका टिकट भी लोकसभा परिणाम पर निर्भर करेगा।
इस चुनावी समर में महागठबंधन की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष पर पार्टी के ही कार्यकर्ता आरोप लगा रहे हैं की टिकट की बोली लगाई गई है।
हज़ारीबाग़ सीट से बीजेपी के मुक़ाबले एक कमज़ोर प्रत्याशी को टिकट दिया जाना भी कार्यकर्ताओं को खल रहा है। चतरा सीट पर गठबंधन के नेताओ के बिच दोस्ताना संघर्ष है, जिसका फायदा बीजेपी को होना तय है। इस सीट पर राजद और कांग्रेस के प्रत्याशी चुनावी दंगल में हैं।
कांग्रेस-झामुमो में समन्वय नहीं
उसी तरह आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र लोहरदगा, चाईबासा, जमशेदपुर और खूंटी सीटों पर भी कांग्रेस व झामुमो के बीच स्वाभाविक समन्वय नहीं बन पाने से भितरघात की संभावना बनी हुई है। वहीं, महागठबंधन को पलीता लगाते हुए झारखंड मुक्ति मोर्चा के विधायक जयप्रकाश भाई पटेल पार्टी लाइन के ख़िलाफ़ हो गये हैं। वह एनडीए उम्मीदवारों के समर्थन में सभा भी कर रहे हैं। उनकी बग़ावत से झामुमो के अंदर भूचाल आ गया है। पटेल बीते विधानसभा चुनाव में मांडू से झामुमो के टिकट पर चुनाव जीते थे। महतो जाती में अपनी पैठ रखने वाले पटेल मंत्री भी रह चुके हैं।
मोदी के नाम पर नैया पार
बात संथाल के गोड्डा लोकसभा सीट की करें तो 2014 में बहुत कम वोटों से हारने वाले एकमात्र क़द्दावर कोंग्रेसी सांसद का टिकट कटने से मुसलिम वर्ग महागठबंधन के प्रत्याशी से नाराज़ दिख रहा है। उसी तरह धनबाद सीट भी बाहरी भीतरी के पेंच में फँसता दिख रहा है।
इस बार झारखंड से बीजेपी को पिछली बार की तरह सफलता मिलती नहीं दिख रही है। रघुबर सरकार के प्रति नाराज़गी, आदिवासी मुद्दों पर बीजेपी की अनदेखी और टिकट बंटवारे में ग़लतियों के कारण ऐसा लग रहा है।
केवल मोदी फैक्टर के भरोसे झारखंड बीजेपी बेड़ा पार लगाने की कोशिश कर रही है। केंद्रीय नेतृत्व यह जानते हुए भी प्रदेश को अधिक अहमियत नही दे रही है। दरअसल भाजपा के रणनीतिकारों ने झारखंड की सीट को दूसरे छोटे राज्यों से क्लब करके मोटे तौर पर सीट की गणना की है, जबकि 2004 में झारखंड की वजह से ही केंद्र में सरकार बनने से रह गया था। तब केवल बाबूलाल मरांडी चुनाव जीत पाए थे, अगर उन्ही 13 सीट में बीजेपी अधिक सीट जीतती तो नज़ारा अलग होता।
मोदी फैक्टर के अलावा बीजेपी को विपक्षी एकता में कमज़ोरी का भी आसरा है। उसी तरह विरोधी दलों को अपेक्षाकृत सफलता नहीं मिलता है तो उसका कारण आपस में सही ताल-मेल में कमी का होना होगा। लेकिन एक बात जो दोनों गठबंधनों के संदर्भ में एक समान दिख रही है, वह यह है कि अवसरवादी जोड़–तोड़ मामले में कोई किसी से कम नहीं है।