डॉक्टरों के एक ग्रुप को संदेह है कि ब्लैक फ़ंगस होने का कारण इंडस्ट्रियल ऑक्सीजन भी हो सकती है। ऑक्सीजन की कमी होने पर मेडिकल ऑक्सीजन की जगह इंडस्ट्रियल ऑक्सीजन कोरोना रोगियों को दी गई। डॉक्टरों की माँग है कि इस बात की जाँच की जानी चाहिए कि इंडस्ट्रियल ऑक्सीजन, मेडिकल ऑक्सीजन की तरह रोगियों के इस्तेमाल के लायक है या नहीं। कहीं इसी के चलते तो ब्लैक फ़ंगस नहीं फैला।
ये बीमारी ऑक्सीजन की कमी पड़ने और इंडस्ट्रियल ऑक्सीजन का इस्तेमाल शुरू होने के बाद ही शुरू हुई। ब्लैक फ़ंगस हमारे देश की हवा में हर जगह मौजूद है। फिर भी कोरोना के पहले दौर में यह बीमारी दिखाई नहीं दी। दूसरे दौर में इसके मामले इंडस्ट्रियल ऑक्सीजन के इस्तेमाल के बाद ही सामने आए।
ब्लैक फ़ंगस का कारण है मास्क?
इंग्लैंड के सर्जन डॉ. समीर शाह ने एक पोस्ट में बताया है कि उनके पास दो ऐसे रोगी आए जिन्हें कोरोना तो हुआ था लेकिन न तो उन्हें अस्पताल में भर्ती किया गया, न ही ऑक्सीजन दी गई और न स्टेरॉइड देने की ज़रूरत पड़ी। इन्हें डायबिटीज़ भी नहीं थी। उनके मुताबिक़ जो मास्क वो पहन रहे थे वो भी ब्लैक फ़ंगस का कारण हो सकता है।
हमारे साँस की नमी से मास्क भी नम होता रहता है, जिसका हमें पता भी नहीं चलता है। इस नमी के कारण मास्क पर ब्लैक फ़ंगस पनप सकता है और साँस के ज़रिए हमारे शरीर में पहुँच सकता है।
इसलिए डॉक्टरों की सलाह है कि मास्क रोज़ बदलें या फिर उसे 20 सेकेंड तक साबुन से धोकर सुखाने के बाद ही दोबारा इस्तेमाल करें।
भ्रम फैलाया जा रहा
“ब्लैक फ़ंगस बीमारी को लेकर भारत सरकार की संस्थाएँ भ्रम फैला रही हैं।” ये कहना है उन डॉक्टरों का जिन्होंने स्टेरॉइड का इस्तेमाल करके हज़ारों कोरोना रोगियों का सफल इलाज किया है। सरकार की तरफ़ से हाल में एक बयान जारी करके कहा गया कि ज़रूरत से ज़्यादा स्टेरॉइड देने से रोगियों में शुगर लेवल बढ़ गया जिसके चलते रोगी को ब्लैक फ़ंगस की बीमारी हो गयी।
डॉक्टरों का कहना है कि ये सरासर झूठ है। स्टेरॉइड से शुगर बढ़ सकता है लेकिन उसे नियंत्रित रखने के लिए इंसुलिन भी दिया जाता है। स्टेरॉइड एक पुरानी दवा है और इसके इस्तेमाल का प्रोटोकॉल पहले से तय है। कोरोना के चलते फेफड़े में इन्फ़ेक्शन का इलाज स्टेरॉइड के अलावा और कुछ है ही नहीं।
आख़िरकार केंद्र सरकार ने ब्लैक फ़ंगस या म्यूकर माइकोसिस को महामारी स्वीकार कर लिया है और राज्य सरकारों से इसे महामारी घोषित करने के लिए कहा है। इस बीमारी का प्रकोप दो-तीन सप्ताहों से दिखाई दे रहा है।
केंद सरकार का ये फ़ैसला देर से आया है, फिर भी शुक्र है कि केंद्र सरकार देर से ही सही लेकिन जाग गयी है।
अब तक इस बीमारी से क़रीब साढ़े पाँच हज़ार लोग प्रभावित हो चुके हैं और एक सौ छब्बीस लोगों की मौत की ख़बर आ चुकी है। ब्लैक फ़ंगस एक पुरानी बीमारी है जो नमी वाले वातावरण में रखे गए बहुत ज़्यादा बीमार लोगों को होती है। इस समय ये बीमारी कोरोना से गंभीर रूप से बीमार लोगों को हो रही है।
सवाल ये है कि ये बीमारी कोरोना के रोगियों को क्यों हो रही है? सरकार की तरफ़ से जो निर्देश निकाला गया, उसमें कोरोना के गंभीर रोगियों के लिए एकमात्र जीवन रक्षक दवा स्टेरॉइड के ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल को ज़िम्मेदार ठहराया गया है। लेकिन क्या यही एकमात्र सच्चाई है?
क्यों हो रही है ब्लैक फ़ंगस बीमारी?
कोरोना के इलाज से जुड़े इंग्लैंड के मशहूर डॉ. अशोक जैनर का कहना है कि इस बीमारी के पाँच कारण हैं। सबसे पहला तो ये कि रोगी का शुगर लेवल बहुत ज़्यादा 400-500 तक पहुँच जाए। दूसरा कारण ये है कि अगर रोगी अंग प्रत्यारोपण, कैंसर या केमो थेरेपी के चलते इम्यून प्रणाली को दबाने या कमज़ोर रखने के लिए कोई दवा ले रहा हो या फिर इम्यून से सम्बंधित किसी बीमारी से पीड़ित हो।
तीसरा कारण रोगी का लंबे समय तक आईसीयू में रहना है। चौथा कारण रोगी अगर ऐसे अस्पताल या ऐसे वातावरण में हो जहाँ धूल ज़्यादा हो, निर्माण का काम चल रहा हो, जमा हुआ और गंदा पानी हो। पाँचवा कारण लंबे समय तक स्टेरॉइड दिया जाना और रोगी का कोई और बीमारी से पीड़ित होना भी है।
सिलेंडर का पानी बदलना ज़रूरी
फेफड़े की बीमारियों के विशेषज्ञ डॉ. विक्रम सरभई के अनुसार, जिन रोगियों को ऑक्सीजन दी जा रही हो उनके सिलेंडर से जुड़े पानी को हर दिन बदला नहीं जाए और पानी में पहले से ही फ़ंगस हो तो इस बीमारी के संक्रमण का ख़तरा होता है। कई बार ऑक्सीजन का मास्क और ट्यूब लंबे समय तक इस्तेमाल करने पर भी ये बीमारी हो सकती है।
कैसे बनता है जानलेवा?
ब्लैक फ़ंगस जिसे हिंदी में काला कवक या आम बोलचाल की भाषा में काई भी कहते हैं, नमी वाली जगहों पर तेज़ी से पनपता है। नालियों और नम दीवारों पर जो काले धब्बे जैसे दिखाई देते हैं वो ब्लैक फ़ंगस हो सकता है। ये मुख्य तौर पर नाक से शरीर में पहुँचता है। ये नाक, साइनस, आँख और कान के भीतरी हिस्सों में अपनी कॉलोनियाँ बनाता है।
यह शरीर के अंदर नमी के कारण बहुत तेज़ी से फैलता है। इसकी सबसे निचली सतह पर अम्ल जैसे रसायन होते हैं जो हड्डियों को गलाना शुरू कर देते हैं।
ब्लैक फ़ंगस के लक्षण
बिहार में भागलपुर मेडिकल कॉलेज के प्रोफ़ेसर डॉ. हेम शंकर शर्मा बताते हैं कि इसके चलते किसी एक तरफ़ के गाल का कुछ हिस्सा सुन्न पड़ने लगता है और सूजन होने लगती है। गाल पर झुनझुनाहट भी महसूस होती है और दर्द भी होता है। आँखें लाल होने लगती हैं तथा दर्द होता है और धुँधला दिखाई देने लगता है।
दो-तीन दिनों तक लगातार सिर में दर्द हो सकता है। मसूड़े फूल जाते हैं और दाँत में दर्द होता है। तेज़ बुखार भी होता है। नाक काली पड़ने लगती है। साँस लेने में कठिनाई होती है। नाक बंद होने लगती है। बीमारी जब बढ़ती है तब नाक से ख़ून आने लगता है।
उल्टी और खाँसी आने पर ख़ून निकलता है। इसके चलते आँख बर्बाद हो जाती है और जीवन बचाने के लिए आँख निकालनी पड़ सकती है। नाक की हड्डियाँ गल जाती हैं और उसे भी निकालना पड़ सकता है। यह मस्तिष्क पर हमला करके उसे बर्बाद कर देता है। इससे किडनी फ़ेल हो सकती है।
क्या है इलाज?
डॉ. शर्मा बताते हैं कि शुरू में ही पता लग जाए तो इसका आसानी से इलाज हो सकता है। इसलिए चेहरे का कोई हिस्सा सुन्न पड़ने लगे या कोई अन्य लक्षण दिखाई दे तो डॉक्टर से तुरंत संपर्क करना चाहिए। सीटी स्कैन और एमआरआई से इसका तुरंत पता चल जाता है। डॉ. शर्मा के अनुसार काला जार के इलाज में काम आने वाली दवाएँ ब्लैक फ़ंगस के इलाज में भी कारगर हैं। हालाँकि ये दवा बहुत महँगी है।
इसका एक इंजेक्शन क़रीब एक लाख रुपये में मिलता है। आम तौर पर आँख, नाक और गले (ईएनटी) के विशेषज्ञ इसका इलाज करते हैं। बिहार, बंगाल और जिन राज्यों में काला जार फैलता रहता है उन राज्यों के सरकारी अस्पतालों में इसकी दवा आसानी से मिल जाती है।
बिहार के पटना से अब सफ़ेद फ़ंगस बीमारी फैलने की ख़बरें भी आ रही हैं। ये भी घातक है। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि अभी इस पर और डेटा की जरूरत है।
ब्लैक फ़ंगस का सबसे ज़्यादा ख़तरा महाराष्ट्र और गुजरात में है। तेलंगाना, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली भी इसके चपेट में हैं। इस बीमारी को रोकने के लिए अस्पतालों की सफ़ाई करके इन्हें फ़ंगस मुक्त करना सबसे ज़्यादा जरूरी है।